रविवार, 13 सितंबर 2009

ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन : जैसा अविनाश वाचस्‍पति ने कहा


आज साहित्‍य शिल्‍पी के वार्षिकोत्‍सव पर इस ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन के मुख्‍य अतिथि डॉ. प्रेम जनमेजय जी, राजीव रंजन प्रसाद जी, मंचासीन और यहां उपस्थित सभी हिंदी प्रेमियों, ब्‍लॉगर्स/साहित्‍यकारों और टिप्‍पणीकारों को बधाई देता हूं और उनका अभिनंदन करता हूं।

इंटरनेट का प्रादुर्भाव विचारों के प्रकाशित किए जाने के लिए हितकारी रहा है। विचारों को प्रकट करने और हिट कराने में इसके योगदान से सभी परिचित हैं। ब्‍लॉग या चिट्ठे के आने के बाद संपादक जी से रचनाओं की सखेद वापसी के युग का अंत हो गया है। अब आप सर्वेसर्वा हैं यानी लेखक, संपादक, वितरक, प्रचारक और पाठक भी। जैसा कि हम सभी जानते हैं स्‍वत्‍वाधिकारी होने से जिम्‍मेदारी कम नहीं होती अपितु बढ़ जाती है। इस दायित्‍व के संबंध में माननीय मुख्‍य अतिथि डॉ. प्रेम जनमेजय से अधिक कौन जानता होगा, जो कि एक लंबी व्‍यंग्‍य यात्रा के साक्षी हैं।

ब्‍लॉग पर प्रकाशित विचारों का, रचनाओं का और आपसी विचार विनिमय का महत्‍व शब्‍दों में नहीं बतलाया जा सकता। ब्‍लॉग ने हमें अंतहीन विचारों का सफर प्रदान किया है। यह सफर जारी है और जारी रहना चाहिए। अजित वडनेरकर जी के शब्‍दों के सफर की निरंतरता और उपयोगिता के माफिक। उनसे कदाचित ही कोई अपरिचित होगा जैसे कोई उड़नतश्‍तरी जी को न जानता हो, ऐसे बहुत से नाम हैं ... सबका उल्‍लेख करना संभव नहीं है और ऐसे ही एक प्रेमी बंधु अरूण अरोड़ा जी आज यहां पर अपनी मौजूदगी से सतरंगी रंग बिखेर रहे हैं। आप अपने मन को टटोल लीजिए, ऐसे बहुत से नाम खुद ब खुद आपके जहन में गोते लगाने लग गए हैं।

आज हम साहित्‍य शिल्‍पी के सौजन्‍य से इनके नुक्‍कड़ पर अपने नुक्‍कड़ के तमाम लेखकों और पाठकों के साथ इस महासम्‍मेलनीय स्‍वरूप में एकत्रित हुए हैं। वैसे इनका नुक्‍कड़ और हमारा नुक्‍कड़ और आपका नुक्‍कड़ तथा जो इंटरनेट के माध्‍यम से जुड़े हुए हैं, सब मिलकर चौराहा बनता है और इस चौराहे पर मिलकर हम सब हर्षातिरेक और प्रेम से आनंदित हो रहे हैं। आज हम सब इतना कहना चाहते हैं कि यदि यह समारोह एक सप्‍ताह भी लगातार चले तब भी सबके पास बहुत कुछ अनकहा रह जायेगा।

इस अवसर पर स्‍मृति दीर्घा के भाई सुशील कुमार, आशीष खंडेलवाल का भी जिक्र करना चाहूंगा जिनकी कर्मठता, लगन और तकनीकी सहयोग ने हमारे ब्‍लॉगों को तकनीकी तौर पर समृद्ध किया है और यह प्रक्रिया अनवरत रूप से प्रवाहमान है। हमें बहुत सारे वरिष्‍ठ लेखकों का आशीर्वाद प्राप्‍त है, साथी लेखकों का बेशुमार प्‍यार जिनमें भविष्‍य में अपनी लेखनी के बल पर धूम मचाने वाले अजय कुमार झा, विनोद कुमार पांडेय, पुष्‍कर पुष्‍प, विनीत कुमार इत्‍यादि का उल्‍लेख कर रहा हूं। इसका आशय यह न लिया जाए कि वे इस समय धूम नहीं मचा रहे हैं और जिनके नाम नहीं ले रहा हूं वे हमें प्‍यार नहीं करते अपितु सबका नाम लूंगा तो अलग से एक सूची ही पढ़नी होगी तब भी सूची मुकम्‍मल नहीं हो पाएगी। आपके सबके स्‍नेह संबल से ही साहित्‍य शिल्‍पी और नुक्‍कड़ आज यहां मिलकर प्रेम की बरसात, सचमुच की बरसात के बीच कर रहे हैं। बारिश ने मौसम खुशनुमा बना रखा है।

इंटरनेट ने एक दुर्गम विश्‍व को एक सुंदर सा आधुनिक गांव बना दिया है। इंसानों की भौगोलिक दूरियों से ज्‍यादा वैचारिक दूरियां होती हैं। ऐसी दूरियों को पाटने का काम जितनी खूबी से इंटरनेट कर रहा है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम है।

इस गांव की एक कुटिया में आपको पाबला जी मिलेंगे, उनके साथ वाली कुटिया में ही ज्ञानदत्‍त पांडेय जी अपनी छुक छुक रेलगाड़ी के साथ, चौखट में चंदन जी और मास्‍टरनी नामा में कुमाऊंनी चेली शेफाली पांडेय जी। जो हलद्वानी से इस ब्‍लॉगर्स सम्‍मेलन के लिए खासतौर से पधारी हैं।

ब्‍लॉगों पर सभी तरह के पुष्‍प मौजूद हैं जिसको जो लुभावना लगे वो उसके साथ जुड़ जाता है। इसमें सभी का अपना महत्‍व है जिसमें विधा और विषय अलग हो सकते हैं।

कंप्‍यूटर के सामने बैठकर कभी मैं अकेला नहीं रहा हूं। मेरे साथ एक भरा पूरा जीवंत संसार अपनी विविध कलाओं रूपी हरी, लाल, संतरी रंग की जगमगाती बत्तियों के साथ सदा मौजूद रहता है ।

बेमन से कार्य किया जा रहा हो तो समय बिताये नहीं बीतता। एक एक पल एक साल से भी लंबा महसूस होने लगता है। समय सिर्फ उसी काम में कम पड़ता है जिसमें हमारा मन रच जाता है। और फिर जिस काम में मन रम गया तो वक्‍त का नशा उतरने का नाम नहीं लेता। समय का पता ही नहीं लगता, कब कितना गुजर गया। ऐसे ही अहसास सुख और दुख के होते हैं।

इंटरनेट ध्‍यान में साधना करने वाले मेरे जैसे कीबोर्ड के खटरागी प्रत्‍येक साधक इस सच्‍चाई से रोजाना ही रूबरू होते हैं। इस साधना के सामने भूख प्‍यास जैसी भौतिक जरूरतें भी कुछ समय के लिए गैर-जरूरी हो जाती हैं या हम उनकी अवहेलना करने का गुनाह कर बैठते हैं। पर प्रेम के इस खेल में ऐसे गुनाहों पर माफी मिल जाया करती है।

इंटरनेट पर हिंदी के संबंध में और ब्‍लॉगिंग के संबंध में सभी उपस्थित जन अपने अपने विचार संक्षिप्‍त में रख सकते हैं। उन्‍हें रिकार्ड किए जाने की व्‍यवस्‍था है और उनसे लाभान्वित कराने के कार्य में साहित्‍य शिल्‍पी और नुक्‍कड़ टीम के सभी सदस्‍य एक बार फिर पूरी शिद्दत से जुट जायेंगे।

और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे साहित्‍य शिल्‍पी के माध्‍यम से स्‍नेह विनिमय का यह प्रयास इंद्रधनुषीय रंगों को जीवंत कर रहा है।

धन्‍यवाद।

विशेष : 12 सितम्‍बर 2009 फरीदाबाद में आयोजित साहित्‍य शिल्‍पी वार्षिकोत्‍सव के अवसर पर नुक्‍कड़ ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन को आरंभ करते हुए जैसा अविनाश वाचस्‍पति ने कहा, अविकल रूप से प्रस्‍तुत है। उल्‍लेखनीय है कि इस महासम्‍मेलन में भोजन और भजन (ब्‍लॉगर विचार) साथ साथ चले।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

आओ, आओ ..... बेझिझक सादर

आप जानते हैं मुनादी किसे कहते हैं..............
आधुनिक युग में इसे कहते हैं विज्ञापन
और आज हम मुनादी नहीं, विज्ञापन नहीं .....................
स्‍नेह विस्‍तार कर रहे हैं
इस विस्‍तार में आपका प्‍यार भी हो
आपकी उपस्थिति भी सुनिश्चित हो
सभी ब्‍लॉगर मित्रों से निवेदन है
आप सभी शामिल हों
12 सितंबर दिन शनिवार को फरीदाबाद में
और इस स्‍नेह विस्‍तार को नया विस्‍तार दें
चटकाइये और पाइये निमंत्रण

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

'लो हो गया शतक' प्रकाशित हरिभूमि और शबद लोक

जिन्ना और ता ता धिन्ना
आज मेरा दोस्त अविनाश कुछ अलग अंदाज में था। वैसे तो वह मुझसे छोटा है पर बात कुछ इस तरह कर रहा था जैसे बड़ा हो गया हो। आते ही बोला...क्या कविता... क्या व्यंग्य, मेरी मान॥ तो ये सब छोड़ दे और अपनी कलम को किताब की तरफ मोड़ दे। किताब लिख, किताब... कविता से क्या मिलेगा जो किताब से मिलने वाला है। बस ऐसा मसाला ठूंस दे कि तूफान खड़ा हो जाए। मेरी माने तो शांत तालाब में सोडियम का टुकड़ा फैंक दे। पानी में आग लगाने का रासायनिक तरीका है। आग लगाओ और दूर खड़े सेको। मजे से तमाशा देखो। तुम्हारे लेख और कविता की कीमत भी तीन अंको से चार में पहुंच जाएगी। मेरे प्रश्‍न करने से पहले ही बोल पड़ा...तुम भी तो बीसवीं सदी में पैदा हुए थे, सो अपने जनम के आस-पास का कोई किस्सा टटोल और लिख दे गोल मोल। बस एक बात का ध्यान रखियो... अगर किस्सा सच हो तो ऐसे लिखना कि झूठ लगे। यदि सच न मिले तो ऐसा झूठ लिखमार कि सरासर सच लगने लगे। लेखन का सबसे बड़ा टोटका है। कोई चूमे न चूमे, पर सफलता तेरे कदम चूमेगी। किसी की ताब नहीं कि उस किताब को बिकने से रोक सके। सफेद तो क्या काले में भी बिकेगी। आइडिया दूं... किसी भले आदमी पर कीचड़ उछाल दे, किसी सज्जन पर लांछन लगा दे। कलम की आजादी इसी को तो कहते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसी का सहारा ले और भारत की सुप्त जनता को जगा दे। एक नया मुद्दा दे दे। कुछ दिन गाल बजा लेगी और दाल का दाम भूल जाएगी। ऐसा करने से तेरी भी दाल गल जाएगी। अब ये मत लिखना कि भारत को किसने तोड़ा था, ये आइडिया तो किसी नेता ने मार लिया है। मैं सोच ही रहा था कि ये गड़े मुर्दे कौन उखाड़ रहा है? अविनाश ने भांप लिया और बोला... मेरे यार ये मुर्दे, गाड़े ही इसलिए जाते हैं कि उनको उखाड़ा जा सके। ये वो राजनीतिक दांव है जिससे दूसरे को पछाड़ा जा सके। अविनाश अभी भी बोले ही जा रहा था और मैं ये सोचने में मग्न था कि देश में ऐसे नेता क्यों नहीं हैं जो उस किताब को लिखें, जिसमें देश को एक सूत्र में पिरोने का मजबूत धागा विकसित हो। देश का अंग-अंग एक मोती की माला में गुंथा नजर आए। इधर-उधर बिखरे हुए छोटे-छोटे मोती भी इसमें जुड़ने को लालायित हों। अविनाश ने जैसे मेरे विचारों को पढ़ लिया हो। बोला,,, बेकार की मत सोच...ऐसी किताब की कल्पना न कर जो एक के साथ चार फ्री मिलें। जो विवादित न हो, वो किताब ही क्या ? चल जुट जा किताब लिखने में...
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शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

स्‍वतंत्रता दिवस की बधाई

मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो जी सीमा से शमशान तक
सोये हैं कुछ शेर यहां पर उनको नहीं जगाना
टूट न जाए नींद किसी की धीरे धीरे आना
आंसू दो टपका देना और मन से फूल चढ़ाना

हम शहीदों के परिवारिक जनों के सुखी जीवन की आज फिर कामना करते हैं

बुधवार, 29 जुलाई 2009

पहले पहचानिए फिर हम बतलायेंगे




सभी ब्‍लॉगर्स नहीं हैं
प्रतिशत ज्‍यादा भी
हो सकता है और
कम भी।

बतलाइये आप
वैसे इनसे फोन पर
हुई थी मेरी बात
शायद आपकी भी
हुई हो या हुई हो
लिखचीत।

तो याद आया कुछ
कौन कौन हैं
या हम ही बतलायें ?

वैसे ये चित्र भारत की
राजधानी दिल्‍ली के हैं
और ज्‍यादा पुराने नहीं हैं।

इनमें पचास प्रतिशत को
आप जानते होंगे पर
बाकी पचास प्रतिशत को ?

एक हल्‍द्वानी से हैं
और दूसरे दिल्‍ली के
उनकी व्‍यंग्‍य क्षणिकाएं
खूब पसंद की जाती हैं
वे चेली से पहचानी जाती हैं।

रविवार, 26 जुलाई 2009

कारगिल के शहीदों को प्रणाम ' आंसु जो कविता बन गये '

मेरे ब्‍लॉग ' चौखट ' के पाठको के लिए खास

मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो तुम सीमा से शमशान तक
सोये हैं कुछ शेर यहां पर धीरे धीरे आना
आंसू दो टपका देता पर ताली नहीं बजाना

शहीद की शवयात्रा देख कर मुझमें भाव जगे

चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

बारंबार पिटा सीमा पर भूल गया औकात को
चोरी चोरी लगा नोचने भारत के जज्‍बात को
धूल धूसरित कर डाला इस चोरों जैसी चाल को
मार पीट कर दूर भगाया उग्र हुए श्रंगाल को
इन गीदड़ों को रौंद कर जिस जगह पे तू मरा
मैं चूम लूं दुलार से पूजनीय वो धरा
दीप यादों के जलाऊं काम सारे छोड़कर
चाहता हूं भावनाएं तेरे लिए वार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

सद्भावाना की ओट में शत्रु ने छद्म किया
तूने अपने प्राण दे ध्‍वस्‍त वो कदम किया
नाम के शरीफ थे जब फोज थी बदमाश उनकी
इसलिए तो सड़ गयी कारगिल में लाश उनकी
सूरत भी न देखी उनकी उनके ही परिवार ने
कफन दिया न दफन किया पाक की सरकार ने
लौट आया शान से तू तिरंगा ओढ़कर
चाहता हूं प्‍यार से तेरी राह को बुहार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की मां को प्रणाम

कर गयी पैदा तुझे उस कोख का एहसान है
सैनिकों के रक्‍त से आबाद हिन्‍दुस्‍तान है
तिलक किया मस्‍तक चूमा बोली ये ले कफन तुम्‍हारा
मैं मां हूं पर बाद में, पहले बेटा वतन तुम्‍हारा
धन्‍य है मैया तुम्‍हारी भेंट में बलिदान में
झुक गया है देश उसके दूध के सम्‍मान में
दे दिया है लाल जिसने पुत्र मोह छोड़कर
चाहता हूं आंसुओं से पांव वो पखार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की पत्‍नी को सम्‍मान

पाक की नापाक जिद में जंग खूनी हो गयी
न जाने कितनी नारियों की मांग सूनी हो गयी
हो गयी खामोश उसकी लापता मुस्‍कान है
जानती है उम्र भर जीवन तेरी सुनसान है
गर्व से फिर भी कहा है देख कर ताबूत तेरा
देश की रक्षा करेगा देखना अब पूत मेरा
कर लिए हैं हाथ सूने चूडि़यों को तोड़कर
वंदना के योग्‍य देवी को सदा सत्‍कार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद के पिता को प्रणाम

लाडले का शव उठा बूढ़ा चला शमशान को
चार क्‍या सौ सौ लगेंगे चांद उसकी शान को
कांपते हाथों ने हिम्‍मत से सजाई जब चिता
चक्षुओं से अक्ष बोले धन्‍य हैं ऐसे पिता
देश पर बेटा निछावर शव समर्पित आग को
हम नमन करते हैं उनके, देश से अनुराग को
स्‍वर्ग में पहले गया बेटा पिता को छोड़कर
इस पिता के चरण छू आशीष लूं और प्‍यार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद के बालकों को प्‍यार दुलार

कौन दिलासा देगा नन्‍हीं बेटी नन्‍हें बेटे को
भोले बालक देख रहे हैं मौन चिता पर लेटे को
क्‍या देखें और क्‍या न देखें बालक खोये खोये से
उठते नहीं जगाने से ये पापा सोये सोये से
हैं अनभिज्ञ विकट संकट से आपसे में बतियाते हैं
अपने मन के भावों को प्रकट नहीं कर पाते हैं
उड़कर जाऊं दुश्‍मन के घर उसकी बांह मरोड़कर
बिना नमक के कच्‍चा खाकर लंबी एक डकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शहीद की बहन को स्‍नेह

सावन के अंतिम दिवस ये वेदना सहनी पड़ेगी
जो कसक है आज की हर साल ही सहनी पडे़गी
ढूंढ़ती तेरी कलाई को धधकती आग में
न रहा अब प्‍यार भैया का बहन के भाग में
किस तरह बांधे ये राखी तेरी सुलगती राख में
न बचा आंसू कोई उस लाडली की आंख में
ज्‍यों निकल जाए कोई नाराज हो घर छोड़कर
चाहता हूं भाई बन मैं उसे पुचकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

पाक को चेतावनी

विध्‍वंश के बातें न कर बेवजह पिट जायेगा
तू मिटेगा साथ तेरा वंश भी मिट जायेगा
कुछ सीख ले इंसानियत तेरा विश्‍व में सम्‍मान हो
हम नहीं चाहते तुम्‍हारा नाम कब्रिस्‍तान हो
चेतावनी है हमारी छोड़ आदत आसुरी
न रहेगा बांस फिर और न बजेगी बांसुरी
उड़ चली अग्‍नि अगर आवास आपना छोड़कर
चाहता हूं पाक को मैं जरा ललकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
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मंगलवार, 30 जून 2009

व्‍यंग्‍य लेख हरिभूमि में प्रकाशित

राजस्‍थान के हिण्‍डोनसिटी की खबर पर एक व्‍यंग्‍य लेख
खून... निकाला ही तो है, किया तो नहीं

खबर पढ़ कर पत्नी चिल्लाई, देखना...मरे नासपीटों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा....उनका खून निकाल लिया। मैंने कहा, निकाला ही तो है, किया तो नहीं ? कर ही देते तो हम क्या कर लेते, सिर्फ पढ़ लेते और अखबार मोड़ कर रख देते, जैसा रोज करते हैं। पत्नी, मेरी बेरूखी देखकर आपे से बाहर हो गयी। बोली.. आप तो पत्थर हो...पत्थर। इतनी बड़ी खबर है और कोई असर नहीं। मैंने समझाया...ये सब लालच के वशीभूत हुआ है। बच्चों को कचौरी पसंद थी उसके बाद जूस पीने का भी लालच। डॉक्टर और उसके कुछ साथियों ने मिल कर जूस पिलाया और जूस निकाल लिया। जूस के बदले जूस। जूस फलों का हो या बालकों का, जूस तो जूस है। हमारे देश में उनका भी बाल बांका नहीं होता जो जूस पीने के बाद, गुठली तक नहीं छोड़ते। निठारी काण्ड भूल गयी क्या ? तुम भी कौन सा आम की गुठली छोड़ देती हो.. उसे भी भून कर खा लेती हो कि चलो पेट साफ हो जाएगा।पत्नी, ज्वालामुखी हो चली थी, बोली...आप, आम और बच्चों में फर्क नहीं समझते? मैंने कहा... समझता हूं और अच्छी तरह समझता हूं। अगर ये बच्चे आम न होते तो इनका जूस क्यों निकलता। आम थे तभी तो निकला। जो खास होते हैं उनको घर में ही कचौरी और जूस, बिना भूख ही मिल जाता। ये भूख ही है... जो अपराध को जन्म देती है। बच्चों को भूख थी कचौरी की, डाक्टर और उसके साथियों को भूख थी पैसा बनाने की। बनाने और कमाने में भी फर्क है। कमाने यानि कि कम आने में तसल्ली नहीं होती न। दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूख शांत कर रहे थे। पैसा बनाने में काम अमानवीय है या नहीं, ये सब देखने सोचने की किसे फुरसत है?व्यापार में तो ऐसा ही होता है। सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो। इस खून से भी किसी की जान ही बचेगी, क्यों घबराती हो। सवालिया अंदाज में बोली...क्या खाक जान बचेगी, इन्होंने जो खून निकाला है वह सुल्फा, गांजा और अफीम खिलाकर निकाला है। हो सकता है स्मैक या हीरोइन न पिला दी हो। अब जिसको भी खून चढ़ाया जायेगा वही नशे के वशीभूत हो जायेगा। ये तो उसकी भी धीमी मौत का इंतजाम हुआ न। मैंने कहा... मौत भी धीरे-धीरे ही आनी चाहिए। कौन है यहां, जो मरने की जल्दी में हो? सभी तो देर से और, और देर से मरना पसंद करते हैं। सब यही सोचते हैं आज नहीं कल और कल नहीं परसों। ये कल और परसों, बरसों में बदल जाए तो क्या कहने। पत्नी आंखें तरेर कर अंग्रेजी बोलने लगी। ‘‘इन टू व्हाटऐवर हाउसिस, आई एंटर, आई विल गो इनटू दैम फॉर द बैनिफिट ऑफ द सिक, एण्ड विल एब्सटेन फ्रॉम एवरी वालैन्टरी एक्ट ऑफ मिस्चीफ एण्ड करप्शन... समझे कुछ ?ये एक लाइन है उस शपथ की, जो डॉक्टर, डॉक्टर बनने के बाद और रोगियों की सेवा करने से पहले लेता है तथा डिग्री प्राप्त करता है। क्या हुआ, इस शपथ का ? मुझे फिर समझाना पड़ा... अरी बावरी, अगर ये डिग्री नकली है तो शपथ की जरूरत ही कहां है ? है भी तो शपथ असली होगी, इस बात की क्या गारंटी है? मेरी सुन, ये शपथ वगैरह सब जनता को विश्‍वास के दायरे में रखने का एक साधन मात्र है। ये पति-पत्नी का गठबंधन नहीं है जो सात फेरे के बदले सात-सात जनम निभाना ही पड़े। ऐसा भी सुना गया है कि एक सरकारी डॉक्टर के प्राइवेट क्लीनिक का फीता स्वयं स्वास्थ्य मंत्री ही काट देता है और वहां मुफ्त इलाज का जुगाड़ बिठा लेता है, समझीं...। ये शपथ, नियम और कानून सब दैनिक जीवन के ‘मेकप’ हैं। जब चाहा, वक्तव्यों के चार छींटे मारे और मेकप धो दिया।