रविवार, 27 दिसंबर 2009

सर्दी के दोहे

शीतलहर के कोप का चला रात भर दौर
धुंध ओढ़कर आ गयी भयाक्रांत सी भौर

सूरज कोहरे में छिपा हुआ चांद सा रूप
शरद ऋतु निष्‍ठुर हुई भागी डरकर धूप

सूरज भी अफसर बना, है मौसम का फेर
जाने की जल्दी करे और आने में देर

दिन का रुतबा कम हुआ, पसर गयी है रात
काटे से कटती नहीं, वक्‍़त-वक्‍़त की बात

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

एक व्‍यंग्‍य लेख जो आज के हरिभूमि में प्रकाशित है

पीली दाल पीनी है
जब हम पढ़ते थे, विज्ञान के शिक्षक ने बताया था कि पृथ्वी गेंद की तरह गोल है। उसी आकृति की अन्य वस्तुएं जैसे संतरा या खरबूजा भी उस जमाने में थे, तरबूज भी था। लड्डू और रसगुल्ले भी थे। कम से कम स्वाद तो होता। क्यों इस नीरस गेंद का उदाहरण बेहतर समझा गया ? माना कि मीठी चीजों से मधुमेह का खतरा हो सकता था पर तरबूज या खरबूजे से तो खतरा नहीं था। ये फल हैं और मुझे पृथ्वी की तुलना खरबूजे से करना ही अच्छा लगता था। मैंने उस वक्त भी इसका विरोध किया था। पूरी क्लास के ठहाकों ने मेरा पूरा उपहास किया और मैं, न चाहते हुए भी चुप हो गया। ताने सुनने को अलग से मिले, पण्डित है न... खाने की ही बात करेगा। लग रहा था जैसे किसी और को तो खाने से कोई मतलब ही नहीं होता...। मेरा दृष्‍िटकोण कुछ और ही था, जिसे मेरे सहपाठी तो समझ नहीं पाये थे। ठुकराई जाने वाली चीजों से तुलना करना उचित भी नहीं था। हॉकी में.. स्टिक से मार खाती है, क्रिकेट में.. बैट से धुनाई होती है। फुटबाल में, ठोकरों में रहती है और बॉलीबाल में, मुक्के पड़ते हैं। गेंद का भविष्‍य सिर्फ और सिर्फ पिटना है। इस पिटती हुई चीज से महान पृथ्वी की तुलना ? न..न..न.. ।अब आप कहेंगे, पृथ्वी की तुलना खरबूजे से ही क्यों ? बताता हूं...बताता हूं....दोनों एक जैसे होते हैं। खरबूजे में फांक होती हैं। आपने ग्लोब देखा होगा.... ग्लोब पृथ्वी की ही प्रतिकृति होता है। उसमें देशांतर रेखाएं होती है। खरबूजे में ये रेखाएं फांक कहलाती हैं। ये फांक पृथ्वी पर भी हैं और सब देशों की स्थिति प्रदर्शित करती हैं। ग्लोब पर भारत भी तीन फांको में कहीं कम और कहीं ज्यादा विस्तारित है। आप जानते ही हैं खरबूजे की फांक खाने के काम आती हैं। बस यही एक कारण है जो मैं पृथ्वी की तुलना खरबूजे से करना सटीक और सही मानता हूं। अब तो आप संतुष्‍ट हो गये होंगे। अगर आप अभी भी संतुष्‍ट न हुए हों तो कुछ और बताया जाए? लीजिए बताते हैं। खरबूजे में कीड़े भी लगते हैं। पूरी दुनिया की तो मैं कह नहीं सकता पर भारत के हिस्से आई, कुल जमा तीन फांको में तो लग ही रहे हैं। जिसका जहां दाव चल रहा है, वह वहीं से खा रहा है। यकीन नहीं आता? लगता है अखबार तो पढ़ते हो, पर पूरा नहीं। कहीं कीड़ा, कहीं म....कोड़ा, कोई ज्यादा तो कोई थोड़ा। सभी कुतर रहे हैं। कुतर-कुतर कर अपने को और अपने अपनों को तर-बतर कर रहे हैं। हमें और आपको... पीली दाल खाने की विज्ञापनी घुट्टी पिलाई जाती है और उनके अपने लिए... खरबूजा कट रहा है।
चूहों को तो लोग नाहक बदनाम करते हैं। वैसे कुतरना एक कला है, इस पर किसी का बस चला है? इस बात का कोई महत्व नहीं रह गया है कि किस को कितना समय कुतरने को मिला है। इसीलिए तो कुतरने को, कला का रूप दिया गया है। इस कला की यही खासियत है कि जितना कम समय, उतनी ही अधिक कुतरन।ये लेख पढ़ने के बाद... याद है न... पीली दाल पीनी है। ....................................................................

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

जन्‍मदिन की पहली पहेली : पहेली हूं मैं

आओ यादों को टटोलें
किसका जन्‍मदिन है
यही बूझें
बधाई तो सब देते हैं
पर पहले जान तो लें
14 दिसम्‍बर है आज
किसको रहा है याद
करते हुये सब काज
राज कपूर
संजय गांधी
श्‍याम बेनेगल
और ...
ब्‍लॉग जगत में से ...
जल्‍दी यादों को
रिफ्रेशायें फिर
शुभकामनायें दे जायें।

रविवार, 15 नवंबर 2009

तेंदुलकर का इंतजार मैंने भी किया था कभी ...

वैसे तो मुझे बचपन से ही समाचार पत्र पढ़ने में बेहद रूचि रही है। इसी क्रम में एक दिन मैंने एक इंटरव्‍यू पढ़ा। यह इंटरव्‍यू था उस समय के विख्‍यात बल्‍लेबाज श्री सुनिल मनोहर गावस्‍कर का । अपने इस इंटरव्‍यू में गावस्‍कर ने जो भविष्‍यवाणी की थी वह कुछ यूं थी '' लोग ये सोचते हैं कि जब मैं क्रिकेट से संन्‍यास ले लूंगा तो भारतीय टीम का क्‍या हाल होगा......... ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और जो होने वाला है वह किसी चमत्‍कार से कम नहीं होगा। जी हां .... आने वाले समय में भारतीय टीम को एक ऐसा खिलाड़ी मिलेगा जो गावस्‍कर को भुला देगा । जी हां .... उसका नाम है ' सचिन '



इस इंटरव्‍यू में गावस्‍कर द्वारा की गयी इस भविष्‍यवाणी को मैं भुला नहीं पाया और जब भी भारतीय टीम का चयन होता तो में उस सचिन को तलाशता था। यूं ही एक दिन जब सचिन का सलैक्‍शन हुआ टीम के लिए तो मुझे गावस्‍कर की बात याद हो आयी और सच में जो गावस्‍कर ने काफी समय पहले कहा था वो सब सरासर सच साबित हुआ और अब यह सच सारी दुनिया के सामने है तथा सारी दुनिया इस महान बल्‍लेबाज को प्रणाम कर रही है। इस महान बल्‍लेबाज को मेरा भी प्रणाम और इसके बल्‍ले को शत शत प्रणाम। हमारे देश के लिए पूजनीय है, दुलारा है सचिन.... मैं अपने को सौभाग्‍यशाली मानता हूं कि मैं उस समय को जी रहा हूं जब सचिन मेरे सामने शतक लगा रहा है।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

मिल कर इसका नाम विचारो

एक पैर का संत महान
जिस बिन हम होंगे बेजान
इस गूंगे के हाथ हजारों
मिल कर इसका नाम विचारो

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

नाम बता क्या मेरा

ग्रेफाइट की बाडी मेरी लकड़ी के हैं कपड़े
हर कोई उपयोग में लाता हाथ में पकड़े पकड़े
रंग बिरंगी प्यारी प्यारी बड़ा नुकीला चेहरा
तेरे अंदर बुद्वि है तो नाम बता क्या मेरा

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

बताओ तो

वर्षा में तो यौवन पाया
शांत हो गयी जाड़ों में
मर गयी जाकर सागर
जो जन्मी बीच पहाड़ों में

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

ढूढ़ों अपने कान में

अंक डंक रंक में गुडि़या जी की फ्राक में
कलियों में मुस्काता रहता देखो अपनी नाक में
सड़क किनारे रहता हूं मैं बीचों बीच मकान में
नहीं मिला तो अक्ल लड़ाओ ढूढ़ों अपने कान में

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

शुभकामनाएं

नगर धुएं से भरा, सांस हुई दुश्‍वार
बम पटाखे फुलझड़ी, मत फूंको मेरे यार

आज की दिवाली पर हमने और हमारे बच्‍चों ने आतिशबाजी का प्रयोग नहीं किया है।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

औटो चलो कपास

कहीं नहीं औलाद की मेरे बिन औकात
औरत के सम्मुख रहा चलो बताओ बात
मैं और तू के बीच में खोजो करो प्रयास
नहीं मिला तो दण्ड में औटो चलो कपास

पिछली पहेली का उत्‍तर है ' घड़ी '

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

नाम बता दे बस मेरा

ये मेरी मजबूरी है मुझे सिर्फ समय से लड़ना है
अपने दो हाथों के बल पर हर पल आगे ही बढ़ना है
कब सूर्य उगा कब शाम हुई ये काम देखना है तेरा
मैं चलती हूं और स्थिर हूं तू नाम बता दे बस मेरा

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

सोचो सोचो सोचो

सब चीजों को धूप सुखाये लेकिन हमें भिगोती
हम तो हरदम भीगे रहते छाया जो न होती
चलो खुजाओ सभी खोपड़ी है कैसी ये माया
इस बात को वही बताए जिसको पसीना आया

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एक नन्‍ही पहेली

मैं तो तेरी रक्षा करता तू रोंदे मेरे तन को
घर के अंदर आने न दे कैसे रोउं जीवन को


पिछली वानर वाली पहेली का उत्‍तर था ' पटाखा '

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

इस वानर का नाम बताओ

एक वानर की पूंछ में जब आग लगाई जाती है
बच्चे भागें दूर दूर जनता पीछे हट जाती है
चिंगारी बनती है शोला हरेक स्तब्ध रह जाता है
लंका में आग नहीं लगती वानर पूरा जल जाता है

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

दिमाग की बत्‍ती जलाओ

एक साल की उम्र हमारी बच्चे पूरे दरजन
बारिश भरी जवानी अपनी गर्मी मेरा बचपन
ठंडा ठंडा हाय बढ़ापा काटे नहीं कटेगा
जो भी मेरा नाम बता दे बुद्विमान वो होगा

बुधवार, 30 सितंबर 2009

चांद की चिंता

चांद ने कहा सूरज से तुम
मुझे सुरक्षा दो
या सुखा दो
वरना ये मेरा अंग अंग तोड़ देंगे
और सारा पानी निचोड़ लेंगे
ये अपने कदम अंतरिक्ष में बढ़ाना चाहते हैं
पृथ्‍वी के साथ साथ मुझे भी सड़ाना चाहते हैं
जो अब तक मुझे दूर से साला
‘अपने बच्चों का मामा‘ कहते थे
और पत्नी के चेहरे से करते थे तुलना
हे सूरज, मुझे इनसे नहीं मिलना जुलना
धरा ने इन्हें सब कुछ दिया है
इनका घर भर दिया है
लेकिन इनकी लिप्सा पूरी नहीं होती
ये प्लाट काटना चाहते हैं
धरती को तो बांट दिया है
मुझे भी बांटना चाहते हैं
अभी से सौदे बाजी होने लगी है
कई देशों में बाजी लगी है
कौन मार ले जाए बाजी पता नहीं
इससे पहले तू कुछ कर तो सही

घुमाओ खुपडि़या

आगे आगे आऊंगा जब जो भी ऋतु आयेगी
अगर ऋचा में ढूंढ़ सको तो वेदों में मिल जायेगी
ऋषि ऋणी मुझसे हुए और हुए ऋतुराज
ऐसा क्या है मामला खोलो इसका राज

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

चलो करो दिमागी काम

एक रखा एकांत में एकतारा के पास
एक ले गयी एकता तू क्यों होत उदास
अगर तुझे भी चाहिए एकदंत को पूज
यदि मिला उत्तर सही अच्छी तेरी सूझ

सोमवार, 28 सितंबर 2009

ब्‍लॉगवाणी की जोत फिर से प्रज्वलित कीजिए

टीम ब्‍लॉगवाणी को निवेदन

देश में नई नई उम्‍मीदों की किरण

चारों तरफ कर रहीं हैं विचरण

चांद कितना दयावान है

कर रहा है हमारे लिए जल संरक्षण

फिर आप ने ये क्‍या कर डाला

निकाल दिया लेखकों का दिवाला

हे ब्‍लॉगों के माई बाप

चंद सिरफिरों के विचारों को नजरअंदाज

क्‍यों नहीं कर पाये आप
जागिये जागिये और जागिये

हिन्‍दी की सेवा से दूर मत भागिये

ये हमारी भाषा है

वाणी बंद होने से हमें निराशा है

तो कृपया अपनी महान ब्‍लॉगवाणी को

फिर से जगाइये और ये सेवा का दीप फिर से जलाइये

आपकी महानता को हम प्रणाम करेंगे

रविवार, 27 सितंबर 2009

एक और पहेली

न पूरब में न पश्‍िचम में, रहता हूं मैं उत्तर में
मेरा है स्थान सुरक्षित हर प्रश्‍न के उत्तर में
आगे मैं था जब जब चला उस्तरा नाई का
बता पहेली वरना उल्लू नाम पड़ेगा भाई का

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

लीजिए चौथी पहेली बताइये

अगर इमरती खाओगे पहले मुंह में जाए
इंद्रधनुष में झांक लो उसमें भी दिख जाए
इंजन के आगे रहे इसकी अपनी धाक
जिसे ढूंढ़ने आपको जाना पड़े इराक

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

पहेली नं 3 हाजिर है

आड़ू में और आम में आगे आगे आए
दर पर आगे आ लगे तो आदर पा जाए
चलो खुजाओ खोपड़ी करो दिमागी काम
बिन उसके थक जायेगा देखो देखो राम

शनिवार, 19 सितंबर 2009

खो गया डाकिया

डाकिया आता था एक थैला लाता था
मोहल्‍ला जुटता था जिज्ञासा और आशा के बीच हरेक आनंदित होता था
डाकिया पता पूछता तो हर कोई घर तक छोड़ आने को तैयार होता था
अपने आप को धन्‍य समझता था
आज पहली बात तो डाकिया नहीं आता, कोरियर वाला आता है
वह पता पूछता है तो कोई नहीं बताता पड़ोस में कौन रहता है
कोई नहीं जानता खुश होना तो दूर की बात है
सच में ये खुशियां दूर चली गयीं हैं अब
न डाकिया है, न उसका इंतजार है
शहरीकरण जो हो गया है
कोरियर वाला आता है
उसे डाकिया का दर्जा
कतई नहीं दिया जा सकता

दूसरी पहेली हल करोगे..............

कर डालो अमरूद के बच्चो टुकड़े चार
काटो टुकड़े तीन फिर लेकर एक अनार
अपने को पहला मिले रहना सदा सतर्क
बनी पहेली हल करो करके तर्क वितर्क

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

एक पहेली बता सकोगे........

चलो बताओ पाठको, एक अनोखी बात
अंतिम के आरंभ से होती है शुरूआत
स्‍वर व्‍यंजन के हार की महिमा हुई अनंत
हंसने की शुरूआत से हो गया इसका अंत

रविवार, 13 सितंबर 2009

ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन : जैसा अविनाश वाचस्‍पति ने कहा


आज साहित्‍य शिल्‍पी के वार्षिकोत्‍सव पर इस ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन के मुख्‍य अतिथि डॉ. प्रेम जनमेजय जी, राजीव रंजन प्रसाद जी, मंचासीन और यहां उपस्थित सभी हिंदी प्रेमियों, ब्‍लॉगर्स/साहित्‍यकारों और टिप्‍पणीकारों को बधाई देता हूं और उनका अभिनंदन करता हूं।

इंटरनेट का प्रादुर्भाव विचारों के प्रकाशित किए जाने के लिए हितकारी रहा है। विचारों को प्रकट करने और हिट कराने में इसके योगदान से सभी परिचित हैं। ब्‍लॉग या चिट्ठे के आने के बाद संपादक जी से रचनाओं की सखेद वापसी के युग का अंत हो गया है। अब आप सर्वेसर्वा हैं यानी लेखक, संपादक, वितरक, प्रचारक और पाठक भी। जैसा कि हम सभी जानते हैं स्‍वत्‍वाधिकारी होने से जिम्‍मेदारी कम नहीं होती अपितु बढ़ जाती है। इस दायित्‍व के संबंध में माननीय मुख्‍य अतिथि डॉ. प्रेम जनमेजय से अधिक कौन जानता होगा, जो कि एक लंबी व्‍यंग्‍य यात्रा के साक्षी हैं।

ब्‍लॉग पर प्रकाशित विचारों का, रचनाओं का और आपसी विचार विनिमय का महत्‍व शब्‍दों में नहीं बतलाया जा सकता। ब्‍लॉग ने हमें अंतहीन विचारों का सफर प्रदान किया है। यह सफर जारी है और जारी रहना चाहिए। अजित वडनेरकर जी के शब्‍दों के सफर की निरंतरता और उपयोगिता के माफिक। उनसे कदाचित ही कोई अपरिचित होगा जैसे कोई उड़नतश्‍तरी जी को न जानता हो, ऐसे बहुत से नाम हैं ... सबका उल्‍लेख करना संभव नहीं है और ऐसे ही एक प्रेमी बंधु अरूण अरोड़ा जी आज यहां पर अपनी मौजूदगी से सतरंगी रंग बिखेर रहे हैं। आप अपने मन को टटोल लीजिए, ऐसे बहुत से नाम खुद ब खुद आपके जहन में गोते लगाने लग गए हैं।

आज हम साहित्‍य शिल्‍पी के सौजन्‍य से इनके नुक्‍कड़ पर अपने नुक्‍कड़ के तमाम लेखकों और पाठकों के साथ इस महासम्‍मेलनीय स्‍वरूप में एकत्रित हुए हैं। वैसे इनका नुक्‍कड़ और हमारा नुक्‍कड़ और आपका नुक्‍कड़ तथा जो इंटरनेट के माध्‍यम से जुड़े हुए हैं, सब मिलकर चौराहा बनता है और इस चौराहे पर मिलकर हम सब हर्षातिरेक और प्रेम से आनंदित हो रहे हैं। आज हम सब इतना कहना चाहते हैं कि यदि यह समारोह एक सप्‍ताह भी लगातार चले तब भी सबके पास बहुत कुछ अनकहा रह जायेगा।

इस अवसर पर स्‍मृति दीर्घा के भाई सुशील कुमार, आशीष खंडेलवाल का भी जिक्र करना चाहूंगा जिनकी कर्मठता, लगन और तकनीकी सहयोग ने हमारे ब्‍लॉगों को तकनीकी तौर पर समृद्ध किया है और यह प्रक्रिया अनवरत रूप से प्रवाहमान है। हमें बहुत सारे वरिष्‍ठ लेखकों का आशीर्वाद प्राप्‍त है, साथी लेखकों का बेशुमार प्‍यार जिनमें भविष्‍य में अपनी लेखनी के बल पर धूम मचाने वाले अजय कुमार झा, विनोद कुमार पांडेय, पुष्‍कर पुष्‍प, विनीत कुमार इत्‍यादि का उल्‍लेख कर रहा हूं। इसका आशय यह न लिया जाए कि वे इस समय धूम नहीं मचा रहे हैं और जिनके नाम नहीं ले रहा हूं वे हमें प्‍यार नहीं करते अपितु सबका नाम लूंगा तो अलग से एक सूची ही पढ़नी होगी तब भी सूची मुकम्‍मल नहीं हो पाएगी। आपके सबके स्‍नेह संबल से ही साहित्‍य शिल्‍पी और नुक्‍कड़ आज यहां मिलकर प्रेम की बरसात, सचमुच की बरसात के बीच कर रहे हैं। बारिश ने मौसम खुशनुमा बना रखा है।

इंटरनेट ने एक दुर्गम विश्‍व को एक सुंदर सा आधुनिक गांव बना दिया है। इंसानों की भौगोलिक दूरियों से ज्‍यादा वैचारिक दूरियां होती हैं। ऐसी दूरियों को पाटने का काम जितनी खूबी से इंटरनेट कर रहा है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम है।

इस गांव की एक कुटिया में आपको पाबला जी मिलेंगे, उनके साथ वाली कुटिया में ही ज्ञानदत्‍त पांडेय जी अपनी छुक छुक रेलगाड़ी के साथ, चौखट में चंदन जी और मास्‍टरनी नामा में कुमाऊंनी चेली शेफाली पांडेय जी। जो हलद्वानी से इस ब्‍लॉगर्स सम्‍मेलन के लिए खासतौर से पधारी हैं।

ब्‍लॉगों पर सभी तरह के पुष्‍प मौजूद हैं जिसको जो लुभावना लगे वो उसके साथ जुड़ जाता है। इसमें सभी का अपना महत्‍व है जिसमें विधा और विषय अलग हो सकते हैं।

कंप्‍यूटर के सामने बैठकर कभी मैं अकेला नहीं रहा हूं। मेरे साथ एक भरा पूरा जीवंत संसार अपनी विविध कलाओं रूपी हरी, लाल, संतरी रंग की जगमगाती बत्तियों के साथ सदा मौजूद रहता है ।

बेमन से कार्य किया जा रहा हो तो समय बिताये नहीं बीतता। एक एक पल एक साल से भी लंबा महसूस होने लगता है। समय सिर्फ उसी काम में कम पड़ता है जिसमें हमारा मन रच जाता है। और फिर जिस काम में मन रम गया तो वक्‍त का नशा उतरने का नाम नहीं लेता। समय का पता ही नहीं लगता, कब कितना गुजर गया। ऐसे ही अहसास सुख और दुख के होते हैं।

इंटरनेट ध्‍यान में साधना करने वाले मेरे जैसे कीबोर्ड के खटरागी प्रत्‍येक साधक इस सच्‍चाई से रोजाना ही रूबरू होते हैं। इस साधना के सामने भूख प्‍यास जैसी भौतिक जरूरतें भी कुछ समय के लिए गैर-जरूरी हो जाती हैं या हम उनकी अवहेलना करने का गुनाह कर बैठते हैं। पर प्रेम के इस खेल में ऐसे गुनाहों पर माफी मिल जाया करती है।

इंटरनेट पर हिंदी के संबंध में और ब्‍लॉगिंग के संबंध में सभी उपस्थित जन अपने अपने विचार संक्षिप्‍त में रख सकते हैं। उन्‍हें रिकार्ड किए जाने की व्‍यवस्‍था है और उनसे लाभान्वित कराने के कार्य में साहित्‍य शिल्‍पी और नुक्‍कड़ टीम के सभी सदस्‍य एक बार फिर पूरी शिद्दत से जुट जायेंगे।

और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे साहित्‍य शिल्‍पी के माध्‍यम से स्‍नेह विनिमय का यह प्रयास इंद्रधनुषीय रंगों को जीवंत कर रहा है।

धन्‍यवाद।

विशेष : 12 सितम्‍बर 2009 फरीदाबाद में आयोजित साहित्‍य शिल्‍पी वार्षिकोत्‍सव के अवसर पर नुक्‍कड़ ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन को आरंभ करते हुए जैसा अविनाश वाचस्‍पति ने कहा, अविकल रूप से प्रस्‍तुत है। उल्‍लेखनीय है कि इस महासम्‍मेलन में भोजन और भजन (ब्‍लॉगर विचार) साथ साथ चले।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

आओ, आओ ..... बेझिझक सादर

आप जानते हैं मुनादी किसे कहते हैं..............
आधुनिक युग में इसे कहते हैं विज्ञापन
और आज हम मुनादी नहीं, विज्ञापन नहीं .....................
स्‍नेह विस्‍तार कर रहे हैं
इस विस्‍तार में आपका प्‍यार भी हो
आपकी उपस्थिति भी सुनिश्चित हो
सभी ब्‍लॉगर मित्रों से निवेदन है
आप सभी शामिल हों
12 सितंबर दिन शनिवार को फरीदाबाद में
और इस स्‍नेह विस्‍तार को नया विस्‍तार दें
चटकाइये और पाइये निमंत्रण

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

'लो हो गया शतक' प्रकाशित हरिभूमि और शबद लोक

जिन्ना और ता ता धिन्ना
आज मेरा दोस्त अविनाश कुछ अलग अंदाज में था। वैसे तो वह मुझसे छोटा है पर बात कुछ इस तरह कर रहा था जैसे बड़ा हो गया हो। आते ही बोला...क्या कविता... क्या व्यंग्य, मेरी मान॥ तो ये सब छोड़ दे और अपनी कलम को किताब की तरफ मोड़ दे। किताब लिख, किताब... कविता से क्या मिलेगा जो किताब से मिलने वाला है। बस ऐसा मसाला ठूंस दे कि तूफान खड़ा हो जाए। मेरी माने तो शांत तालाब में सोडियम का टुकड़ा फैंक दे। पानी में आग लगाने का रासायनिक तरीका है। आग लगाओ और दूर खड़े सेको। मजे से तमाशा देखो। तुम्हारे लेख और कविता की कीमत भी तीन अंको से चार में पहुंच जाएगी। मेरे प्रश्‍न करने से पहले ही बोल पड़ा...तुम भी तो बीसवीं सदी में पैदा हुए थे, सो अपने जनम के आस-पास का कोई किस्सा टटोल और लिख दे गोल मोल। बस एक बात का ध्यान रखियो... अगर किस्सा सच हो तो ऐसे लिखना कि झूठ लगे। यदि सच न मिले तो ऐसा झूठ लिखमार कि सरासर सच लगने लगे। लेखन का सबसे बड़ा टोटका है। कोई चूमे न चूमे, पर सफलता तेरे कदम चूमेगी। किसी की ताब नहीं कि उस किताब को बिकने से रोक सके। सफेद तो क्या काले में भी बिकेगी। आइडिया दूं... किसी भले आदमी पर कीचड़ उछाल दे, किसी सज्जन पर लांछन लगा दे। कलम की आजादी इसी को तो कहते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसी का सहारा ले और भारत की सुप्त जनता को जगा दे। एक नया मुद्दा दे दे। कुछ दिन गाल बजा लेगी और दाल का दाम भूल जाएगी। ऐसा करने से तेरी भी दाल गल जाएगी। अब ये मत लिखना कि भारत को किसने तोड़ा था, ये आइडिया तो किसी नेता ने मार लिया है। मैं सोच ही रहा था कि ये गड़े मुर्दे कौन उखाड़ रहा है? अविनाश ने भांप लिया और बोला... मेरे यार ये मुर्दे, गाड़े ही इसलिए जाते हैं कि उनको उखाड़ा जा सके। ये वो राजनीतिक दांव है जिससे दूसरे को पछाड़ा जा सके। अविनाश अभी भी बोले ही जा रहा था और मैं ये सोचने में मग्न था कि देश में ऐसे नेता क्यों नहीं हैं जो उस किताब को लिखें, जिसमें देश को एक सूत्र में पिरोने का मजबूत धागा विकसित हो। देश का अंग-अंग एक मोती की माला में गुंथा नजर आए। इधर-उधर बिखरे हुए छोटे-छोटे मोती भी इसमें जुड़ने को लालायित हों। अविनाश ने जैसे मेरे विचारों को पढ़ लिया हो। बोला,,, बेकार की मत सोच...ऐसी किताब की कल्पना न कर जो एक के साथ चार फ्री मिलें। जो विवादित न हो, वो किताब ही क्या ? चल जुट जा किताब लिखने में...
..........................................................

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

स्‍वतंत्रता दिवस की बधाई

मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो जी सीमा से शमशान तक
सोये हैं कुछ शेर यहां पर उनको नहीं जगाना
टूट न जाए नींद किसी की धीरे धीरे आना
आंसू दो टपका देना और मन से फूल चढ़ाना

हम शहीदों के परिवारिक जनों के सुखी जीवन की आज फिर कामना करते हैं

बुधवार, 29 जुलाई 2009

पहले पहचानिए फिर हम बतलायेंगे




सभी ब्‍लॉगर्स नहीं हैं
प्रतिशत ज्‍यादा भी
हो सकता है और
कम भी।

बतलाइये आप
वैसे इनसे फोन पर
हुई थी मेरी बात
शायद आपकी भी
हुई हो या हुई हो
लिखचीत।

तो याद आया कुछ
कौन कौन हैं
या हम ही बतलायें ?

वैसे ये चित्र भारत की
राजधानी दिल्‍ली के हैं
और ज्‍यादा पुराने नहीं हैं।

इनमें पचास प्रतिशत को
आप जानते होंगे पर
बाकी पचास प्रतिशत को ?

एक हल्‍द्वानी से हैं
और दूसरे दिल्‍ली के
उनकी व्‍यंग्‍य क्षणिकाएं
खूब पसंद की जाती हैं
वे चेली से पहचानी जाती हैं।

रविवार, 26 जुलाई 2009

कारगिल के शहीदों को प्रणाम ' आंसु जो कविता बन गये '

मेरे ब्‍लॉग ' चौखट ' के पाठको के लिए खास

मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो तुम सीमा से शमशान तक
सोये हैं कुछ शेर यहां पर धीरे धीरे आना
आंसू दो टपका देता पर ताली नहीं बजाना

शहीद की शवयात्रा देख कर मुझमें भाव जगे

चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

बारंबार पिटा सीमा पर भूल गया औकात को
चोरी चोरी लगा नोचने भारत के जज्‍बात को
धूल धूसरित कर डाला इस चोरों जैसी चाल को
मार पीट कर दूर भगाया उग्र हुए श्रंगाल को
इन गीदड़ों को रौंद कर जिस जगह पे तू मरा
मैं चूम लूं दुलार से पूजनीय वो धरा
दीप यादों के जलाऊं काम सारे छोड़कर
चाहता हूं भावनाएं तेरे लिए वार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

सद्भावाना की ओट में शत्रु ने छद्म किया
तूने अपने प्राण दे ध्‍वस्‍त वो कदम किया
नाम के शरीफ थे जब फोज थी बदमाश उनकी
इसलिए तो सड़ गयी कारगिल में लाश उनकी
सूरत भी न देखी उनकी उनके ही परिवार ने
कफन दिया न दफन किया पाक की सरकार ने
लौट आया शान से तू तिरंगा ओढ़कर
चाहता हूं प्‍यार से तेरी राह को बुहार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की मां को प्रणाम

कर गयी पैदा तुझे उस कोख का एहसान है
सैनिकों के रक्‍त से आबाद हिन्‍दुस्‍तान है
तिलक किया मस्‍तक चूमा बोली ये ले कफन तुम्‍हारा
मैं मां हूं पर बाद में, पहले बेटा वतन तुम्‍हारा
धन्‍य है मैया तुम्‍हारी भेंट में बलिदान में
झुक गया है देश उसके दूध के सम्‍मान में
दे दिया है लाल जिसने पुत्र मोह छोड़कर
चाहता हूं आंसुओं से पांव वो पखार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की पत्‍नी को सम्‍मान

पाक की नापाक जिद में जंग खूनी हो गयी
न जाने कितनी नारियों की मांग सूनी हो गयी
हो गयी खामोश उसकी लापता मुस्‍कान है
जानती है उम्र भर जीवन तेरी सुनसान है
गर्व से फिर भी कहा है देख कर ताबूत तेरा
देश की रक्षा करेगा देखना अब पूत मेरा
कर लिए हैं हाथ सूने चूडि़यों को तोड़कर
वंदना के योग्‍य देवी को सदा सत्‍कार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद के पिता को प्रणाम

लाडले का शव उठा बूढ़ा चला शमशान को
चार क्‍या सौ सौ लगेंगे चांद उसकी शान को
कांपते हाथों ने हिम्‍मत से सजाई जब चिता
चक्षुओं से अक्ष बोले धन्‍य हैं ऐसे पिता
देश पर बेटा निछावर शव समर्पित आग को
हम नमन करते हैं उनके, देश से अनुराग को
स्‍वर्ग में पहले गया बेटा पिता को छोड़कर
इस पिता के चरण छू आशीष लूं और प्‍यार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद के बालकों को प्‍यार दुलार

कौन दिलासा देगा नन्‍हीं बेटी नन्‍हें बेटे को
भोले बालक देख रहे हैं मौन चिता पर लेटे को
क्‍या देखें और क्‍या न देखें बालक खोये खोये से
उठते नहीं जगाने से ये पापा सोये सोये से
हैं अनभिज्ञ विकट संकट से आपसे में बतियाते हैं
अपने मन के भावों को प्रकट नहीं कर पाते हैं
उड़कर जाऊं दुश्‍मन के घर उसकी बांह मरोड़कर
बिना नमक के कच्‍चा खाकर लंबी एक डकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की बहन को स्‍नेह

सावन के अंतिम दिवस ये वेदना सहनी पड़ेगी
जो कसक है आज की हर साल ही सहनी पडे़गी
ढूंढ़ती तेरी कलाई को धधकती आग में
न रहा अब प्‍यार भैया का बहन के भाग में
किस तरह बांधे ये राखी तेरी सुलगती राख में
न बचा आंसू कोई उस लाडली की आंख में
ज्‍यों निकल जाए कोई नाराज हो घर छोड़कर
चाहता हूं भाई बन मैं उसे पुचकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

पाक को चेतावनी

विध्‍वंश के बातें न कर बेवजह पिट जायेगा
तू मिटेगा साथ तेरा वंश भी मिट जायेगा
कुछ सीख ले इंसानियत तेरा विश्‍व में सम्‍मान हो
हम नहीं चाहते तुम्‍हारा नाम कब्रिस्‍तान हो
चेतावनी है हमारी छोड़ आदत आसुरी
न रहेगा बांस फिर और न बजेगी बांसुरी
उड़ चली अग्‍नि अगर आवास आपना छोड़कर
चाहता हूं पाक को मैं जरा ललकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
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मंगलवार, 30 जून 2009

व्‍यंग्‍य लेख हरिभूमि में प्रकाशित

राजस्‍थान के हिण्‍डोनसिटी की खबर पर एक व्‍यंग्‍य लेख
खून... निकाला ही तो है, किया तो नहीं

खबर पढ़ कर पत्नी चिल्लाई, देखना...मरे नासपीटों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा....उनका खून निकाल लिया। मैंने कहा, निकाला ही तो है, किया तो नहीं ? कर ही देते तो हम क्या कर लेते, सिर्फ पढ़ लेते और अखबार मोड़ कर रख देते, जैसा रोज करते हैं। पत्नी, मेरी बेरूखी देखकर आपे से बाहर हो गयी। बोली.. आप तो पत्थर हो...पत्थर। इतनी बड़ी खबर है और कोई असर नहीं। मैंने समझाया...ये सब लालच के वशीभूत हुआ है। बच्चों को कचौरी पसंद थी उसके बाद जूस पीने का भी लालच। डॉक्टर और उसके कुछ साथियों ने मिल कर जूस पिलाया और जूस निकाल लिया। जूस के बदले जूस। जूस फलों का हो या बालकों का, जूस तो जूस है। हमारे देश में उनका भी बाल बांका नहीं होता जो जूस पीने के बाद, गुठली तक नहीं छोड़ते। निठारी काण्ड भूल गयी क्या ? तुम भी कौन सा आम की गुठली छोड़ देती हो.. उसे भी भून कर खा लेती हो कि चलो पेट साफ हो जाएगा।पत्नी, ज्वालामुखी हो चली थी, बोली...आप, आम और बच्चों में फर्क नहीं समझते? मैंने कहा... समझता हूं और अच्छी तरह समझता हूं। अगर ये बच्चे आम न होते तो इनका जूस क्यों निकलता। आम थे तभी तो निकला। जो खास होते हैं उनको घर में ही कचौरी और जूस, बिना भूख ही मिल जाता। ये भूख ही है... जो अपराध को जन्म देती है। बच्चों को भूख थी कचौरी की, डाक्टर और उसके साथियों को भूख थी पैसा बनाने की। बनाने और कमाने में भी फर्क है। कमाने यानि कि कम आने में तसल्ली नहीं होती न। दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूख शांत कर रहे थे। पैसा बनाने में काम अमानवीय है या नहीं, ये सब देखने सोचने की किसे फुरसत है?व्यापार में तो ऐसा ही होता है। सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो। इस खून से भी किसी की जान ही बचेगी, क्यों घबराती हो। सवालिया अंदाज में बोली...क्या खाक जान बचेगी, इन्होंने जो खून निकाला है वह सुल्फा, गांजा और अफीम खिलाकर निकाला है। हो सकता है स्मैक या हीरोइन न पिला दी हो। अब जिसको भी खून चढ़ाया जायेगा वही नशे के वशीभूत हो जायेगा। ये तो उसकी भी धीमी मौत का इंतजाम हुआ न। मैंने कहा... मौत भी धीरे-धीरे ही आनी चाहिए। कौन है यहां, जो मरने की जल्दी में हो? सभी तो देर से और, और देर से मरना पसंद करते हैं। सब यही सोचते हैं आज नहीं कल और कल नहीं परसों। ये कल और परसों, बरसों में बदल जाए तो क्या कहने। पत्नी आंखें तरेर कर अंग्रेजी बोलने लगी। ‘‘इन टू व्हाटऐवर हाउसिस, आई एंटर, आई विल गो इनटू दैम फॉर द बैनिफिट ऑफ द सिक, एण्ड विल एब्सटेन फ्रॉम एवरी वालैन्टरी एक्ट ऑफ मिस्चीफ एण्ड करप्शन... समझे कुछ ?ये एक लाइन है उस शपथ की, जो डॉक्टर, डॉक्टर बनने के बाद और रोगियों की सेवा करने से पहले लेता है तथा डिग्री प्राप्त करता है। क्या हुआ, इस शपथ का ? मुझे फिर समझाना पड़ा... अरी बावरी, अगर ये डिग्री नकली है तो शपथ की जरूरत ही कहां है ? है भी तो शपथ असली होगी, इस बात की क्या गारंटी है? मेरी सुन, ये शपथ वगैरह सब जनता को विश्‍वास के दायरे में रखने का एक साधन मात्र है। ये पति-पत्नी का गठबंधन नहीं है जो सात फेरे के बदले सात-सात जनम निभाना ही पड़े। ऐसा भी सुना गया है कि एक सरकारी डॉक्टर के प्राइवेट क्लीनिक का फीता स्वयं स्वास्थ्य मंत्री ही काट देता है और वहां मुफ्त इलाज का जुगाड़ बिठा लेता है, समझीं...। ये शपथ, नियम और कानून सब दैनिक जीवन के ‘मेकप’ हैं। जब चाहा, वक्तव्यों के चार छींटे मारे और मेकप धो दिया।

रविवार, 31 मई 2009

व्‍यंग्‍य लेख -------------- हरिभूमि में प्रकाशित

है कोई माई का लाल
अब इसे चुटकुला कहें या रोचक घटना। सुना है अमेरिका में एक चोर पकड़ने वाली मशीन बनाई गयी। उसने अमेरिका में एक घंटे में 70 चोर पकड़े। आस्ट्रेलिया वालों ने उसे चैक किया तो हैरान रह गये क्योंकि उनके यहां उसने एक घंटे में ही 90 चोर पकड़ डाले। चीन ने भी उसे आजमाया और पाया कि मशीन हर घंटे सौ-सौ चोर पकड़ रही है। विदेशियों की ये तरक्की देख कर भारत में भी मशीन मंगवाने की योजना बनाई गयी। योजना बनी और मशीन आ भी गयी। पर ये क्या.....आते ही मशीन गायब। काफी खोजबीन के बाद पता चला कि मशीन चोरी हो गयी। अब मशीन को चोर नहीं छोड़ना चाहता और मशीन, चोर को। दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं और जकड़े हुए हैं। न मशीन मिल रही, न चोर। विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। इससे भी ज्यादा विचित्र ये है कि कोई भी इस मशीन को ढूंढ़ना नहीं चाहता है। मैं भी नहीं। बता रहा हूं.... बचपन में एक दिन मैंने पड़ोसी के दूध की मलाई चुरा कर खाई थी। मेरी उस गरम दूध से उंगलियां भी जल गयीं थीं। पिटाई हुई मेरे ही एक साथी की। समझ गये? मैं उस भेद को क्यों खुलने दूं? साथी की नाराजगी क्यों मोल लूं । दूसरा नंबर है मेरी बीवी का। वह भी इस मशीन को तलाशना नहीं चाहती क्योंकि उसने भी तीस साल पहले मेरा दिल चुराया था। सिर्फ दिल ही नहीं उसने तो मुझे पूरे को ही चुरा लिया था। उसे भी डर है कि कहीं मशीन उस मशीन-चोर को छोड़कर उसे ही न पकड़ ले। तीसरा नंबर है देश की पुलिस का, जो समाज में कानून व्यवस्था कायम करती है। लेकिन हमारी भारतीय पुलिस समझदार है, क्यों फटे में पांव डाले। आप सब जानते हैं। क्यों मुझसे सच्चाई से पर्दा हटवाना चाहते हो। मैं आप ही से पूछता हूं ..... है कोई, जो अचोर हो? देश का सौभाग्य है कि देश के लीडरान, प्रदेशों के मुखिया भी इस केस में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। वरना कौन बचता लीडरी को? देश लीडर विहीन हो जाता। कौन शर्मसार करता गिरगिट को? रंग बदलने में लीडरों ने ही तो गिरगिट का एकाधिकार तोड़ा है।
मशीन न रिश्‍वत लेती न शिफारिश मानती और देश की जेलें वैसे ही फुल हैं। सब मन ही मन वैज्ञानिको को कोस रहे हैं कि, कुछ ज्यादा ही खतरनाक मशीन बना डाली है। इतने खतरनाक तो परमाणु हथियार भी नहीं हैं। कायदे से तो वैज्ञानिकों को ऐसी मशीन ईजाद करनी चाहिए जिससे शरीफ आदमियों को पकड़ा जा सके। न जाने कब, कोई शरीफ आदमी खतरा पैदा कर दे और मशीन को ढूंढ़ने का बीड़ा उठा ले। मैंने अपने अड़ोस-पड़ोस में ढिंढोरा पिटवा दिया है कि, आये कोई माई का लाल सामने, जो इस बेशकीमती मशीन को तलाशने की चुनौती स्वीकार करे, और उस मशीन-चोर की जान बचाने का शुभकार्य संपन्न करे तथा मशीन द्वारा स्वयं के पकड़े जाने से न डरे। मैंने ऐसा कर तो दिया है लेकिन अब सभी मोहल्ले वाले कन्नी काटने लगे हैं। मुझे देखते ही सब लोग कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्होंने मुनादी सुनी ही न हो। पाठकों, है कोई मुनादी सुनने वाला?
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बुधवार, 27 मई 2009

गर्मी का असर

निर्जल नदिया हो गयी सूख गये सब कूप
मारी मारी फिर रही विचलित प्‍यासी धूप

गर्मी के हथियार से सूरज करता चोट
सिकुड़ सिकुड़ छाया छुपै ले तरूवर की ओट

सास बहू पर कर रही जो निर्मम अन्‍याय
धूप धरा पर मारती कस कस कोड़े हाय

पत्‍ता पत्‍ता तप रहा चढ़ता ताप असीम
शीतल कैसे हों भला क्‍या चंदन क्‍या नीम

शनिवार, 16 मई 2009

नर में वो बात कहां..... जो वानर में है।

एक दिन नई दिल्‍ली स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म दो पर पलवल शटल में बैठा मैं गाड़ी चलने का इंतजार कर रहा था। प्‍लेटफार्म एक पर भी एक गाड़ी चलने के लिए तैयार खड़ी थी। तभी अचानक एक जोरदार धमाके के साथ एक बंदर दोनों गाडि़यों के बीच वाली लाइन पर आकर गिरा। ध्‍यान से देखा तो पता चला कि ये बंदर महाशय पच्‍चीस हजार वोल्‍ट के सप्‍लाई वाले खंबे पर चढ़ गये और झुलस कर आ गिरे हैं।
देखते ही देखते बंदरों का हुजूम इकठ्ठा हो गया। छोटे बंदर कांप भी रहे थे। तभी अचानक प्‍लेटफार्म एक वाली गाड़ी चली गयी। उसके बाद का नजारा तो देखने लायक था। जो बंदर उस घायल बंदर को नहीं देख पा रहे थे और बेहद गुस्‍से में थे। सच में उन दर्शक बंदरों का गुस्‍सा देखते ही बनता था। प्‍लेटफार्म एक के शेड के ऊपर बैठे बंदर वहां लगे एनाउंसमैंट स्‍पीकर की आवाज भी नहीं सहन कर पा रहे थे, उनका साथी जो घायल पड़ा था। नतीजा ये हुआ एक बुजुर्ग सा बंदर आया और उसने स्‍पीकर की तार का खींचना शुरू किया और तब तक खींचता रहा जब तक स्‍पीकर की तार टूट नहीं गयी। स्‍पीकर शांत हुआ तो बंदर का थोड़ा गुस्‍सा शांत हुआ। इसी बीच रेलवे लाइन पर पड़े उस घायल बंदर तो बंदरों के हुजूम ने घेर लिया था और किसी भी आदमी को पास नहीं फटकने दे रहे थे। तभी अचानक मेरी गाड़ी भी चल पड़ी और मैं आगे क्‍या हुआ होगा, नहीं देख पाया।
जाते जाते एक विचार बार बार मन में घुमड़ रहा था ... काश इंसान इस बड़े शहर में इन बंदरों से कुछ सीख ले। मुझे एक शेर याद आता है शायद ये महान शायर बशीर बद्र का है, हो सकता है गलत भी हो, भूल सुधार कर लेना।

लगता है शहर में नये आये हो
रूक गये जो हादसा देखकर

मेरा तो यही विचार है कि शहरी संस्‍कृति में अपनत्‍व कहीं खो गया है।
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शनिवार, 9 मई 2009

बीत गया वो जमाना

डाकिया आता था

एक थैला लाता था

मोहल्‍ला जुटता था

जिज्ञासा और आशा

के बीच हरेक आनंदित होता था

डाकिया पता पूछता तो हर कोई

घर तक छोड़ आने को तैयार होता था

अपने आप को धन्‍य समझता था

आज

पहली बात तो डाकिया नहीं आता

कोरियर आता है

वह पता पूछता है

तो कोई नहीं बताता

पड़ोस में कौन रहता है

कोई नहीं जानता

खुश होना तो दूर की बात है

सच में ये खुशियां दूर चली गयीं हैं

अब न डाकिया है, न उसका इंतजार है

शहरीकरण जो हो गया है


कोरियर वाला आता है
उसे डाकिया का दर्जा कतई नहीं दिया जा सकता


मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

एक और व्‍यंग्‍य लेख हरिभूमि में प्रकाशित

भर दे परचा

आज मेरा मित्र अविनाश, फिर एक मुस्कुराहट के साथ प्रकट हुआ और बोला, यार.. मैं चाहता हूं कि तू चुनाव लड़ ले। प्रधानमंत्री की कुर्सी का सवाल है। मैंने कहा मैं तुझसे लड़ सकता हूं पर चुनाव नहीं। अखबार का कवर पेज दिखाते हुए बोला, देख...आठ उम्मीदवारों की फोटो के साथ छपा है, उनकी संपत्ति का ब्यौरा। पता है... तेरह सौ निन्यानवे करोड़। अरे कुछ समझ ले... तेरे घर बारिश होगी तो फुहार मेरे तक भी तो आएगी। हम भी बहती गंगा में नहा धो लेंगे। भागीरथ ने तो पुरखों को तारा था, हम अपनी पुश्‍तों को तार देंगे। मैं तो कहता हूं मान जा और भर दे परचा। मैंने कहा प्यारे, इतनी ऊंची उड़ान मत भर, कहीं सूरज की गर्मी पंख न जला दे। एक बार को चल मैं तेरी मान भी लूं तो परचे में क्या भरूंगा? लाखों करोड़ों के गहने मेरे पास नहीं, नकद पैसा मेरे पास नहीं, बैंक लॉकर नहीं, मेरे ऊपर कोई हत्या का केस नहीं, गबन का केस नहीं, सच्चे तो छोड़, झूठा इल्जाम भी नहीं। कोठी बंगले मेरे पास नहीं। तू बता पर्चे की बेइज्जती कराएगा? पर्चा ही मेरी खिल्ली उड़ाएगा। मेरी मान तू अखबार पढ़ना और चैनल देखना कुछ दिन के लिए बंद कर दे। दिल ठिकाने आ जाएगा। ये जो चुनाव हो रहे हैं ये शगल मेला है। दूर बैठकर मजा ले। नेताओं के दोगले चरित्र देख। एक दूसरे को उनकी चुनावी नाव में सुराख कर डुबाना चाहते हैं। खुद भी भ्रष्‍टाचार में आकंठ डूबे हैं। तू इन हाथियों की लीद तोलकर उनकी खुराक का अंदाजा मत लगा, वरना बेमतलब बोझ मरेगा। इनकी पूंछ भी कट चुकी है और सूंड़ भी। बिना सूंड़ के हाथी से शर्म और हया कोसों दूर रहती हैं। महावत इनका कोई है नहीं। देखता नहीं जूता प्रचलन में क्यों आया है। जब देखो चल जाता है। कभी सोचा? जो पहले नहीं चलता था अब क्यों चलने लगा। चलने लगा और उछलने भी लगा। अमेरिका वाले भी ईर्ष्‍या करेंगे और कहेंगे कि भारत को हमारी नकल नहीं करनी चाहिए। इसका पेटेंट तो हमें ही मिला है। अभी तो मंदी की मार झेल रहा है। होश आयेगा तो जरूर बोलेगा। अभी कुछ दिन पहले ओले पड़े थे। सबने पसीने सुखाए होंगे और वाह वाह करी होगी। इन ओलों की गर्मी से किसान को कितने पसीने आ रहे हैं, ये जानने की किसे फुरसत है? जिनके घर पैसों की फसल उगती हो उन्हें रबी की फसल से क्या लेना। मेरे दोस्त, जिस दिन ये लोग समझ जाएंगे कि कफन में जेब नहीं होती.. सारा धन दौलत इनको मिट्टी नजर आयेगा। तब देश ही नहीं संसार सुधर जाएगा।................................................................
पी के शर्मा1/12 रेलवे कालोनी सेवानगर नई दिल्‍ली 110003

रविवार, 5 अप्रैल 2009

एक और व्‍यंग्‍य लेख ' हरिभूमि ' में प्रकाशित हो चुका है।

बड़ी सोच और बड़ी नोच


आज मेरा मित्र अविनाश, उछलता हुआ आता दिखाई दिया। मैं समझ गया, उछलने की उम्र तो है नहीं, पर आज फिर कोई गलत फहमी हो गयी होगी। आते ही बोला, पता है... हमारे देश का जो काला धन विदेशा बैंको में जमा है वह भारत आने वाला है। देश की गरीबी दूर हो जाएगी। मैंने कहा, ख्वाब देखना बुरा नहीं है पर बुरे ख्वाब देखना तो अच्छा नहीं है। क्यों इतने बुरे-बुरे ख्वाब देखता है। उन लोगों के दिल से पूछो जिन्होंने इस देश की खाल नोच-नोच कर ये ब्लैक मनी बनाई और भिजवाई है। देश को नोचना सबके बस की बात नहीं। कोई बड़ा मकसद रहा होगा। बड़े आदमियों की बड़ी सोच और बड़ी नोच।
अच्छा एक बात बता, पाकिस्तान के नवाज शरीफ सउदी अरब में रहे, बेनजीर इंग्लैंड में रहीं, हमारे देश के बड़े भी अगर बड़ी मुसीबत में फंस जाएं तो कहां जाएंगे और क्या खाएंगे। हमारे देशवासी विदेश में भीख मांगे... अच्छा लगता है क्या। देश की इज्जत का भी तो खयाल रखना है। देश का धन, सो अपना धन। भाई रे... ये अपनत्व की भावना है। ज्यादा खुश मत हो, खुश होना आम आदमी के हिस्से आया ही नहीं है। तू आम ही है जो चूसने का नहीं, चुसने का अधिकार रखता है।
इकाई, दहाई और सैंकड़ा से निकल कर अभी हजार यानि चैथे आंकड़े तक ही पहुंच पाया है तू। पूरे साल की पगार जोड़ेगा तो छटवें तक मुश्‍िकल से पहुंच पायेगा। इन बड़ी-बड़ी रकमों की तरफ देखेगा तो सर को इतना उठाना पड़ेगा कि अपनी ही टोपी गिरा लेगा। गणित फिर से पढ़ना पड़ेगा। गिनती दुबारा सीखनी होगी। सन् 2007 में करीब चैदह पद्म पच्चिस नील रुपये स्विस बैंक में जमा थे। अब सन् 2009 में एक संख तो हो ही गये होंगे। बोल....खबर गई सर के ऊपर से, या समझ गया कुछ ? ये संख मंदिर में बजने वाले और नील कपड़ों वाला नहीं है। अब गिनती दुबारा मत सीख लेना वरना तकलीफ होगी। वैसे मुझे विश्‍वास है कि तू इतना बड़ा तो नहीं हुआ है कि भारतीयता को इतनी जल्दी भूल जाए।
मेरी माने तो, इस बात से भी खुश मत हो कि उन लोगों की लिस्ट आउट हो जाएगी जो स्विस बैंकिये हैं। उन लोगों पर थूकने का भारतीय जनता को कोई अधिकार नहीं मिला है। वैसे न नो मन की तीयल होगी और न राधा नाचेगी। तूने अगर ऐसा करने की ठान भी रखी है तो आइडिया पोस्पोण्ड कर दे, कहीं ऐसा न हो कि कोई स्विस खाताधारी तेरी पान सुपारी दे बैठे। मेरी माने तो इस बात पर गर्व कर कि स्विस बैंकियो में भारतीय टॉप पर हैं। टॉप पर रहना भी शान की बात है, है न ?



पी के शर्मा
1/12 रेलवे कालोनी सेवानगर नई दिल्ली 110003
011, 24622733 मो, 9990005904
pawanchandan@gmail.com

गुरुवार, 26 मार्च 2009

एक व्‍यंग्‍य हरिभूमि में प्रकाशित

बड़े बड़ों का हाजमा



मेरा एक मित्र हैरान परेशान सा अखबार लहराते हुए कमरे में दाखिल हुआ और मेज पर पटकते हुए बोला....... लो..... कर लो, गल। रिश्‍वत और वो भी दो करोड़ की। हद हो गयी मुंह फाड़ने की। ऐसा भी नहीं कि गलती से ज्यादा फट गया हो। एक तुम और हम हैं, जो इमानदारी से चूल्हे में फूंक मार-मार कर परेशान हैं और चूल्हा है कि सुलगता ही नहीं। लोगों को इतना ईं..धन मिल जाता है कि भाड़ भभक रहे हैं। लगता है हम तुम पीछे हैं और जमाना ज्यादा ही आगे निकल गया, नहीं भागे जा रहा है।

मैंने उसके उबाल को कॉफी पिलाकर शांत किया और समझाया......
मेरे यार, ये हाई स्टेटस का मसला है। उपायुक्त हैं, वो भी राजधानी के नगर निगम के। पद की गरिमा नहीं रखनी क्या.....। पद को देखते हुए रकम ज्यादा नहीं है। अब तुम चाहो उपायुक्त दो कोड़ी का होकर रह जाए...। पुराने जमाने में कोड़ी 20 को कहते थे। उपायुक्त 20 रू के लिए हाथ फैलाएगा...। ऐसा कैसे हो सकता है?

मेरे प्रश्‍नीय वक्तव्य सुनकर उसे फिर से उबाल आने लगा था। उसके इस नये उबाल में मुझे हर्षद मेहता का नाम तैरता नजर आ रहा था। वही पुराना किस्सा याद कर पूछने लगा....हैसियत की ही बात थी तो उस शेयर दलाल पर एक करोड़ देने का आरोप क्यों उछला था, एक अरब का क्यों नहीं? उपायुक्त की हैसियत तो उस मामले के मुकाबले, पासंग भी नहीं है।

मैंने अपने दिमाग की फिर घुण्डी घुमाई और मित्र को एक बात और समझाई....जमाना बदल रहा है, आदमी की तरह पैसे की कीमत भी गिर रही है। लगता है.... देखते सुनते नहीं हो..... आदमी और शेयर मार्किट का सेंसैक्स कब गिर जाए... कुछ पता है? मंदी का दौर है। दूसरों के लाखों करोड़ों देखकर तू क्यों थर्मामीटर से बाहर जा रहा है? मैं तो कहता हूं, आइसक्रीम की तरह ठंडा रहना और जमना सीख ले। नहीं मानता तो...तेरे लिए कटोरा मंगवा देता हूं..... ले जा... और भीख... ले।

अरे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदले तो चलता है, पर तरबूज को देखकर खरबूजा कैसे गुजारा करेगा? तू अपनी औकात देख... अगले की है...तो है। बड़े लोगों का हाजमा है...। मेरे भाई.... पराये तंदूर की भभक देखकर तू तो मत सुलग। जा.... और अपने काम से काम रख। आज ड्यूटी नहीं जाना क्या?

और अविनाश वाचस्‍पति को मुंह लटकाये जाते हुए देखना मुझे दर्दनाक लग रहा था।

मंगलवार, 24 मार्च 2009

कटते हुए पेड़

मेरे घर के सामने विकास हो रहा है
इस विकास के नाम पर विनाश हो रहा है
नेहरू स्‍टेडियम और हमारे घर के बीच
एक सीमा थी
सीमा थी एक नाले की
इसकी काया पलट हो रही है
तमाम नीलगिरि के पेड़ धराशाई कर दिये गये
हो जाएं पेड़ धराशाई
न मिले पेड़ों की परछाई
लेकिन किसी ने नहीं विचारा
घोंसले टूटने पर कहां जाएगा
परिंदा बेचारा
लेकिन परिंदा बेचारा नहीं है
नकारा नहीं है
नया नीड़ बना लेगा
नई राह पा लेगा
कहीं और जाकर खा लेगा
पर अफसोस
मैं नहीं सुन सकूंगा
सुबह का कलरव
सुबह का कलरव
सुबह का कलरव

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

'' व्‍यंग्‍य लेख '' गुड़ की भेली '' हरिभूमि में प्रकाशित हो चुका है

पुराने जमाने की बात है, सांझ होते ही मोहल्ले का एक बच्चा आवाज लगाता था-
आओ बालको खेल्लैंगे
गुड़की भेल्ली फोड़ैंगे
बांट-बांट कै खावैंगे

ये टेर सुनते ही गली में सभी बच्चे पहुंच जाते थे, छुअम् छुआई खेलने के लिए। इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। नेहरू जी ने कहा था कि ‘आज के बच्चे कल के नेता ‘ मैं इस कहावत को पलट रहा हूं-- आज के नेता कल थे बच्चे, जी हां, ये आज भी बचपन दोहरा रहे हैं। हां थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया है-
आओ आओ खेलेंगे
गुड़ की भेली फोड़ेंगे
बांट-बांट के खाएंगे

उन बच्चों के पास भेली नहीं होती थी। होती थी भोले बचपन की एक मिठास। और इन पुरातन बालकों के पास भी भेली नहीं है पर एक भेली जैसी कोई चीज, है जरूर। ये सारे सचमुच में ही उस भेली को फोड़-फोड़कर खा रहे हैं। इनमें से कुछ लखा रहे हैं। इस भेली का मालिक भी न जाने कहां है, होता तो कुछ रोक टोक हो जाती।

जो खा रहे हैं और जो लखा रहे हैं ये सभी भविष्‍य में झांक रहे हैं और आने वाली नई भेली को ताक रहे हैं। एक दूसरे से जोर आजमाइश और ताकत की नापतौल चल रही है। अभी से तय होने लगा है कि कौन कितनी फोड़कर खायेगा और कितनी जेब में डालेगा। रिहर्सल होने लगी है। विचार है कि अब तक जो भेली खा रहे थे उनको हाथ नहीं लगने देनी है। जो आज से पहले खा रहे थे, उनकी छीछालेदर तो करनी ही है। किसने कितनी खाई है, किसने कितनी लुटाई है, इसका भेद लगाना है। देश के लिए कुछ काम को करना है न । सी. बी. आई. को क्या ठाली बैठाकर तनख्वाह देनी है। उन्हें भी हिल्ले लगाना है।


रही जनता की बात, तो उसे यह भेली चाटने को भी न मिल सकेगी। हां बिना खाये चटखारे जरूर ले सकती है। इस बीमारी को चटखारे लेने से शुगर की बीमारी भी नहीं हो पायेगी, ये इसके स्वास्थ्य के हित में रहेगा। ये चटखारे उसे पांच साल तक हिल्ले लगाये रखेंगे। जनता तो, कभी न होने वाली संभावित सजा होने की घोषणा के इंतजार में मजे लेती रहेगी। मुफ्त में मजे मिलेंगे, ये क्या कम है। साथ ही अखबारों को भी खबरों का खजाना मिलेगा वरना अखबार वाला क्या लिखेगा। कोरे कागज को अखबार नहीं कहते न।

ये समय है, सौदेबाजी का। कौन बाजीगर बाजी मार ले जाए कुछ पता नहीं। हो सकता है चुनावी नतीजे किसी बिलौटे के भाग्य से छींका तोड़ दें। अभी तो सभी कपड़ों को झक्क सफेद करने में जुटे हैं। उन जूतियों और जूतों में चमक लाई जा रही है जिनमें बाद में दाल बंटनी है। ये दाल बंटे या भेली फूटे
जनता के भाग्य में न दाल रहेगी न गुड़ की डली।


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रविवार, 15 मार्च 2009

नई दुनिया की खोज ' हरिभूमि में प्रकाशित '

झांको, खूब झांको। आदत से बाज नहीं आया करते। खुद कैसे हो इस बात पर गौर न करो। पड़ौसी कैसा है, इस बात पर ज्यादा ध्यान दो। पड़ौसी के पड़ौस में क्या चल रहा है, ये भी आपको पता होना चाहिए। अमेरिका को देखो न पड़ौसी के पड़ौसी के पड़ौसी को भी देख लेता है। ये जो दो-दो दीदे दिये हैं भगवान ने, ये दूसरों को देखने के लिए ही दिये हैं, खुद को देखने के लिए नहीं। खुद को देखने के लिए तो दर्पण भी बाद में आविष्‍कृत हुआ और हुआ भी तो झूठ बोलता है। लोग कहते हैं, दर्पण झूठ न बोले। पर बोलता है, बांये अंग को दांया बताता है। ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर बताने लगे, क्या भरोसा।
बात ताक-झांक की हो रही थी। दुनिया के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में दूरबीन लगाकर झांक रहे हैं। देखना चाहते हैं कि कहीं और भी जीवन और सभ्यता है पृथ्वी के अलावा। नये जीवन और नयी सभ्यता की खोज हो रही है, जैसे यहां की सभ्यता कम पड़ गयी हो। सबका अपना अपना आसमान है, झांकने में क्या जाता है। मैं इन वैज्ञानिकों के अब तक के असफल प्रयास से कतई प्रभावित नहीं हूं। खांमखां अरबो फूंक रहे हैं। आने वाले समय में भी मुझे ये विषय निरर्थक लगता है। क्या कारण हैं ?
अपनी सभ्यता दिखाने के लिए कि देखो हम इंसानियत का कत्ल कितनी आसानी से कर देते हैं। जीवन के विनाश के सभी इंतजामात कर चुके हैं। परमाणु बम हो या रासायनिक हथियार। हम एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछने के लिए चिठ्ठी नहीं, मिसाइल भेजना चाहते हैं। हम देशवासियों का पेट काट-काट कर उसी की मौत का इंतजाम कर रहे हैं। किसी ने कहा है कि जीना है तो मरना होगा, सो इस सभ्यता का प्रयास है कि पहले भूखा मर, बच गया तो हथियारों से मर। आखिर जीवन का लक्ष्य ही तो मरना है। अंतरिक्ष वाले इस सभ्यता को देखकर गदगद हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं। क्यों ढूंढ़ रहे हैं नयी दुनिया, नई सभ्यता। शायद कुछ नया मिले। संभव है वहां सब कुछ पुराना ही दिखाई दे और कोई दूसरा अमेरिका इराक में जूता खाने की जिद कर रहा हो। अफगानिस्तान में मुल्ला उमर को उमर भर तलाशता फिर रहा हो। पाक में अपनी ही देन लादेन को देखने के लिए तरस रहा हो। हो सकता है उग्रवाद से त्रस्त कोई भारत भी नजर आये, जो अमेरिका की तरफ ताक रहा हो। हां...... क्या हुक्म है मेरे आका। मैं अपने पड़ौसी को देखूं या सुबूत ही दिखाता रहूं। अब तक जितने भी सुबूत दिये या दिखाये हैं, उन सभी से गिलानी जी को गिलानी हो रही है। और जरदारी साहब गरदन हिला हिलाकर कह रहे हों कि अमां मियां..... कसाब के अब्बा को तो, कोई औलाद हुई ही नहीं। और तो और कसाब की तो मां भी नहीं थी, तो उसका देश कहां से होगा। भारत को और ठोस सुबूत पेश करने होंगे। अब ये मसला ठोसियत पर टिका कर भारत को ठोसा दिखा दिया जाए, तो कोई अचंभा नहीं।
उस विशाल अंतरिक्ष में भारत पाक दिखें या नहीं, पर गनीमत है इस दुनिया में पाक ने आखिरकार माना है कि कसाब पाकिस्तानी है, भले ही दबाव में ही सही। बिना दाब के रस नहीं निकलता।
वैज्ञानिक नई दुनिया देखने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें देखने दो। नई दुनिया हमें देख रही है तो उसे भी देखने दो। हम तो अपने पड़ौसी को देख रहे हैं कि कब बिना दाब के सच को स्वीकारना सीखेगा।
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शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बेलगाम पुलिसवाले 'आज के समाचार पत्र हरिभूमि में प्रकाशित'

पुलिस में बढ़ती रिश्‍वतखोरी की आदत से पुलिस आयुक्त परेशान हैं। लगाम लगाने की सोच रहे हैं। पुलिस वाले घोड़े होते तो लग जाती। बैल भी नहीं हैं जो नाथ देते। रिश्‍वत में पुलिस वालों का क्या दोष है। ये तो राष्‍ट्रीय शगल है।
वर्दी धुलवानी है, कलफ लगवाना है और प्रैस भी करानी है। अब जूता तो है नहीं कि किसी गरीब को लात मारकर चमका लिया जाए और पालिश का पैसा बचा लिया जाए। ये बात कमिश्‍नर साहब को कैसे पता चली होगी, ये जो जांच का विषय है। फिर भी अगर पुलिस वाले रिश्‍वत के लिए लपलपा रहे हैं, वो भी कलफ के लिए तो आयुक्त साहब क्यों कलप रहे हैं। इसका भी हमें पता है, चलिये बताते हैं-

अभी कुछ दिन पहले अखबारों में एक खबर आयी थी, शायद वही खबर पता चल गयी होगी। मुझे तो बड़ा खराब सा लगा जब भिखमंगो के पैसे गिनने की हिमाकत की गयी। एक सर्वे हुआ और रिपोर्ट आयी तो आंखें फाड़-फाड़कर देखना पड़ा जीरो गिनने के लिए। पता चला कि शहरों में भीख का धंधा करोड़ों में है। हो सकता है पुलिसिया रिश्‍वतखोरी का धंधा अरबों या खरबों में हो। हो सकता है आयुक्त साहब ने भी पुलिस का सर्वे कराया हो और जीरो गिने लिए हों। हो भी क्यों नहीं। भिखमंगे को तो एक या दो का सिक्का मिलता है। इक्का दुक्का कोई पांच या दस रुपये देता है, तब फीगर करोड़ों में है।

अब सोचो पुलिस है तो इज्जत का कूड़ा थोड़े ही करेगी, पचास या सौ से नीचे हाथ फैलाकर। वो जमाने चले गये जब दस में काम चल जाया करता था। वर्दी पर लगी फीतियों से तय होता है कि गांधी कितना बड़ा होगा। गांधी पीला होगा या लाल होगा। गांधी एक होगा या अनेक। वैसे गांधी चाहे जैसा हो इन्होंने गांधी के नाम को रोशन तो किया। हां, इतना जरूर है कि ये धंधा भीख जितना गंदा नहीं है। रिश्‍वतखोरी में कम से कम शान तो है। बड़े-बड़ों ने
शान से ली है। लेने देने से नाम होता है, काम होता है या नहीं ये कम से कम मुझे तो नहीं पता। हां इतना अवश्‍य पता है कि रिश्‍वतखोरी की जांच में शायद रिश्‍वत से कई गुना पैसा खर्च हो जाता है।

वैसे वित्तमंत्री भी नहीं जानते होंगे, जितना सड़क किनारे खड़ा खोमचे वाला जानता है कि देश की अर्थव्यवस्था कहां से कहां तक व्यवस्थित है। मुद्रा का प्रसार किस प्रकार हो रहा है। इस प्रसार में भी एक सार है। इसको कर में लेने पर आयकर नहीं लगता।

बुधवार, 11 मार्च 2009

बुरा न मानो होली है

फागुन


न जाने क्‍या कब हुआ, बचपन हो गया लुप्‍त

यौवन छलके देह से, फागुन रखियो गुप्‍त

कुछ छींटे महसूस कर भीगा सारी रात

मौसम हुआ शरारती ख़बर बांट दी मुफ्त


भंग का रंग


लगती पीकर भांग को, होली बड़ी विचित्र

फिर तो भाभी सा लगै, हमको अपना मित्र

अगर नहीं हो पास कभी वो होली में

रंग डालो जी प्‍यार से उठा उसी का चित्र


होली में भी दर्द है

शादी अपनी हो गयी, ससुर मिले कंजूस

किसको हम साली कहें, होता है महसूस

नहीं दीखती बाला कोई होली में-

दुनिया खुश है आज हमीं बस लगते हैं मनहूस





रविवार, 8 मार्च 2009

नेक सलाह होली से पहले

यह रचना 'अहा जिंदगी' मार्च 2009 में प्रकाशित हो चुकी है।

भल्‍ले गु‍झिया पापड़ी खूब उड़ाओ माल
खा खाकर हाथी बनो मोटी हो जाए खाल
फिरो मजे में बेफिक्री से होली में
मंहगाई में कौन लगाए चौदह किलो गुलाल

रविवार, 1 मार्च 2009

शुक्र है दिल बच गया

कल रात मैं अपने आफिस मैं बैठा कुछ सोचने लगा। तभी मेज का शीशा अचानक बिना दबाव बिना प्रभाव ताव में आ गया और खण्‍ड खण्‍ड विखण्डित हो गया। मटर के से दाने फैल गये सारे कमरे में। मैं भौंचक्‍का रह गया। काफी खोज की कि कहीं कोई चीज टकराई हो पर कोई सुबूत नहीं मिला और मैंने देखा भी नहीं कोई चीज गिरते हुए। टेलीफोन भी शीशे पर था उसके नीचे भी शीशा टूट चुका था। सामने होते हुए भी कोई भी टुकड़ा मुझे नहीं लगा। मेज और पूरे कमरे में बिखर गया था वह लगता था, बहुत गुस्‍से में था। विस्‍फोट की आवाज भी आयी थी।
ये आवाज पास ही में काम कर रहे दो स्‍टेशन मास्‍टरों को भी आयी। जो उन्‍होंने बाद में स्‍वीकारी भी, लेकिन दोनों में से कोई सा भी ये जहमत नहीं उठा पाया कि देखें क्‍या हुआ है। चलो ये तो आज का समाज है जो अपनी मर्जी के अनुसार चल रहा है। मुझे इस बात की अपेक्षा नहीं थी लेकिन उनको मेरे कमरे में आकर देखना ही चाहिए था। भले ही जिज्ञासावश ही सही।
सवाल ये नहीं है कि आज के पड़ौसी और आसपास के लोगों की प्राथमिकताएं क्‍या हों, सवाल ये है कि वह शीशा बिना वजह टूटा क्‍यों। सिर्फ टूटा ही नहीं टुकड़े टुकड़े हो गया। है कोई जानकार जो बताए कि ऐसा क्‍यों हुआ।
मुझे पता है, दिल टूटा होता तो ढेर सी सलाह व जानकारियां मिलतीं। देखते हैं अब कितनी मिलेंगीं।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ये गुरूत्‍वाकर्षण ही ईश्‍वर है

मुझे लगता है
ये जो गुरुत्वाकर्षण है
यही ईश्‍वर है
अन्य सभी परिभाषाएं
अनुत्‍तरित प्रश्‍नों में घिरी हैं
इन परिभाषाओं को नकारा नहीं जा सका है
इसी आशा में कि हो न हो
उत्‍तर कभी न कभी प्राप्त हो ही जाए
आकर्षण क्यों है
प्रतिकर्षण भी क्यों है
यह भी अनुत्‍तरित है
सभी कुछ तो अनुत्‍त्‍ारित है
आदमी अंतरिक्ष में पांव पसार कर
भी नहीं जान पाया है
ये संसार कहां से आया है
वैज्ञानिक ढूंढृ रहे हैं इसका अर्थ
आखिर कहां से आया है पदार्थ
आप जानते हो तो बताना

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

कपड़े धोता धोबी, गंगा में

मीटिंग ए माइल स्टोन के एक दृश्‍य से उपजी प्रतिक्रियात्मक कविता

गंगा के तट पर
पत्थर के पट पर
रजक धोता है
हमारे कपड़ों का मैल और चीकट
साथ में धोना चाहता है
अपनी विपन्नता का संकट
गंगा के किनारे
जी रहा है इसी आशा के सहारे
पानी में होकर भी
पानी से नहीं,
भीगा है पसीने से
तरबतर
तर जायेगा
भागीरथ के पुरखों की तरह
पतित पावनी गंगा है न
ये भी जीवन की शहनाई है न
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

एक व्‍यंग्‍य *फोटोग्राफर*

*कुछ कवियों ने इस कविता की मौलिकता को चुराने का प्रयास किया है। कई लोगों ने इस कविता को सुना कर इनाम भी जीते हैं।*

स्त्री हो या पुरूष
मैं सबकी तरफ सरेआम

एक आंख मींचता हूं
जी हां फोटोग्राफर हूं
फोटो खींचता हूं
क्या करूं धंधा ही ऐसा है
आंख मारने में ही पैसा है

एक बार एक विचित्र प्राणी मेरे पास आया
उसने अपना एक फोटो खिंचाया
बोला
ये रहे पैसे संभालो
इसके छै प्रिंट निकालो

मैं इस बात से हैरान था
ये आदमी था या शैतान था
क्योंकि जब मैंने उसके पोज बनाए
सभी पोज अलग अलग आए

पहला प्रिंट निकाला
बिलकुल काला

दूसरा निकाला
कम्बख्त पुलिस वाला

तीसरा निकाला ये क्या जादू है
ये तो कमण्डल लिए भगवे वस्त्र वाला साधू है

चैथा मास्टर था हाथ में छड़ी थी
एक निस्सहाय छात्रा उसके पास खड़ी थी
पांचवा कंपनी का अधिकारी
उसके साथ कंपनी की एक कर्मचारी

छठा डाक्टर और उसका आपरेशन थियेटर
साथ में परेशान एक सिस्टर

फोटो खींचते अर्सा हो गया था
पर ऐसा तो कभी नहीं हुआ था
नेगेटिव एक प्रिंट छै
अचम्भा है

अब हमारा दिल उससे मिलने को बेकरार था
उसका तगड़ा इंतजार था
खैर वो आया
हमने कहा आइये
बोला मेरे फोटो लाइये

हम बोले यार तुम आदमी हो या घनचक्कर
क्या माजरा है क्या चक्कर
हमने तुम्हारे छै प्रिंट निकाले
एक काला बाकी सब निराले

हमारी तो कुछ भी समझ में नहीं आता
कोई भी फोटो किसी से मेल नहीं खाता
दिमाग चकरा गया है हमारा
बताओ कौन सा प्रिंट है तुम्हारा

वो बोला
मेरा असली फोटो है पहले वाला
जो आया है बिलकुल काला
यही असली है
बाकी तो नकली हैं
शेष पांच में तो मेरी छाया है
इन लोगों पर मेरा ही तो साया है
हम हड़बड़ा कर पूछ बैठे
कुछ परिचय दीजिए श्रीमान
बताइये कुछ अता-पता
कुछ पहचान

बोला नहीं पहचाना
धिक्कार है
आजकल चारों तरफ मेरी ही जय-जयकार है
अखबारों में सम्मान है पत्रिकाओं में सत्कार है
रे मूर्ख फोटोग्राफर
मेरा नाम बलात्कार है

मैं बाहर से भीतर से काला ही काला हूं
काले मन वाला हूं काले दिल वाला हूं

हमने कहा अबे ओ बलात्कार
तू क्यों करता है अत्याचार
तेरे कारण नैतिकता का बेड़ा गर्क हो रहा है
हिन्दुस्तान स्वर्ग था नर्क हो रहा है

बोला
कह लो मुझे तो आपकी इनकी उनकी सबकी सहनी है
पर सच कहता हूं मैंने किसी की वर्दी नहीं पहनी है
मैंने तो सबसे नाता तोड़ा हुआ है
पर इन सब ने मुझे बुर्का समझ कर औढ़ा हुआ है

इतना कह कर वो तो हो गया रफूचक्कर
और मुझे आने लगे चक्कर

अब मुझे उस नेगेटिव से दहशत हो रही है
अगले फोटो में शायद एक और बेटी रो रही हो
एक और बहन अपनी आबरू खो रही हो

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

भागते भूत की लंगोटी ही सही

मेरी समझ काफी समझदार है लेकिन एक बात समझ से बाहर है कि आदमी भागते भूत की लंगोटी ही सही... क्यों कहता है। पहली बात तो ये विवादास्पद है कि भूत होता भी है या नहीं।
वैसे लोकमान्यताओं के अनुसार भूत उन लोगों की भटकती आत्मा होती है जो लोग अपने जीवन की मझधार में यमदूतों के हत्थे चढ़ जाते हैं और यमराज उन्हें स्वीकारता नहीं। न तो उन्हें स्वर्ग में एडमीशन मिल पाता है और न ही नर्क में। इधर परिवार के सदस्यों को इस अजीबो गरीब समस्या पर विचार करने की फुरसत नहीं होती क्योंकि वे लोग उसके शरीर को आग को समर्पित कर बीमा कंपनी के चक्कर लगा रहे होते हैं। कहां मिलती है फुरसत।
विचारणीय विषय है जिनके पास अपना शरीर ही नहीं होता तो वह भागेगा कैसे। मान लो बिना टांगों के भागा होगा जैसा कि हमारे देश में अफवाहें भागती हैं। कुछ समय पहले एक काला बंदर गाजियाबाद में भागा करता था।
इससे पहले भी पूरा भारत ही बौराया था गणेश जी को दुग्धपान कराकर। भला जो मोदक प्रिय हो उसे दूध चाय से क्या लेना। लोगों की नादानी से नाली के कीड़े भी धन्य हो गये दूध में नहा धोकर।
अफवाहों की तरह माना कि भूत भी भाग रहा होगा। लेकिन भूत के पास टांग नहीं तो उसके बास लंगोटी कहां से होगी। होगी भी तो किस काम की। चलो माना कि होगी, तो एक सवाल उठता है - कि आदमी भूत की लंगोटी खींचने से इतना संतुष्‍ट क्यों। मेरी समझ से तो दो ही कारण हो सकते हैं, खुद को ढकना चाहता है या उसको नंगा करना चाहता है तथा दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो देखो ये नंगा हो गया। ये आदमी भी क्या गफलत में रहता है। जिसका तन ही नहीं उसको भी नंगा करने पर उतारू है।
तीसरी बात कहूं- लंगोटी खींचना कोई अचंभे वाली बात नहीं है। अचंभे वाली बात तो ये है कि जब भूत का तन नहीं होता तो भी आदमी न जाने क्या देखना चाहता है। क्या तन वालों को नंगा देखकर मन नहीं भरा है...। वैसे आदमी के लिए किसी की भी कहीं भी और कभी भी लंगोटी खींचना कोई बड़ी बात नहीं है। खींचता जो रहता है एक दूसरे की। फिर भूत क्या चीज है। गनीमत है भूत ही इस घटना का शिकार हुआ है, भूतनी बच गयी है।

वरना आदमी का भी क्या भरोसा। वैसे मैंने काफी मनन किया है इस कहावत के जन्मदाता के विषय में। न जाने क्या सोचकर उसने इस कहावत की रचना कर डाली। वैसे ये शोध का विषय तो है। लंगोटी की जगह पाजामा भी तो खींचा जा सकता था। बनियान खींचा जा सकता था, कमीज खींची जा सकती थी। लंगोटी पर ही क्यों नजरें टिकाईं आदमी ने।
हां, जिस चीज की ज्यादा जरूरत होती है उसी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती है पर लंगोटी न हो तो भी पाजामे से काम चलाया जा सकता था। चाहे जो भी हो बात जम नहीं रही, कहावत भी नहीं। एक कहावत और है इस हमाम में सभी नंगे, आदमी शायद इसी कहावत को सही साबित करने पर आमादा हो।
आप भी सोचो, मैं भी सोच रहा हूं। हो सकता है आदमी ईर्ष्‍या के वशीभूत हो ऐसी हरकत करना चाहता हो। क्योंकि ईर्ष्‍या करना भी आदमी के शगलों में एक खास शगल है।

जिसकी होती नहीं काया वो भी नहीं बच पाया

सोमवार, 26 जनवरी 2009

विडंबना

जब तक सीखा आदमी, जीवन का कुछ सार
फिसल गई सब जिंदगी, खुला मौत का द्वार

रविवार, 18 जनवरी 2009

कचनार की कविता

दिल तुम्हारा था हमारी देह में
और अपना था तुम्हारे नेह में
बात उपमा की चली तो क्या बताएं
हर तरफ चर्चा हुई कचनार की

जब दुखों की धूप ने सोखा बदन
और उसको छू गई तपती पवन
आ गयीं लेकर तुम्हारी भावनाएं
लहलहाती डालियां कचनार की

कब न जाने कौन क्या कुछ कह गया
प्रेम का धागा उलझ कर रह गया
गुत्थियां खोलें तुम्हारी कामनाएं
औषधि का रूप ले कचनार की
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शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

ये रचना कई बार चोरी हो चुकी है

जी हां ये रचना कई बार चोरी हो चुकी है। पंजाब केसरी में, राष्‍ट्रीय सहारा में। साहित्यिक चोरों ने अपने नाम से प्रकाशित कराई है। राष्‍ट्रीय सहारा का धन्‍यवाद है उसने इसका खंडन भी प्रकाशित किया था। ये कविता जब पंजाब में उग्रवाद अपने चरम पर था तब लिखी गयी थी।

शीर्षक ... फुर्सत नहीं है
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
शायद यमराज लेट हो गया है
या फिर उसकी नज़र फिसल गयी
और हमारी मौत की तारीख निकल गयी
हमने यम के पी ऐ को लिखा
उसने जवाब नहीं दिया
फिर यमराज को किया फोन
यम बोला ..... कौन ....
बीमारी में अस्‍पताल में पड़े हैं
मौत की लाइन में खड़े हैं
प्रभू ..... जल्‍दी आइये
बीमारी और जीवन से छुटकारा दिलाइये
यमराज बोला ठीक है
सब्र कर जल्‍दी आऊंगा
तेरे प्राण ले जाऊंगा
जान लेना तो इजी है
पर क्‍या करूं
मेरे स्‍टाफ पंजाब में बिजी है
तुम्‍हें फोन करने की जरूरत नहीं है
अभी तो मुझे भी
मरने की फुर्सत नहीं है।

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

2009

एक साल गया
एक साल नया
एक दिन ये भी तो जायेगा
लेकिन ये जाने से पहले
कह लें या न कह लें
कुछ देकर ही तो जायेगा
कुछ लेकर ही तो जायेगा
ये देना लेना होना है
एक प्‍यार प्रीत का दोना है
ये प्‍यार प्रीत होता रहे
समय व्‍यतीत होता रहे
नव वर्ष की मंगल कामनाएं