मुझे बचपन खूब याद आता है। मैं बहुत छोटा था। हर रोज शाम को एक घर से धुंआ उठता देख पड़ोस वाले भी दोड़ पड़ते थे, हाथ में एक करसी *उपले का टूटा हिस्सा* लेकर। आग मांगने के लिए। यही परम्परा थी, रिवाज था चूल्हा जलाने का और पेट की आग बुझाने का। कहने का मतलब पेट की आग बुझाने के लिए आग बंटती थी। इस आग बंटने के बाद सब समझ जाते थे कि कहां कहां आग जल रही है और कहां नहीं। जहां नहीं जल पाती थी तो वहां की व्यवस्था गांव के लोग या कहें पड़ोस वाले संभाल लेते थे। लेकिन आजकल ---
पड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।
चन्द शब्दों में पूरी बात कह दी.
जवाब देंहटाएंपहुंचती तो पुलिस भी है
जवाब देंहटाएंपरंतु फीस वसूलने
कुछ तो कर रही है
जेल में न सही
जेब में तो धर रही है
वाह अविनाश जी । बहुत बढ़िया और सटीक कविता ।
जवाब देंहटाएंलेकिन आजकल ---
जवाब देंहटाएंपड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।
" very painful, well decribed in few words, commendable"
Regards