मंगलवार, 30 जून 2009

व्‍यंग्‍य लेख हरिभूमि में प्रकाशित

राजस्‍थान के हिण्‍डोनसिटी की खबर पर एक व्‍यंग्‍य लेख
खून... निकाला ही तो है, किया तो नहीं

खबर पढ़ कर पत्नी चिल्लाई, देखना...मरे नासपीटों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा....उनका खून निकाल लिया। मैंने कहा, निकाला ही तो है, किया तो नहीं ? कर ही देते तो हम क्या कर लेते, सिर्फ पढ़ लेते और अखबार मोड़ कर रख देते, जैसा रोज करते हैं। पत्नी, मेरी बेरूखी देखकर आपे से बाहर हो गयी। बोली.. आप तो पत्थर हो...पत्थर। इतनी बड़ी खबर है और कोई असर नहीं। मैंने समझाया...ये सब लालच के वशीभूत हुआ है। बच्चों को कचौरी पसंद थी उसके बाद जूस पीने का भी लालच। डॉक्टर और उसके कुछ साथियों ने मिल कर जूस पिलाया और जूस निकाल लिया। जूस के बदले जूस। जूस फलों का हो या बालकों का, जूस तो जूस है। हमारे देश में उनका भी बाल बांका नहीं होता जो जूस पीने के बाद, गुठली तक नहीं छोड़ते। निठारी काण्ड भूल गयी क्या ? तुम भी कौन सा आम की गुठली छोड़ देती हो.. उसे भी भून कर खा लेती हो कि चलो पेट साफ हो जाएगा।पत्नी, ज्वालामुखी हो चली थी, बोली...आप, आम और बच्चों में फर्क नहीं समझते? मैंने कहा... समझता हूं और अच्छी तरह समझता हूं। अगर ये बच्चे आम न होते तो इनका जूस क्यों निकलता। आम थे तभी तो निकला। जो खास होते हैं उनको घर में ही कचौरी और जूस, बिना भूख ही मिल जाता। ये भूख ही है... जो अपराध को जन्म देती है। बच्चों को भूख थी कचौरी की, डाक्टर और उसके साथियों को भूख थी पैसा बनाने की। बनाने और कमाने में भी फर्क है। कमाने यानि कि कम आने में तसल्ली नहीं होती न। दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूख शांत कर रहे थे। पैसा बनाने में काम अमानवीय है या नहीं, ये सब देखने सोचने की किसे फुरसत है?व्यापार में तो ऐसा ही होता है। सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो। इस खून से भी किसी की जान ही बचेगी, क्यों घबराती हो। सवालिया अंदाज में बोली...क्या खाक जान बचेगी, इन्होंने जो खून निकाला है वह सुल्फा, गांजा और अफीम खिलाकर निकाला है। हो सकता है स्मैक या हीरोइन न पिला दी हो। अब जिसको भी खून चढ़ाया जायेगा वही नशे के वशीभूत हो जायेगा। ये तो उसकी भी धीमी मौत का इंतजाम हुआ न। मैंने कहा... मौत भी धीरे-धीरे ही आनी चाहिए। कौन है यहां, जो मरने की जल्दी में हो? सभी तो देर से और, और देर से मरना पसंद करते हैं। सब यही सोचते हैं आज नहीं कल और कल नहीं परसों। ये कल और परसों, बरसों में बदल जाए तो क्या कहने। पत्नी आंखें तरेर कर अंग्रेजी बोलने लगी। ‘‘इन टू व्हाटऐवर हाउसिस, आई एंटर, आई विल गो इनटू दैम फॉर द बैनिफिट ऑफ द सिक, एण्ड विल एब्सटेन फ्रॉम एवरी वालैन्टरी एक्ट ऑफ मिस्चीफ एण्ड करप्शन... समझे कुछ ?ये एक लाइन है उस शपथ की, जो डॉक्टर, डॉक्टर बनने के बाद और रोगियों की सेवा करने से पहले लेता है तथा डिग्री प्राप्त करता है। क्या हुआ, इस शपथ का ? मुझे फिर समझाना पड़ा... अरी बावरी, अगर ये डिग्री नकली है तो शपथ की जरूरत ही कहां है ? है भी तो शपथ असली होगी, इस बात की क्या गारंटी है? मेरी सुन, ये शपथ वगैरह सब जनता को विश्‍वास के दायरे में रखने का एक साधन मात्र है। ये पति-पत्नी का गठबंधन नहीं है जो सात फेरे के बदले सात-सात जनम निभाना ही पड़े। ऐसा भी सुना गया है कि एक सरकारी डॉक्टर के प्राइवेट क्लीनिक का फीता स्वयं स्वास्थ्य मंत्री ही काट देता है और वहां मुफ्त इलाज का जुगाड़ बिठा लेता है, समझीं...। ये शपथ, नियम और कानून सब दैनिक जीवन के ‘मेकप’ हैं। जब चाहा, वक्तव्यों के चार छींटे मारे और मेकप धो दिया।