शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

व्‍यंग्‍य लेख हरिभूमि में प्रकाशित

गोपनीय या ओपनीय


आज मैं श्री तेंदुलकर जी के बारे में चर्चा चलाना चाहता हूं, रोकना मत... वैसे जो बात ढकी दबी रहनी चाहिए, उसे ये गेंद की तरह उछालना चाहते हैं। बुजुर्गों ने कहा है...भजन-भोजन एकांत में। भोजन का मतलब है, खाना-पीना। अब श्री तेंदुलकर जी को कौन समझाए कि हर जगह चौके और छक्‍के नहीं चलते। चौकों और छक्‍कों में गेंद उछलती दिखायी देती है। खाने-पीने की चीजों को गेंद नहीं समझना चाहिए। एक तरफ उन्‍होंने लिखा है कि देश में चालीस प्रतिशत लोग अपनी आवश्‍यक आवश्‍यकताओं के लिए मात्र चार सौ पचास रुपये ही जुटा पाते हैं। जुटा तो रहे हैं। न जुटा पाते तो आप और हम क्‍या कर लेते। तेंदुलकर साहब दूसरी तरफ सांसदों के वेतन भत्‍तों का गणित लगा रहे हैं। गणित और गरीबी, दोनों की चर्चा एक साथ कैसे कर सकते हो। संसद की कैंटीन का रहस्‍य गोपनीय होना चाहिए, ओपनीय नहीं। क्‍यों डेढ़ रुपये की दाल को छक्‍के की तरह उछालते हो। चिकन करी मात्र बीस रुपये में सीमा पार, यानि कि गले के अंदर। वैसे ये मुर्गे की गलती है। क्‍यों सांसदों की तरह सरकार के गठन के वक्त, अपनी कीमत नहीं लगाता।
मेरा दोस्‍त बोला, मुर्गे की क्‍या औकात जो अपनी कीमत लगाने की जुर्रत करे। मुर्गा जानता है कि इनके गुर्गों ने इनको यहां तक पहुंचाने में कितने मुर्गों की गरदन मरोड़ी होगी। कल्‍पना से मरा मुर्गा भी सिहर उठेगा। पर ये जो दाल उछाल कार्यक्रम श्री तेंदुलकर जी ने चलाया है, सच में इसको नहीं चलाया जाना चाहिए। आप अपना चूल्‍हा-चौका देखो, दूसरों की रसोई का धुंआ क्‍यों देखते हो। इस जमाने के लोग तो पड़ोस में जलती हुई किसी बहू से उठते हुए धुंए को भी नहीं देखते। आपको क्‍या मालूम संसद की कैंटीन तक जाने में कितना खर्चा हो जाता है। ये सस्‍ता खाना यूं ही नहीं मिल जाता । जनता को नारे खिलाने-पिलाने पड़ते हैं। और तो और एक-एक घूंट पर पूरे जहान में चर्चा हो जाता है। बड़ी मेहनत मशक्‍कत के बाद ही सब कुछ संभव हो पाता है।
हां पर एक बात समझ में नहीं आयी, ये तेंदुलकर जी को इन लफड़ों में पड़ने की क्‍या जरूरत थी। वो तो इस तरह के मामलों में पड़ते ही नहीं हैं। वो तो क्रिकेट का मजा ले रहे हैं, उन्‍होंने कभी इस तरह की चर्चा नहीं की।
मैंने समझाया, तुम इस दुनिया के अकेले अविनाश नहीं हो, और भी अविनाश हैं इस दुनिया में। इसी तरह तेंदुलकर सिर्फ सचिन ही नहीं है, और भी हैं.. समझे। ये हैं श्री सुरेश तेंदुलकर जो आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्‍यक्ष थे। ये इनका आकलन है। इनका भी दूसरों की थाली देख-देखकर हाजमा ख़राब हो रहा है। शुक्र है ये साहब इनकी कैंटीन के खाने का, रेट देख ही पाये हैं। कहीं इन्‍होंने इनका गोपनीय खाने का रेट और पेट देख लिया होता तो... क्‍या हाल होता।

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