आजादी पाने की खातिर अंग्रेजों से नहीं लड़ा था
मरने वाले थे आगे मैं सबसे पीछे दूर खड़ा था
देख रहा था मैं गोरों को वतन लूटते हैं कैसे
दौलत की लत कैसे पनपे कैसे बनते हैं पैसे
सीख रहा था नमक डालना जनता के हर घाव में
कसरत तो लाठी डण्डों से होती रही चुनाव में
जनता को बहकाया है बस झूठे झूठे वादों में
सारा जीवन बीत गया यूं दंगे और फसादों में
देख देख कर पारंगत हूं कैसे राज किया जाता है
भोली भाली जनजनता का कैसे खून पिया जाता है
हो जाए गर ऐसा कुछ मैं भवसागर से तर जाऊं
राजघाट और विजयघाट सा घाट एक बनवा जाऊं
सरकारी शमशान घाट पर अपना नाम लिखा जाऊं
अंतिम इच्छा है बाकी बस कुर्सी पर ही मर जाऊं
वाह, क्या सुन्दर अभिलाषा है,
जवाब देंहटाएंसटीक व्यंग्य को अभिव्यक्ति दे दी।
तथास्तु
जवाब देंहटाएंइन कुर्सी खोरो की अंतिम इच्छा पूरी हो जिन्होनें लूट लिया है देश को
बेहद सटीक व्यंग्य……………आज हर कोई इन ही हालात से त्रस्त है।
जवाब देंहटाएंजय हिंद्।
यहाँ भी देखें-------http://redrose-vandana.blogspot.com
बहुत सटीक मान्यवर!!
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
जवाब देंहटाएंjai ho......
जवाब देंहटाएंकुर्सी लोहे की है
जवाब देंहटाएंया लकड़ी की
या कल्पनाओं की
जिसमें नोट समाए हैं
पवन जी आपकी रचना की हर पंक्ति में गहरा व्यंग्य छुपा हुआ है। सच है मरने वाले तो शहीद हो ही गये मगर जो आज़ादी वो हमे दे गये हमसे संभाली भी नही जा रही।
जवाब देंहटाएंजय-हिन्द।