शनिवार, 26 जुलाई 2014

शहीदों के परिवारी सदस्यों को नमन


मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो तुम सीमा से शमशान तक।
सोये हैं कुछ शेर यहां पर उनको नहीं जगाना
टूट न जाए नींद किसी की धीरे धीरे आना

सैनिक का बलिदान अकेला नहीं है। उसके साथ उसके परिजन भी बलिदान करते हैं। शहीद का शव ताबूत में परिजनों के बीच आता है, कल्पीनाओं में मैं वहां खड़ा हूं और सोच रहा हूं……..काश इस शहीद को मैं आवाज दूं और ये जी उठे…..

चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं,
जी उठो तुम और मैं आरती उतार लूं

धूल में मिला दिया घुसपैठियों की चाल को
गर्व से ऊंचा उठाया भारती के भाल को
दुश्मेनों को रौंदकर जिस जगह पे तू मरा
मैं चूम लूं दुलार से पूजनीय वो धरा
दीप यादों के जलाऊं काम सारे छोड़कर…
चाहता हूं भावनाएं तेरे लिए वार दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

सद्भावना की ओट में शत्रु ने छदम किया,
तूने अपने प्राण दे ध्व स्त, वो कदम किया
नाम के शरीफ थे फौज थी बदमाश उनकी,
इसीलिए तो सड़ गयीं कारगिल में लाश उनकी
लौट आया शान से तू तिरंगा ओढ़कर…
चाहता हूं प्यार से तेरी राह को बुहार दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

कर गयी पैदा तुझे उस कोख का एहसान है,
सैनिकों के रक्तो से आबाद हिन्दुवस्ता न है
धन्यय है मइया तुम्हातरी भेंट में बलिदान में,
झुक गया है देश उसके दूध के सम्माभन में
दे दिया है लाल जिसने पुत्रमोह छोड़कर…
चाहता हूं आंसुओं से पांव वो पखार दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

लाडले का शव उठा बूढ़ा चला शमशान को,
चार क्या  सौ-सौ लगेंगे चांद उसकी शान को
देश पर बेटा निछावर शव समर्पित आग को,
हम नमन करते हैं उनके, देश से अनुराग को
स्वनर्ग में पहले गया बेटा पिता को छोड़कर…
इस पिता के पांव छू आशीष लूं और प्याोर लूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

पाक की नापाक जिद में जंग खूनी हो गयी,
न जाने कितनी नारियों की मांग सूनी हो गयी
गर्व से फिर भी कहा है देख कर ताबूत तेरा,
देश की रक्षा करेगा देखना अब पूत मेरा
कर लिए हैं हाथ सूने चूडि़यों को तोड़कर…..
वंदना के योग्य  देवी को सदा सत्का र दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

रो पड़ी है ये जमीं आसमां भी रो दिया
एक प्‍यारी सी बहन ने भाई अपना खो दिया
ताकती राखी लिए तेरी सुलगती राख में,
न बचा आंसू कोई उस लाडली की आंख में
ज्यों  निकल जाए कोई नाराज हो घर छोड़कर…
चाहता हूं भाई बन मैं उसे पुचकार दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

कौन दिलासा देगा नन्हीं बेटी नन्हें बेटे को,
भोले बालक देख रहे हैं मौन चिता पर लेटे को
क्या  देखें और क्या  न देखें बालक खोए खोए से,
उठते नहीं जगाने से ये पापा सोए सोए से
चला गया बगिया का माली नन्हें पौधे छोड़कर…
चाहता हूं आज उनको प्यानर का उपहार दूं, ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

अंत में पा‍कस्तिान को एक सलाह एक चेतावनी............

विध्वंंस की बातें न कर छोड़ आदत आसुरी
न रहेगा बांस फिर और न बजेगी बांसुरी
कुछ सीख ले इंसानियत तेरा विश्वं में सम्मान हो
हम नहीं चाहते तुम्हारा देश कब्रिस्ताान हो
उड़ चली अग्नि अगर आवास अपना छोड़कर
चाहता हूं पाक को आज फिर ललकार दूं।ए शहीद आ तेरी, मैं आरती उतार लूं

शुक्रवार, 9 मई 2014

जन संदेश में प्रकाशित

अत्र कुशलम् तत्रास्‍तु
·         पी के शर्मा

वो जमाने चले गये जब लोग ख़त लिखा करते थे। डाकिया भी समाज में एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान पाता था। लेकिन आजकल डाकिया, रुपये की कीमत भर रह गया है। कारण सब जानते हैं। अब एस एम एस आते जाते हैं। चार दिन का काम चार मिनट में होने लगा है। अत्र कुशलम् तत्रास्‍तु के दिन लद गये हैं। इस जमाने में तो शमशाद बेगम भी कुछ यूं गातीं-- एस एम एस लिख रही हूं, दिल-ए-बेकरार का। मोबाइल में रंग भर के तेरे इंतजार का। ख़ैर...  मैं आज अचानक अपने मित्र अविनाश से मिलने जा पहुंचा। बोला आ बैठ... तुझसे ही मिलने की तलब लगी थी, ठहर जरा मैं एक ख़त लिख लूं। इस खत में एक प्‍यारा-प्‍यारा पैगाम भेज रहा हूं। मैंने उसे हैरानी से निहारते हुए पूछा उम्र के अगस्‍त-सितंबर में क्‍या प्‍यारा-प्‍यारा लिखने लगे हो?  बोला गलत मत सोच..मैं इस पत्र-लेखन कला को जिंदा रखना चाहता हूं और सिंगापुर के व्‍यवसायी लिम सू सेंग को भारत आने का न्‍यौता भेज रहा हूं। एक तीर से दो शिकार कर रहा हूं।
कौन है ये... लिम सू सेंग ?  बोला, है एक बेचारा सरकार का मारा सिंगापुरी व्‍यवसायी। इस पर इल्‍जाम है कि इसने अपने कुत्‍ते को सताया और भूखा रखा। उसकी सेहत का ख्‍याल नहीं किया। अदालत ने इसे करीब 5 लाख का जुर्माना ठोक दिया है। है न हद दर्जे की नाइंसाफी। अरे उसका कुत्‍ता वो भूखा रखे, प्‍यासा रखे, इससे तुम्‍हें क्‍या। सच पूछो तो ऐसी-वैसी खबरें पढ़कर मन करेला-करेला होने लगता है। इससे पहले कि बात नीम-नीम होने तक पहुंचे, मैंने उसे न्‍यौता भेज दिया है.... आजा प्‍यारे पास हमारे, काहे घबराए। यहां किसी बात का डर नहीं है। ख़बरें बतातीं हैं, यहां तो औलाद ही वाल्‍देन को सताती है और सजा नहीं पाती है। कत्‍ल कर दो, तो भी कोई बात नहीं। गवाह तोड़ दो, काम ख़तम। किसी को सताना यहां अपराध की श्रेणी में, आ ही नहीं पाता। कुत्‍तों की छोडि़ये, देश की जनता कितनी सतायी जाती है, अगर इसका हिसाब रखा जाने लगे तो...कारागार की शार्टेज होने लगेगी। गिरफ्तारी.... करेगा कौन?  सताने पर सजा होने लगी तो, देश में शासन चलाने का संकट भी पैदा हो जायेगा। मैं उसकी सारी बातें ध्‍यान से सुन रहा था। वो भी जो लिख चुका था उसकी कमैंट्री जारी थी। बोला---

मैंने लिखा है--लमैंने लिखा हैहिसाब नहीं  सू सेंग...... छोड़ दो सिंगापुर। क्‍या रखा है सिंगापुर में?  हमारे यहां तो वैसे ही अतिथि देवो भव: की तूती बोलती है। यहां रोज न जाने कितने भूखे-प्‍यासे सो जाते हैं, कोई हिसाब नहीं। कोई सजा नहीं। सजा किसको दें। पहले तो केस ही दर्ज न हो। कितने सताये जाते हैं, कौन गिने?  गिनती ख़तम ही नहीं होगी। गिनती तो वैसे भी किसी ऐसे गणितज्ञ ने बनाई हैं जिसे समाप्‍त करना ही नहीं आता था, नतीजन गिनती अनंत तक है। इसीलिए तो आजतक गिनती समाप्‍त नहीं हुई और कभी होगी भी नहीं। शुरू होने के लिए शून्‍य की आवश्‍यकता थी सो भारत ने उसका आविष्‍कार कर ही लिया है। ज्‍यादा गणितीय चीर-फाड़ के लिए दशमलव को भी खोज डाला। भले ही आज पढ़ाई-चोर विद्यार्थी उन खोजी प्रतिभाओं के प्रति अमर्यादित भाषा का प्रयोग करें, जैसी नेता लोग अक्‍सर परस्‍पर करते रहते हैं। ये सच है कि कोई भी गणितज्ञ आज तक गिनतियों का अंत नहीं खोज पाया। मैंने कहा इसमें गिनती क्‍या करेगी ?  उदास होकर बोला हां.... यहां सताने वाले भी कम नहीं, सताए जाने वाले भी कम नहीं और इस बात का किसी को गम नहीं। पर सेंग साहब को मैंने लिख दिया है कि यहां आ कर देखो तो सही। सताने की बात छोड़ो... आपको पीडि़त कुत्‍ते के मरने तक कोई जुर्माना नहीं करेगा। आपका कुत्‍ता... आपके सताने से नहीं, आपकी ही मौत मरेगा और कहा ये जायेगा कि अपनी ही मौत मरा है। 

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

जनसंदेश में........ 20 अप्रैल को प्रकाशित व्‍यंग्‍य

आंसू-आंसू पर नोट
·        पी के शर्मा

मेरा दोस्‍त अविनाश अक्‍सर हंसता हुआ आया करता था, पर न जाने क्‍यूं आज रोता हुआ आया। मैंने ढांढस बंधाया... पूछा क्‍या हुआ ? बोला ढांढस बंधाना कांग्रेस को, मैं तो अपनी मर्जी से रो रहा हूं। आई मीन रोने की प्रैक्टिस कर रहा हूं। मैंने सवाल दागा... इसमें प्रैक्टिस की जरूरत ही कहां है.. आदमी तो पैदा होते ही रोना सीख जाता है। आंसू पोंछकर समझाने लगा...एक खबर छपी है कि चीन में काम की तलाश में दर-दर भटक रहे कलाकारों द्वारा अंतिम-संस्‍कारों में रोने की एक्टिंग करने का चलन जोरो पर है। इसमें इनकम भी होती है। खबर चीन के ‘डेली मेल’ से है।
लो जी... ये क्‍या खबर हुई भला...ये कलाकार तो सुबह-सुबह उठते ही दुआ करते होंगे कि, आज भी कोई... मरे। कल एक मरा था, आज एक नहीं दो-दो मरें। अल्‍लाह मेहरबानी करे, तो सौ-सौ मरें। अभी तक तो अर्थी और कफन बेचने वालों को ही, एक के साथ एक फ्री... वाले ताने (चुटकुले) झेलने पड़ते थे। अब ये रोने वाले कलाकार भी शामिल हो गये इस तानाकशी में। सुना है कि वहां अंतिम-यात्रा में रोने वालों की संख्‍या कम होना, तौहीन की बात है। इसी लिए ऐसे कलाकारों की काफी डिमाण्‍ड है। मैंने प्रश्‍न दागा.... तो इसका मतलब तुम्‍हारा, विदेश जाकर रोने का मन हो रहा है। रोने के लिए भी पासपोर्ट वीजा.... कोई क्‍या कहेगा। एक कलमकार, रोने वाला कलाकार बनेगा।
बोला, ये भी नया बिजनस है... क्‍या बुरा है। रोने वालों की एक-एक टीम को 30-30 हजार तक पारिश्रमिक मिल जाता है। बस जो दमदार दहाड़े मार कर रोयेगा, उसी की कीमत ज्‍यादा। तू भी तैयार हो ले, एक दो को और साथ ले लेंगे, बस... टीम तैयार। मैंने कहा, मुन्‍ना...  रोना है तो, अपने देश में ही बिना पासपोर्ट रो ले। यहां बहुत सारे मुद्दे हैं रोने के लिए। नेताओं के बयान सुन-सुन कर रो ले। मंहगाई को झेल कर रो ले। नेताओं की अकूत संपदा देखकर रो ले। भूखे को रोटी के लिए रोता देख कर रो ले। बोला, यहां पर रोने की कीमत कौन देगावहां आंसू-आंसू पर नोट बरसते हैं।  जो यहां रोते हैं वे नोटो के लिए तरसते हैं। मैं तो वहां जाकर आंसू-आंसू नोट-नोट हो जाना चाहता हूं।   
लोग तो दूसरों के दुख-दर्द में हंसते हैं और ये तो अच्‍छी बात है, कि तुम किसी के दुख-दर्द में रोओगे। पर तुम रोने के पैसे लोगे, बात कुछ जमी नहीं। आंसू बिकने के लिए नहीं होते। अगर होते हैं तो वे असली नहीं हो सकते। मित्र बोला, हूं., समझ तो गया पर काफी देर बाद। चल जल्‍दी कर और तैयार हो ले.... चीन चलेंगे। मैंने फिर से उसकी जल्‍दबाजी पर ब्रेक लगाए और समझाया.... मेरे यार... अगर मैं नकली आंसू रो पाता तो अपने देश में कौन सा पैसे की कमी है ? आजादी के बाद से नेताओं को इन्‍हीं घडि़याली आंसुओं ने घडि़याल बना डाला है। सच माने तो मैं ऐसा घडि़याल नहीं बनना चाहता और न तुझे बनने दूंगा। चल एक हिन्‍दी का शेर सुनाता हूं.. जो मैंने देश में सुनामी आने पर लिखा था। अगर तू समझ सका तो....
                    रोक सको यदि तुम, पोंछ सको यदि तुम-
                    आंसू भी सुनामी है, यदि आंख समंदर है।
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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

दैनिक जनसंदेश लखनऊ के - चकल्‍लस - में प्रकाशित एक व्‍यंग्‍य लेख
आप भी मजा लें


मैं प्रधानमंत्रिन नहीं बनना चाहती
·         पी के शर्मा

आजकल प्रधान पद के लिए उम्‍मीदवारों के नामों की चर्चाएं बिना पंख उड़ रही हैं। अंदर ही अंदर जुगाड़ किये जा रहे हैं, तिकड़म भिड़ाई जा रहीं हैं। मोर्चे खोले जा रहे हैं। सैनिकों के लिए सीमा पर होता है मोर्चा, जहां वो सिर कटवाता है, खुद को कुर्बान करके देश की रक्षा करता है। इनका मार्चा अलग किस्‍म का होता है। इनके मोर्चों में सिर कटने का डर नहीं होता। कुर्बानी की बात तो दूर दूर तक नहीं होती, यहां तो सिरमौर चुना जाता है। चुनावों की घोषणा तक नहीं हुई है। इसे कहते हैं सूत न कपास, जुलाहे से लठ्ठम-लठ्ठा। अब क्‍या करूं इन दिनों मेरी भी नींद उड़ रही है। क्‍योंकि मेरा नाम कोई नहीं ले रहा है। मैं भी खाली हूं, भारतीय रेल को गुड बाय कहने के बाद। मेरी योग्‍यताओं पर किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए। रेलवे भी अपने आप में एक छोटा भारत है। पौने चौंतिस साल रेल ने झेल लिया। देश भी झेल ही लेगा। ये तो देश की जनता के ऊपर है, कैसे झेलेगी। बड़ी सहनशील है। मैं तो हर तरह से झिलने को तैयार हूं। यहां तो कुल जमा पांच साल का ड्रामा है। एक ही लोकसभा जो अक्‍सर ठप्‍प रहती है, काफी है तख्‍ती पर नाम लिखाने के लिए। भले ही मैं किसी रियासत का राजा न रहा, राजकुमार न रहा, नेता न रहा। मैं तो क्‍या, मेरे खानदान तक में कोई नहीं रहा। सभी मेहनत की कमाई पर आजीविका चलाते रहे। जरूरी तो नहीं इस पद के लिए राजा होना, राजकुमार होना या नेता होना, कोई अतिरिक्‍त योग्‍यता मानी जाए।
मेरे इरादे भांप कर पत्‍नी बोली... इतनी ऊंची मत फैंको कि लपक ही न पाओ। यहां राजे रजवाड़े, लोंडे लपाड़े बहुत हैं। ये जो राजा और राजकुमार हैं, प्रधान की कुर्सी पर इन्‍हीं का अधिकार है। ये इण्डिया है, इंग्‍लैंड नहीं... जो खानदानी राजकुमार को फोजी बनाकर लड़ाई के मैदान में भेज दे कि जा बेटा जिस देश का तू राजकुमार है, उस देश की रक्षा करना सीख। सैनिक बनकर देश की रक्षा करना ही धर्म है। खाली घोड़े दौड़ाने से राजकुमार, राजकुमार नहीं होता.... घोड़े [बंदूक के] दबाना भी सीख। अपने यहां तो राजकुमार हो या नेता, बेतुके बयान दागना  सीख ले तो काफी है। ये भी किसी गोले दागने से कम नहीं। दाग कर मौन हो जाए, ये अतिरिक्‍त योग्‍यता मानी जाती है। देश पर जान लुटाने वाले और सिर कटाने वाले तो गांवों और गरीब किसानों के घरों में जनम लेते हैं। आप भी गरीब किसान के घर ही पैदा हुए हो, कोई सोने की चम्‍मच मुंह में लेकर इस दुनिया में नहीं आये हो। आप इस पद के काबिल तब हो सकते हो जब, एक हाथ से सिर कटे शहीद के शव पर फूल चढ़ाओ और दूसरे को दुश्‍मन देश से दोस्‍ती के लिए बढ़ाओ। क्‍या ऐसा दोगला काम कर पाओगे..... ? सच पूछो तो मैं प्रधानमंत्रिन नहीं बनना चाहती तो... आप क्‍या कर लोगे.... कहीं तो मेरी भी चलेगी।     
सच में पत्‍नी जी ने दिया ऐसा झटका, मुझे ख्‍वाबों से सच्‍चाई के धरातल पर ला पटका। फिर प्‍यार से समझाया कि अब पेंशन मिलेगी। इसमें ज्‍यादा टेंशन लेने की जरूरत नहीं है। दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। अच्‍छा होगा इस कुर्सी की तरफ मत देख, लिखो और लिखते रहो अपने व्‍यंग्‍य लेख। इसी में रस है, इसी में भलाई है। अगर एक लेख से जनता के चेहरे से उदासी गायब और मुस्‍कान उतर आयी है, तो ये ही असली कमाई है। फिर तुम सा कोई धनवान नहीं और मुझ सी भाग्‍यवान नहीं।  

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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

आप भी पढि़ये हरिभूमि में प्रकाशित एक व्‍यंग्‍य





लिखो भैंस पर
·         पी के शर्मा

आज मैं आपको प्रसंगवश गांव की एक सच्‍ची घटना सुनाता हूं। एक बार भैंस गांव के जोहड़ में स्‍नान कर रही थी और काफी देर से चाचाश्री अपने बड़े भाई के आदेशानुसार उस भैंस को हरी-हरी घास दिखा कर बुला रहे थे। काफी देर से डे..ड़ा.... डे..ड़ा कर रहे थे, लेकिन भैंस थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी। चाचाश्री का पारा सातवें आसमान को छू रहा था। खैर जैसे-तैसे भैंस बाहर आयी और घेर में पहुंच गयी। चाचाश्री ने उसे खूंटे से बांध कर डण्‍डे से पिटाई शुरू कर दी। कुछ समय बाद पिताश्री पहुंचे तो उन्‍होंने पूछा.... अरे.... ये किस की भैंस को पीट रहा है .. । तुझे अपनी भैंस की पहचान नहीं है... चाचाश्री प्रश्‍नवाचक दृष्टि के साथ बोले... दुनिया में ऐसा कौन है जो अपनी भैंस को पहचानता हो.... ?
  ये तो थी आपको गुदगुदाने वाली एक घटना। अभी-अभी एक और भैंस-प्रकरण का जन्‍म हुआ है देश में। जैसे ही खबर मिली... व्‍यंग्‍यकारों ने, पत्रकारों ने कलम को धार लगाई और पिल पड़े भैंस पर लिखने में। व्‍यंग्‍यकारों की कलम भैंस पर सरपट चल रही है। सब प्रसिद्धि के भूखे हैं। जैसे भैंस प्रसिद्धि को प्राप्‍त हुई है, वैसे ही उनका लेख भी लाइम लाइट में आयेगा। और लेख लाइम लाइट में आयेगा तो लेखक भी। बस... लगा दो तीर निशाने पर। लोहा गरम हो तो चोट चाहिए। कहने का मतलब... गाय के बजाय भैंस इनको साहित्‍य की वैतरणी पार कराएगी। सच में... अक्‍ल बड़ी या भैंस में भैंस ही बड़ी दिख रही है। इधर बेचारी पुलिस हमेशा ही उपहास के काबिल समझी गयी, सो इस बार भी उस पर छींटाकशी हुई ही। मेरी भी समझ में ये बात अब आ पायी है कि नौकरी मिलते ही पुलिसजी के हाथ में डण्‍डा किस लिए थमाया जाता है। आज तो भैंस हैं कल अगर गधे चोरी हुए तो.... इसी तरह काम आयेगा। अंतत: खुशी की बात ये है कि भैंस मिल गयीं और पुलिस की तत्‍परता काबिले तारीफ समझी गयी। कुछ पुलिस वालों का लाइन हाजिर होना कोई मायने नहीं रखता। भैंस पर बहस अब भी जारी है। भैंस को अतिरिक्‍त सम्‍मान दिया ही जाना चाहिए था। ये काली कलूटी भैंस न हो तो काली कलूटी चाय सुड़पनी पड़ती है। सोच लो..... दूध और घी के लाले पड़ जायेंगे... भैंस के बिना।
मैं बहस का रुख दूसरी तरफ मोड़ देना चाहता हूं क्‍योंकि ये सम्‍मान जो भैंसों के हिस्‍से आया, असल में यह नेताओं के हिस्‍से का है। केवल सम्‍मान ही नहीं, ये हिन्‍दुस्‍तान भी इन्‍हीं के हिस्‍से का है। हम और आप तो इसमें रहने का भी टैक्‍स दे रहे हैं, मंहगाई के रूप में। आम-जन का बालक भी गुम हो जाए तो किसी भी पक्ष से भैंसों जैसा सम्‍मान नहीं मिल पायेगा। अगर इन कलमकारों की कलम और देश की पुलिस, किसी बच्‍चे के गुम होने पर भी चले तो, मैं भी सलाम करूं ऐसी मुहिम को, और आप भी। सही है न....  
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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

आओ नोट बदलवा लें...... अगर हैं.... तो...




एक थैला नोट और खून का घू्ंट
·        पी के शर्मा

पत्‍नी फोन पर बात कर रही थी। मैं अवाक रह गया। वार्तालाप का पचास परसैंट ही सुन पा रहा था। पत्‍नी भले ही न हो, पर उसकी तेजतर्रारी देखने लायक थी।
कह रही थी.... क्‍या पापा आप भी... बस.... तुम्‍हें और कोई नहीं मिला था.... पूरी दुनिया में बस... एक ये ही मिला.... अब क्‍या पूछते हो हुआ क्‍या है.... कल तक मोहल्‍ले में मेरी शान, रैंकिंग में नंबर वन थी.... आज भारतीय टीम की तरह लड़ कर भी लड़खड़ा रही है... उसका क्‍या... वो तो नंबर दो पर आ जायेगी.... पर मेरी रैंकिंग तो रेत में मिल गयी न.... ये किस नंबर पर आयेगी.... अब क्‍यों पूछते हो, हुआ क्‍या है ? ... हां... हुआ वही है जो नहीं होना चाहिए था... वो है न मेरी पड़ौसन गीतू... बता रहीं थी... बता क्‍या रही थी... मुझे सुना रही थी.... मेरे सीने पर छुरियां चला रही थी... कह रही थी... मैं तो कल गयी थी बैंक.... एक थैला नोट ले गयी थी... बदलवा कर लायी हूं... पुराने थे न... अब रिजर्व बैंक का क्‍या भरोसा... आज तो बदल भी रहा है.... कल बंद कर दिये तो.... रद्दी वाले को बेचने पड़ेंगे... नहीं पापा... आप नहीं जानते उसे.... वो कह रही थी....  अगर 2005 से पहले के नोट बंद हो गये तो हम भी तुम्‍हारी तरह हो जाएंगे.... मैं, खून का घूंट पीकर रह गयी.... [सुबकते हुए]... ये सब आपकी गलती है... आप भी सीधे-सादे पर लट्टू हो गये.... कोई धन्‍नासेठ का बेटा ढूंढ़ते तो.... मैं भी कह देती... मुझे तो आज टाइम नहीं मिला जाने का.... हां अटैची भर कर रख दी है... हो सका तो कल जाऊंगी.... छुरी का जवाब तलवार से देती... साथ में ये भी कह देती कि मैंने तो एक थैला बेचारे रद्दी वाले को वैसे ही दे दिया है... वो भी क्‍या याद करेगा.... उसकी रैंकिंग में भी सुधार होता और मेरी रैंकिंग के साथ-साथ आपकी रैंकिंग भी सुधर जाती.... मेरे मौहल्‍ले में ।
धीरे-धीरे मैं उसके पास पहुंचा तो उधर से रिसीवर में हलो... हलो हो रही थी और इधर ये सुबक-सुबक कर रो रही थी। मैंने उसे धीरज बंधाया.... क्‍यों परेशान होती है... हमारी जो भी कमाई है.... मेहनत की है.... एकदम साफ सुथरी झक्‍क सफेद... नज़र भी नहीं लगेगी.... कहीं भी काला टीका नहीं लगा है और न ही लगाया है। इस पर गर्व कर। घमंड तो सब कर लेते हैं पर गर्व कोई-कोई कर पाता है। मैंने अपने भारतीय रेल सेवाकाल में जिस सावधानी से ट्रेनों का संचालन कराकर करोड़ों भारतीयों की सुरक्षित यात्रा में योगदान किया है, वह दुनिया के किसी भी बड़े धन से कम नहीं है।  बोरे भरे नोटों से इस धन की तुलना हो ही नहीं सकती। मायावी और झूठी शान-औ-शौकत के बजाय सच्‍चाई के मार्ग पर चल कर जो सुख मिलता है वह अतुलनीय है। माया की छाया में रहेगी तो चैन की नींद नहीं ले पायेगी। आ... चल... छोड़... एक-एक कप ग्रीन टी पीते हैं, मुस्‍कुराहट के साथ।


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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

सामूहिकता की भावना

दैनिक जन संदेश लखनऊ से प्रकाशित समाचार-पत्र में  'उलटबांसी'

आदमी की कुत्‍तई...
·         पी के शर्मा                                        

जानते हो ‘गीक’ किसे कहते हैं?  एक सर्वे के मुताबिक यह सब्‍द सबसे ज्‍यादा चर्चित हुआ है। ये फैशन से दूर रहने वालों के लिए इस्‍तेमाल होने वाला शब्‍द है। कालिंस आन लाइन शब्‍दकोष के अनुसार ये सबसे चर्चित शब्‍द बन गया है। खबर लंदन से है। खबर कहीं से भी क्‍यों न हो.... मैं नहीं मानता। मानूं भी कैसे ?  सबसे ज्‍यादा चर्चित शब्‍द तो कर्म है। कर्म को हमने गीता के ज्ञान से प्राप्‍त किया है। कर्म में हमारा अटूट विश्‍वास है। हम लोग श्री कृष्‍ण जी के गीता ज्ञान से प्रभावित होकर कर्म के हर रूप में विश्‍वास रखते हैं। हमने इसका कई रूपों में स्‍वागत सत्‍कार किया है। विविधता अधिकतर आनंददायक होती है। जैसे रसगुल्‍ला, रसमलाई, जलेबी, बर्फी और गुलाबजामुन सभी मिठाइयां ही तो हैं। सभी में स्‍वाद अलग है। किसी को कोई स्‍वाद पसंद तो किसी को कोई। पर मिठास तो एक ही है। ये ही मूल स्‍वाद है। सब की माता शक्‍कर ही तो है।
इसी तरह कर्म है। कर्म के भी विविध रूप हैं। जैसे सत्‍कर्म, दुष्‍कर्म, कुकर्म और क्रियाकर्म। लोग इस सभी रूपों को समानता के आधार पर सम्‍मान देते हैं। कर्म करते रहते हैं फल की इच्‍छा नहीं करते हैं। एक फिल्‍मी गाना भी तो है –
कर्म किये जा फल की इच्‍छा मत कर ए इंसान। जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान । ये है गीता का ज्ञान.... ।
कुछ साधू-संत भी यही सिखा रहे हैं। प्रयोग कर करके बता रहे हैं और लोग अनुसरण कर रहे हैं। अब आप ही बताइये ये ‘गीक’ शब्‍द कैसे सर्वाधिक चर्चित हो गया ... ?  ‘गीक’ शब्‍द की औकात ही क्‍या है। दुष्‍कर्म या कुकर्म की औकात देखते ही बनती है। गजब का प्रचार पाता है ये। वैसे, ऐसे कर्म करने के लिए भी हिम्‍मत हैवानियत की दरकार होती है। हैवानियत और पैशाचिक प्रवृत्ति के साथ किये गये कर्म अधिक चर्चित होते हैं। ये शब्‍द इतना चर्चित हो गया है कि इसका प्रयोग अधिकतम लोग करने लगे हैं। शब्‍द का नहीं, कर्म के इस रूप का।  
एक और बात है जो सामाजिक एकता की मिसाल बन रही है। लोग सामूहिक रूप से मिलजुल कर करने लगे हैं। दुष्‍कर्म या कुकर्म को एक नया नाम देना पड़ रहा है। आम भारतीयों की तरह ये शब्‍द भी अंग्रेजी की छाया से नहीं बच पाया। इसे गैंग रेप कहने लगे हैं। कुकर्म के बाद ये गैंगरेप ही चर्चा की बुलंदियों को छूने वाला है। मैं दावे से कह सकता हूं कि ‘गीक’ शब्‍द, शब्‍दकोष से ही झांकता रहेगा, जमाने से मुंह छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी।
अब छोडि़ये ‘गीक’ की बातें, आदमी की बात करते हैं। आदमी नये-नये कर्म करते रहना चाहता है। प्रकृति से, आसपास के वातावरण से कुछ न कुछ सीखता भी रहता है। सीखना एक अच्‍छी आदत है। किसी से कुछ भी सीखा जा सकता है। शेर से, निडर रहना। हाथी से, मस्‍त रहना। गिरगिट से, रंग बदलना। कुत्‍तों से भी वफादारी का पाठ सीखता है। उसकी सूंघने की शक्ति का भी लाभ उठाना बुरी बात नहीं है। निश्चित रूप से आदमी को कुत्‍तों की किसी और आदत को नहीं अपनाना चाहिए था। आदमी को इतना समझदार तो होना ही चाहिए कि वह किसी की कौन सी हरकत से सीखे और कौन सी हरकत से नहीं।
आइये अंत में क्रियाकर्म की बात करते हैं। ये एक ऐसा कर्म है, जो अंतकर्म के नाम से भी जाना जाता है। मैं भी अपने लेख का अंत कर रहा हूं.... इस उम्‍मीद के साथ कि आदमी उन बुराइयों का क्रियाकर्म कर डाले जो समाज में किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए ताकि आदमी की कुत्‍तों से तुलना न की जा सके......


पी के शर्मा
1/12 रेलवे कालोनी सेवानगर नई दिल्‍ली
110003
मो 9990005904
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बुधवार, 15 जनवरी 2014


चुप-चुप चलती रेल



बच्चो पहले देखी होगी छुक-छुक करती रेल
हुई तरक्की देखो अब तुम चुप-चुप चलती रेल

चाहे कोई हल्का सा है चाहे कोई भारी है
जात-पांत का भेद नहीं सबके लिए सवारी है

पण्डित जी भी करें यात्रा जिन सीटों पर गाड़ी में
उन सीटों पर साथ विराजें मुल्ला लंबी दाढ़ी में

पहना है पंजाबी बाना चमक रही तलवार भी
इन दोनों के बीच घुसे जब पगड़ी में सरदार जी

कुछ मद्रासी कुछ गुजराती भालो आछे बंगाली
बैठ बिहारी खैनी रगड़ें दे चुटकी और दे ताली

कोई मराठी कोई असमिया कोई है मेहसाणे का
हाथ में हुक्का लिए खांसता ताऊ है हरियाणे का

सफर सुहाना हो जाए जब सबको दूर घुमाए जी
पूरब पष्चिम उत्तर दक्षिण सबको छूकर आए जी

एक्सप्रैस हो या पेसेंजर या हो डब्बा मेल का
सर्वधर्म सद्भाव बनाए बड़ा बड़प्पन रेल का
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