मोक्ष का द्वार
पी के शर्मा
लो, कर लो गल। हमें तो पता ही नहीं था कि देवालय
और शौचालय में क्या अंतर होता है। हां इतना अवश्य जानते हैं कि यदि आस्था न हो
तो देवालय के बिना काम चल सकता है लेकिन शौचालय बिना नहीं। इससे तो मोक्ष की
प्राप्ती होती है। जी हां...सुबह का वक्त हो...और शौचालय न हो तो क्या होगा,
कल्पना करना आता है... तो सोच लो। देवालय में कितने ही नारियल फोड़ो कुछ होने
जाने वाला नहीं है... मंत्री जी ने कहा
है। हमारे देश में जो मंत्री जी कहते हैं, होता वही है। जो मंत्री जी नहीं कहते,
होता नहीं है। दुरूस्त फरमाया मंत्री जी ने।
अब मंत्री जी न बोलें तो लोग चुटकुले बनाने लगते
हैं। मेरे एक मित्र ने भी मौन धारण कर लिया था, इसी शक में कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार
तो बन ही गया। बात कुछ यूं है कि या तो मंत्री बोलते नहीं हैं और जब बोलते हैं तो
बवंडर आना जरूरी होता है। वो मंत्री ही क्या जिसके एक बोल पर जनता आंदोलित न हो,
आक्रोशित न हो। अभी दो चार दिन पहले ही एक मंत्री जी का बयान आया, जो महिलाओं को
हिला गया था। उसकी लहरें अभी शांत भी नहीं हो पायीं थी कि दूसरी सुनामी आ गयी, अब..मांगो
माफी...। बात भले ही सही हो। मंदिर में नारियल तोड़ने से मोक्ष प्राप्त नहीं हो
सकता, चलो... चलो तो लैट्रिन में तोड़ेंगे। लैट्रिन के नल में पानी नहीं आ रहा
होगा तो, नारियल पानी काम आएगा। पीने के साथ-साथ धोने का काम भी चलेगा।
शुक्र है, मंत्री जी ने शौचालय का प्रसंग सिर्फ
मंदिर से ही जोड़ा है। किसी और धार्मिक स्थल का नाम नहीं लपेटा। अगर लपेट दिया
होता तो देश कब का लपटो में घिर गया होता। हमारे देश में तो सभी धर्मों का आदर
होता है और सभी के धार्मिक स्थल हैं। इनका क्या भरोसा कब.. क्या कह दें। देश की
जनता हमेशा से ही आहत होती आयी है, उसकी राह में राहत कभी नहीं आती।
इस तुलनात्मक वक्तव्य से जन-जन को ये पता चल
गया कि मंत्री जी के लिए लैट्रिन, मोक्ष का द्वार है, मंदिर नहीं। वैसे तो सभी को
बोलना आता है। लेकिन कब बोलना है, कब नहीं। क्या बोलना है, क्या नहीं...सब नहीं
जानते। घटिया और फूहड़ विचारों से ही प्रसिद्धि नहीं मिलती वरन् सभ्य, संस्कारित व्यवहार और वक्तव्य भी
आदमी को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा सकते हैं।
रही बात खुले में शौच जाने कि तो ये बात आजादी के
आठवें दशक में याद आ रही है..? अब तक कहां सोए हुए थे। ये मोक्ष का द्वार
पहले दिखायी नहीं दिया। राष्ट्रीय राजधानी की अधिकांश आबादी रोज सवेरे रेल की
पटरियों पर इस तथाकथित ‘मोक्ष के द्वार’ को तलाशती नजर आती है। साथ ही साथ कानून
की चादर को झीरमझीर कर रही होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि ये लोग उधर देखने की
जरूरत ही नहीं समझते जिधर कानूनी अपराध हो रहा होता है।
राजधानी ही नहीं, देश के हर बड़े शहर की हर सुबह
की ये पुरातन दिनचर्या है, जो सतत जारी है। कहो, कहो... लेकिल तरीके से.... और
सिर्फ कहो नहीं... कुछ करके दिखाओ मंत्री जी......।
कह तो सही रहे पवन भाई ...
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