गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ये गुरूत्‍वाकर्षण ही ईश्‍वर है

मुझे लगता है
ये जो गुरुत्वाकर्षण है
यही ईश्‍वर है
अन्य सभी परिभाषाएं
अनुत्‍तरित प्रश्‍नों में घिरी हैं
इन परिभाषाओं को नकारा नहीं जा सका है
इसी आशा में कि हो न हो
उत्‍तर कभी न कभी प्राप्त हो ही जाए
आकर्षण क्यों है
प्रतिकर्षण भी क्यों है
यह भी अनुत्‍तरित है
सभी कुछ तो अनुत्‍त्‍ारित है
आदमी अंतरिक्ष में पांव पसार कर
भी नहीं जान पाया है
ये संसार कहां से आया है
वैज्ञानिक ढूंढृ रहे हैं इसका अर्थ
आखिर कहां से आया है पदार्थ
आप जानते हो तो बताना

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

कपड़े धोता धोबी, गंगा में

मीटिंग ए माइल स्टोन के एक दृश्‍य से उपजी प्रतिक्रियात्मक कविता

गंगा के तट पर
पत्थर के पट पर
रजक धोता है
हमारे कपड़ों का मैल और चीकट
साथ में धोना चाहता है
अपनी विपन्नता का संकट
गंगा के किनारे
जी रहा है इसी आशा के सहारे
पानी में होकर भी
पानी से नहीं,
भीगा है पसीने से
तरबतर
तर जायेगा
भागीरथ के पुरखों की तरह
पतित पावनी गंगा है न
ये भी जीवन की शहनाई है न
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

एक व्‍यंग्‍य *फोटोग्राफर*

*कुछ कवियों ने इस कविता की मौलिकता को चुराने का प्रयास किया है। कई लोगों ने इस कविता को सुना कर इनाम भी जीते हैं।*

स्त्री हो या पुरूष
मैं सबकी तरफ सरेआम

एक आंख मींचता हूं
जी हां फोटोग्राफर हूं
फोटो खींचता हूं
क्या करूं धंधा ही ऐसा है
आंख मारने में ही पैसा है

एक बार एक विचित्र प्राणी मेरे पास आया
उसने अपना एक फोटो खिंचाया
बोला
ये रहे पैसे संभालो
इसके छै प्रिंट निकालो

मैं इस बात से हैरान था
ये आदमी था या शैतान था
क्योंकि जब मैंने उसके पोज बनाए
सभी पोज अलग अलग आए

पहला प्रिंट निकाला
बिलकुल काला

दूसरा निकाला
कम्बख्त पुलिस वाला

तीसरा निकाला ये क्या जादू है
ये तो कमण्डल लिए भगवे वस्त्र वाला साधू है

चैथा मास्टर था हाथ में छड़ी थी
एक निस्सहाय छात्रा उसके पास खड़ी थी
पांचवा कंपनी का अधिकारी
उसके साथ कंपनी की एक कर्मचारी

छठा डाक्टर और उसका आपरेशन थियेटर
साथ में परेशान एक सिस्टर

फोटो खींचते अर्सा हो गया था
पर ऐसा तो कभी नहीं हुआ था
नेगेटिव एक प्रिंट छै
अचम्भा है

अब हमारा दिल उससे मिलने को बेकरार था
उसका तगड़ा इंतजार था
खैर वो आया
हमने कहा आइये
बोला मेरे फोटो लाइये

हम बोले यार तुम आदमी हो या घनचक्कर
क्या माजरा है क्या चक्कर
हमने तुम्हारे छै प्रिंट निकाले
एक काला बाकी सब निराले

हमारी तो कुछ भी समझ में नहीं आता
कोई भी फोटो किसी से मेल नहीं खाता
दिमाग चकरा गया है हमारा
बताओ कौन सा प्रिंट है तुम्हारा

वो बोला
मेरा असली फोटो है पहले वाला
जो आया है बिलकुल काला
यही असली है
बाकी तो नकली हैं
शेष पांच में तो मेरी छाया है
इन लोगों पर मेरा ही तो साया है
हम हड़बड़ा कर पूछ बैठे
कुछ परिचय दीजिए श्रीमान
बताइये कुछ अता-पता
कुछ पहचान

बोला नहीं पहचाना
धिक्कार है
आजकल चारों तरफ मेरी ही जय-जयकार है
अखबारों में सम्मान है पत्रिकाओं में सत्कार है
रे मूर्ख फोटोग्राफर
मेरा नाम बलात्कार है

मैं बाहर से भीतर से काला ही काला हूं
काले मन वाला हूं काले दिल वाला हूं

हमने कहा अबे ओ बलात्कार
तू क्यों करता है अत्याचार
तेरे कारण नैतिकता का बेड़ा गर्क हो रहा है
हिन्दुस्तान स्वर्ग था नर्क हो रहा है

बोला
कह लो मुझे तो आपकी इनकी उनकी सबकी सहनी है
पर सच कहता हूं मैंने किसी की वर्दी नहीं पहनी है
मैंने तो सबसे नाता तोड़ा हुआ है
पर इन सब ने मुझे बुर्का समझ कर औढ़ा हुआ है

इतना कह कर वो तो हो गया रफूचक्कर
और मुझे आने लगे चक्कर

अब मुझे उस नेगेटिव से दहशत हो रही है
अगले फोटो में शायद एक और बेटी रो रही हो
एक और बहन अपनी आबरू खो रही हो

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

भागते भूत की लंगोटी ही सही

मेरी समझ काफी समझदार है लेकिन एक बात समझ से बाहर है कि आदमी भागते भूत की लंगोटी ही सही... क्यों कहता है। पहली बात तो ये विवादास्पद है कि भूत होता भी है या नहीं।
वैसे लोकमान्यताओं के अनुसार भूत उन लोगों की भटकती आत्मा होती है जो लोग अपने जीवन की मझधार में यमदूतों के हत्थे चढ़ जाते हैं और यमराज उन्हें स्वीकारता नहीं। न तो उन्हें स्वर्ग में एडमीशन मिल पाता है और न ही नर्क में। इधर परिवार के सदस्यों को इस अजीबो गरीब समस्या पर विचार करने की फुरसत नहीं होती क्योंकि वे लोग उसके शरीर को आग को समर्पित कर बीमा कंपनी के चक्कर लगा रहे होते हैं। कहां मिलती है फुरसत।
विचारणीय विषय है जिनके पास अपना शरीर ही नहीं होता तो वह भागेगा कैसे। मान लो बिना टांगों के भागा होगा जैसा कि हमारे देश में अफवाहें भागती हैं। कुछ समय पहले एक काला बंदर गाजियाबाद में भागा करता था।
इससे पहले भी पूरा भारत ही बौराया था गणेश जी को दुग्धपान कराकर। भला जो मोदक प्रिय हो उसे दूध चाय से क्या लेना। लोगों की नादानी से नाली के कीड़े भी धन्य हो गये दूध में नहा धोकर।
अफवाहों की तरह माना कि भूत भी भाग रहा होगा। लेकिन भूत के पास टांग नहीं तो उसके बास लंगोटी कहां से होगी। होगी भी तो किस काम की। चलो माना कि होगी, तो एक सवाल उठता है - कि आदमी भूत की लंगोटी खींचने से इतना संतुष्‍ट क्यों। मेरी समझ से तो दो ही कारण हो सकते हैं, खुद को ढकना चाहता है या उसको नंगा करना चाहता है तथा दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो देखो ये नंगा हो गया। ये आदमी भी क्या गफलत में रहता है। जिसका तन ही नहीं उसको भी नंगा करने पर उतारू है।
तीसरी बात कहूं- लंगोटी खींचना कोई अचंभे वाली बात नहीं है। अचंभे वाली बात तो ये है कि जब भूत का तन नहीं होता तो भी आदमी न जाने क्या देखना चाहता है। क्या तन वालों को नंगा देखकर मन नहीं भरा है...। वैसे आदमी के लिए किसी की भी कहीं भी और कभी भी लंगोटी खींचना कोई बड़ी बात नहीं है। खींचता जो रहता है एक दूसरे की। फिर भूत क्या चीज है। गनीमत है भूत ही इस घटना का शिकार हुआ है, भूतनी बच गयी है।

वरना आदमी का भी क्या भरोसा। वैसे मैंने काफी मनन किया है इस कहावत के जन्मदाता के विषय में। न जाने क्या सोचकर उसने इस कहावत की रचना कर डाली। वैसे ये शोध का विषय तो है। लंगोटी की जगह पाजामा भी तो खींचा जा सकता था। बनियान खींचा जा सकता था, कमीज खींची जा सकती थी। लंगोटी पर ही क्यों नजरें टिकाईं आदमी ने।
हां, जिस चीज की ज्यादा जरूरत होती है उसी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती है पर लंगोटी न हो तो भी पाजामे से काम चलाया जा सकता था। चाहे जो भी हो बात जम नहीं रही, कहावत भी नहीं। एक कहावत और है इस हमाम में सभी नंगे, आदमी शायद इसी कहावत को सही साबित करने पर आमादा हो।
आप भी सोचो, मैं भी सोच रहा हूं। हो सकता है आदमी ईर्ष्‍या के वशीभूत हो ऐसी हरकत करना चाहता हो। क्योंकि ईर्ष्‍या करना भी आदमी के शगलों में एक खास शगल है।

जिसकी होती नहीं काया वो भी नहीं बच पाया