खुल्ला खेल फ़र्रूखाबादी
-पी के शर्मा
तुम वहां जाओ... और लौट कर दिखाओ। इसका मतलब सीधा
भी है और टेढ़ा भी। धूल में लठ्ठ मारो, लग गया तो बढि़या और अगर थू..थू हो गई तो
कह देंगे, हमारा ये आशय नहीं था। ये तो मीडिया ने अर्थ का अनर्थ कर दिया है। बयान
तोड़ने मरोड़ने की बीमारी है मीडिया को । हम ऐसा वैसा क्यों कहेंगे। देखने सुनने
वाले सब जानते हैं कि घोड़े को लगाम लगाई जा सकती है, आदमी की जबान को नहीं। अपने
लंबे मुंह से घोड़ा इसीलिए परेशान रहता है। आदमी न जाने कहां-कहां और क्या-क्या
खाता रहता है। उसे कोई लगाम नहीं लगाता। मुंह लंबा उसका होना चाहिए था। लंबे मुंह
में लगाम भी लगाई जा सकती थी और छींका भी। आदमी का मुंह कुदरत ने कुछ इस डिजाइन का
बना दिया है कि न लगाम... न छींका। जो चाहे खाओ, जो चाहे गाओ।
अब ये तो कानून का मामला है। कानून का काम क्या
है, टूटना । अगर कानून न टूटे तो पुलिस बेराज़गार... अदालत ठप्प... वकालत ठप्प।
आम जन को कानून तोड़ने की सजा मिलती है, पर ये तो कानून मंत्री हैं...तोड़ सकते
हैं। जो बना सकता है, वो तोड़कर भी देखेगा, मरोड़कर भी। उसकी कड़क और लचक दोनों ही
देखनी होती हैं। कल को आप ही जिम्मेदारी का ठीकरा मंत्री जी के सर फोड़ दोगे कि क्या
बेकार कानून बनाया है, लल्लू पंजू.. जो चाहता है, वही तोड़ देता है। कानून इतना
तो कठोर होना चाहिए, जो आम जन न तोड़ पाएं और इतना लचीला भी होना चाहिए कि मंत्री
जी जैसे मरोड़ें वैसे ही मुरड़ जाए।
घोषणा हो गयी है कि अब होगा खुल्ला खेल
फ़र्रूखाबादी। कलम से नहीं... ख़ून से। हमें, पीना भी आता है, बहाना भी आता है।
हमारे लिए ख़ून दहशत पैदा नहीं करता। ख़ून...होता है, तब भी नहीं। बहता है, तब भी
नहीं। ख़ौलता है, तब भी नहीं। हमारे लिए ख़ून पानी की मानिंद है। लगता है अब खू़न
का रंग लाल भी नहीं रहा है। पहले खू़न में खानदानी असर होता था। प्रेम का पुट भी
होता था। लेकिन अब तो जैसे पानी दूषित हो चुका है, वैसे ही ख़ून भी प्रदूषित हो
चुका है। यह प्रदूषण हमारी रगों में दौड़ रहा है। इसीलिए हमारी रग-रग दूषित हो गयी
है। रगों से हमारे दिमाग को भी प्रदूषण का पोषण मिल रहा है। प्रदूषित दिमाग, घृणा
और द्वेष का प्रदूषण ही फैलाएगा न....।
यह दिमागी प्रदूषण चिंताजनक है। इससे प्रदूषित
बयान ही निकलेंगे। खासकर देश के रहनुमाओं के दिमाग से निकलने वाले प्रदूषण अधिक
चिंतनीय हैं। जनता को चाहिए कि कुछ नया करे और पहचाने कि कौन रहनुमा होना चाहिए,
वरना यूं ही टुकुर-टुकुर टापती रहेगी और कमा- कमाकर हांफती रहेगी। देश की आर्थिक
विकास दर में गिरावट इन्हीं दूषित हस्तियों से ही है। ‘चुपचाप-मंत्री’ की चुप्पी
कब टूटेगी।
आम जनता तो रोज कमाती है, रोज खा..जाने के लिए...
ख़़जाने के लिए नहीं। रही सरकारी कर्मचारी की बात और उसकी औकात... सो कल ही एक
कुंजड़े ने सरेआम बाजार में बोल दिया कि – बाबू जी टमाटर तो आप पहली तारीख के बाद
ही खरीदोगे न...अभी तो सीताफल से काम चला लो। इधर में ख़यालों में खोया था... सोच
रहा था..; क्या एक एन जी ओ मैं नहीं खोल सकता.... ?
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टिप्पणी की खट खट सच्चाई की है आहट
जवाब देंहटाएंडंके की चोट पर सजी हैयहाँ आज चौखट...