शनिवार, 14 अगस्त 2010

अंतिम इच्‍छा

आजादी पाने की खातिर अंग्रेजों से नहीं लड़ा था
मरने वाले थे आगे मैं सबसे पीछे दूर खड़ा था

देख रहा था मैं गोरों को वतन लूटते हैं कैसे
दौलत की लत कैसे पनपे कैसे बनते हैं पैसे

सीख रहा था नमक डालना जनता के हर घाव में
कसरत तो लाठी डण्‍डों से होती रही चुनाव में

जनता को बहकाया है बस झूठे झूठे वादों में
सारा जीवन बीत गया यूं दंगे और फसादों में

देख देख कर पारंगत हूं कैसे राज किया जाता है
भोली भाली जनजनता का कैसे खून पिया जाता है

हो जाए गर ऐसा कुछ मैं भवसागर से तर जाऊं
राजघाट और विजयघाट सा घाट एक बनवा जाऊं

सरकारी शमशान घाट पर अपना नाम लिखा जाऊं
अंतिम इच्‍छा है बाकी बस कुर्सी पर ही मर जाऊं

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, क्या सुन्दर अभिलाषा है,
    सटीक व्यंग्य को अभिव्यक्ति दे दी।

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  2. तथास्तु
    इन कुर्सी खोरो की अंतिम इच्छा पूरी हो जिन्होनें लूट लिया है देश को

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  3. बेहद सटीक व्यंग्य……………आज हर कोई इन ही हालात से त्रस्त है।
    जय हिंद्।
    यहाँ भी देखें-------http://redrose-vandana.blogspot.com

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  4. बहुत सटीक मान्यवर!!

    स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

    सादर

    समीर लाल

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  5. आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।

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  6. कुर्सी लोहे की है
    या लकड़ी की
    या कल्‍पनाओं की
    जिसमें नोट समाए हैं

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  7. पवन जी आपकी रचना की हर पंक्ति में गहरा व्यंग्य छुपा हुआ है। सच है मरने वाले तो शहीद हो ही गये मगर जो आज़ादी वो हमे दे गये हमसे संभाली भी नही जा रही।

    जय-हिन्द।

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टिप्‍पणी की खट खट
सच्‍चाई की है आहट
डर कर मत दूर हट