बुधवार, 17 दिसंबर 2008

जूता चला

बुश को झुकना पड़ गया जूता हुआ महान
पल में अपमानित हुआ जग में देश महान
काम कुछ अच्‍छे करते

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

जूता

मैंने पूछा जूते से
तुम क्‍यों चले
बोला मैं नहीं चला तो
दुनिया कैसे चलेगी
जूता रूका, तो दुनिया रूकेगी
वरना नंगे पांव चलेगी
और ये बात सबको खलेगी
अब जूता चला वो भी खल रहा है।
मैं चलूं तो परेशानी
न चलूं तो परेशानी
दुनिया को चलाने के लिए ही चला हूं।
जब दुनिया मुझे रौंदती है
मेरे अंदर बिजली सी कौंधती है
मेरी आबरू का नाश करती है दुनिया
लगातार करती आ रही है
मेरे ही बल पर आगे बढ़ती जा रही है
और जूते खा रही है

रविवार, 14 दिसंबर 2008

जन्‍मदिन की बधाई अविनाश भाई


अविनाश वाचस्‍पति आपको
50 से 51 की ओर बढ़ना
मुबारक हो
पर घट रहे हैं बरस
दर बरस
हर बरस।


वैसे जन्‍मदिन तो आज
राजकपूर का भी है
राजीव गांधी का भी
पर हमारे राज और राजीव
आप ही हैं
पर आप न राज हों
न हों राजीव
दोनों दूर हैं
और आप पास।

फिल्‍मकार श्री श्‍याम बेनेगल जी
का जन्‍मदिन भी आज ही है और

वे पास ही हैं जिस तरह
उसी तरह
आप पास ही रहें।


पर सदा जैसे
नहीं रह सकता कोई पास
सुश्री स्मिता पाटिल आज ही

गई थीं दूर बहुत दूर

पर वे भी अपनी कला के जरिये

पास ही हैं, खास भी हैं।


आप पास ही रहें और
आप खास भी रहें
पासमखास रहें।

लिखते रहें व्‍यंग्‍य
रचते रहें कविता
यही है इच्‍छा।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

आओ हँस लें

एक आदमी बदहवास सा भागता हुआ मंदिर पहुँचा
आदमी....
हे राम, हे भगवान तुम तो अंतर्यामी हो, इस दुनिया में जो भी कुछ होता है सब आपको पता होता है। मेरे साथ क्‍या हुआ है आप जानते ही हो, जानते हो न.... कि मेरी पत्‍नी गुम हो गयी है।
भगवान राम की आवाज.....
तो फिर क्‍या चाहते हो् ?

आदमी.....
चाहता तो कुछ नहीं, बस आप हनुमान जी को मत बताना।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

सोचने की बात

रोयी मुंबई तीन दिन हो कर लहूलुहान
देखें, अपने देश की किसके हाथ कमान

संदीप उन्‍नीकृष्‍णन को नमन

चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
ऐ शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

जिस कोख ने पैदा किया उस कोख का ऐहसान है
सैनिकों के रक्‍त से आबाद हिन्‍दुस्‍तान है
धन्‍य है मइया तुम्‍हारी भेंट में बलिदान में
झुक गया है देश उसके दूध के सम्‍मान में

दे दिया है लाल जिसने पुत्रमोह छोड़कर
चाहता हूं प्‍यार से पांव वो पखार दूं
ऐ शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

बताओ तो कौन हूं ।

मैं बेकरार रहा
हमेशा इंतजार रहा
तुम कब आओ
अपने कोमल स्‍पर्श से जगाओ
सिहरन सी होती थी बदन में
ऐसा जादू था तेरी छुवन में
होता था हर नाड़ी में रक्‍त संचार
ये ही तो था, तेरा और मेरा प्‍यार
कभी कभी तो मैं ही शौर मचाता था
तुम्‍हें बुलाता था
जब जब मैंने तुम्‍हारे कान में फुसफुसाया
तुम्‍हारा भी तन मन हर्षाया
चहक उठी काया

सुख भी गम भी
तुम भी हम भी
मिलकर सहते रहे
एक दूसरे के मन की बात कहते रहे
मुझे याद है
तेरे नर्म नर्म हाथों की
नर्म नर्म उंगलियों के
नर्म नर्म पोरों
के इशारों
पर नाचता रहा
चक्‍कर घिन्‍नी काटता रहा
प्रेम-पीड़ा बांटता रहा
तेरे गुलाबी होठों से निकली
गर्म सांस का एहसास
रहा हमेशा ही पास
तुमने जब जो चाहा
बेबाक कहा
मैं चुपचाप सुना करता था
ऐसा नहीं कि मैं डरता था
मैं तुम्‍हारी हर बात मान गया
और धीरे धीरे
तुम्‍हारे सब भेद जान गया
तुम कहां कहां बतियाए
किसे पुकारते हो
किसे पुचकारते हो

लेकिन ये जो जमाना बदल रहा है
तुम्‍हें भा रहा है मुझे खल रहा है
तुम्‍हारे जीवन में कभी भी
एक नया दोस्‍त आ जाता है
दुखद ये है कि
मुझसे ज्‍यादा भा जाता है
वो तो मेरे अस्तित्‍व को घुन लगा रहा है
मैं आता था तो घंटी बजाता था
वो तो नई नई धुन बजा रहा है
लेकिन तुम तो ऐसे ऐसों को जेब में रखते हो
कभी भी बदल देते हो
नये नये स्‍वाद चखते हो

आप सोचते होंगे मैं न जाने कौन से
रोमांस की चर्चा में रंग गया
लीजिए ससपेंस का सिलसिला थम गया
बता देता हूं मैं कौन हूं
जी हां
मैं आपका लैंड लाइन फोन हूं

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

शुभ कामनाएं

भारतीय रेल की व्‍यस्‍तताओं के कारण
निकल गया समय का दिवाला
फिर भी समय निकाला
इस अमूल्‍य समय का उपयोग कर
शुभकामनाएं प्रेषित कर रहा हूं
उन सभी को जो मुझे पढ़ते हैं
जो मुझे जानते हैं
जो मुझे मानते हैं
जो नहीं मानते हैं
जो नहीं जानते हैं
जो नहीं पढ़ते हैं
सभी को दीपमाला की शुभ अतिशुभ कामनाएं
जलाओ एक ज्‍योत
प्रेम से ओतप्रोत

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

चोंचले बनाम ख्‍वाब

सदा अधूरे ही रहे सच सच कहूं जनाब
धनवानों के चोंचले धनहीनों के ख्‍वाब

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

रावण की तो बात ही कुछ और है : अविनाश वाचस्‍पति

हिन्‍दी मीडिया पर प्रकाशित
इस लेख की बात ही कुछ और है
जिस तरह
रावण की तो बात ही कुछ और है
क्‍या मानें तुझे हम रावण, यह सवाल सुरसा की तरह मुँह बायें खड़ा है, पर उत्‍तर नहीं मिल रहा है जबकि दशहरा लो आया ही समझो। पिछले बरस गया और इस बरस फिर आ गया। अपने समूचे रावणत्‍व के साथ। पर आप रावणत्‍व किसे मानेंगे। यही माना जाता है कि रावण बुराई का प्रतीक है। बुराई का प्रतीक अर्थात् बुराई ही बुराई। भ्रष्‍टाचार, बेईमानी, चोरी, कपट, छल - अगर आप दशहरे पर रावण को इन्‍हीं प्रतीकों में खोजेंगे तो वो आपको खूब मिलेगा बार बार मिलेगा बल्कि हर बार मिलेगा।

भ्रष्‍टाचार में सिर्फ भारत ही ऊंचे पायदान पर नहीं है जहां पर प्रतिवर्ष रावण के पुतले का दहन किया जाता है अपितु भारत से पहले और भी बहुत से देश हैं जिन्‍होंने भ्रष्‍टाचार की कला में बाजी मार रखी है और वो भी बिना रावण के। हमारे यहां तो रावण भी मौजूद है और जब रावण मौजूद है तो इसमें भला किसको संशय होगा कि रावणत्‍व भी अपनी समूची हैवानियत के साथ मिलता है। रावण को बुराई का प्रतीक या पुलिंदा मानते ही उसकी वृद्धि दिन चौगुनी रात चौंसठगुनी की रफ्तार से बढ़ने लगती है जैसे बुराईयां बढ़ती हैं और जैसे बढ़ती है महंगाई। जिस तरह बुरी ताकतों का समाज में हर तरफ बोलबाला है उसी तरह रावणत्‍व भी तेजी से फल फूल रहा है बल्कि यूं मानना चाहिए कि फूल फल रहा है आखिर पहले फूल ही तो बाद में फल बनेगा वैसे उलट भी चलेगा, फल है तो फूलेगा ही, फूल कर फुल कुप्‍पा भी होगा। यही कुप्‍पा होना या फूलना ही विस्‍तार पाना है।

आज रावण देशी आतिशबाजी से जल कर प्रसन्‍न नहीं होता न दर्शकों को जो मन से उसकी करतूतों के अनुनायी होते हैं उनको दिली खुशी मिलती है। सब चाहते हैं कि रावण के पुतलों के दहन में चीनी आतिशबाजी का भरपूर प्रयोग हो जो नाम के अनुरूप मीठी तो नहीं होगी परन्‍तु जब जलेगी, फूटेगी, चमकेगी तो मन में एक मिठाईयत को तुष्टि मिलेगी और यही तुष्टि पाना ही बुराईयत की जय जयकार है। स्‍वदेशी में नहीं विदेशी चीजों में इसीलिए जायका आता है और बढ़ चढ़कर आता है।

अगर रावणत्‍व को देवत्‍व मान लिया जाये तो उसके मिटने में पल भी न लगते। जिस तरह ईमानदारी का अस्तित्‍व मिटता जा रहा है, जिसे मिटाने में सभी सहभागी हैं, क्‍योंकि जहां पर लाभ मिले वहीं पर दिल लगता है जबकि दिल जलना चाहिये पर जलन किसे महसूस होती है। माल या नोट जैसे भी मिलें, सारी अच्‍छाईयों को हटाकर या भुलाकर ही मिलें, पर मिलें अवश्‍य तो मन में महसूसी जाने वाली ठंडक अपने परवान पर होती है। प्रतिवर्ष बिना पुतला जलाये भी रावण का अस्तित्‍व मिट जाता यदि उसे ईमानदारी माना जाता, जो आजकल तलाशने पर भी नहीं मिलती है, दिलों में घर करने के बजाय बेघर हो चुकी है और सपनों में भी दिखाई देनी दुर्लभ हो गई है और यदि कहीं छटांक भर दिखाई भी देती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं इसके अस्तित्‍व पर ही सवाल न उठने लगें वरना तो कब की लोप हो गई होती। थोड़ी बहुत नजर आती है तो वो भी इसलिए कि ईमानदारी होगी तभी तो बेईमानी या बुराईयों का तुलनात्‍मक बढ़ता ग्राफ समझ में आयेगा।

रावण को मान तो हम शेयर बाजार भी सकते हैं परन्‍तु वो आज तो गिर रहा है परन्‍तु कल फिर बढ़ता ही नजर आयेगा और ऐसा बढ़ेगा कि जो आज निवेश करके पछता रहे हैं वे ही कल यह कहकर कलपते नजर आयेंगे कि हाय, हम क्‍यों न निवेश कर पाये और यह ऐसा सेक्‍स है जो बढ़ता ही गया। जब गिरावट पर होता है तो करवटने का भी अवसर नहीं देता। बढ़ने पर लिपटने का नहीं देता मौका, यहां पर भी मिलता है धोखा। रावणीय शैली में कहें तो कभी एक सिर, कभी दस सिर, कभी पांच और कभी बेसिर तथा कभी दस सिरों की मौजूदगी के साथ पूरा सरदार बुराईयां बनती जाती हैं असरदार।

रावण को महंगाई जैसी बुराई भी नहीं मान सकते क्‍योंकि इसी महंगाई से न जाने कितनों को मिलती है मलाई और उनके खातों में आती है चिकनाई बेपनाह। यह हमेशा चढ़ती मिलती है, तीव्र विकास की ओर तेजी से अग्रसर। यहां पर तीव्र और तेजी दोनों का इकट्ठा प्रयोग गलती से नहीं किया गया है बल्कि एक दो और ऐसे शब्‍द डाले जाते तो वे भी नाकाफी ही होते। इतनी तेजी से चढ़ती है महंगाई। जरा जरा सी सब्जियां फूली पड़ती हैं जबकि फलों को ही है सिर्फ फूलने का अधिकार पर महंगाई की रंगत जब चढ़ती है तो क्‍या आलू, क्‍या प्‍याज, क्‍या टमाटर, अब तो घिये, तोरई, भिंडी तक भी औकात से बाहर की बात होती जा रही हैं। क्‍या आश्‍चर्य यदि निकट भविष्‍य में सब्जियां भी केले, संतरे जैसे फलों की तरह गिन गिन कर बिकने लगें। जब तुल कर बिक रही हैं तब तो खरीदने वालों की हालत पतली गली सी कर रही हैं, जब गिन कर बिकने लगेंगी तो हालत बंद गली ही न हो जाएगी। तब सिर्फ उगलते ही बनेगा पर जब निगला ही नहीं होगा तो उगलने से भी कुछ न हासिल होगा और उबलने की हिम्‍मत न होगी, खाली पेट में तूफान नहीं आ सकता है।

असल बात तो यह है कि रावण को चाहे कितना ही जलायें, पुतले बनाने पर कितना ही धन बहायें, पर मन से कोई नहीं चाहता कि अगली बार दशहरा न हो या रावण की स्‍मृति न आये। रावण की स्‍मृति ही राम की याद दिलाती है। रावण अगर सुख सरीखा हो जाये तो पल दो पल को सिर्फ चौंधियाएगा, अपनी पूरी फितरत में फिर कभी नजर न आयेगा। पर रावण दुख ही रहेगा जो सालों साल हमें सालता रहेगा, भुलाये न भुलाया जायेगा। यही रावणत्‍व का विस्‍तार है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। इतना सब होने पर भी रावण के सकारात्‍मक पहलुओं पर भी गौर किया जाना चाहिये, आप सोच रहे होंगे कि भला बुराई में क्‍या सकारात्‍मकता हो सकती है तो दिल थाम कर सुनिये, रावण में कितनी ही बुराईयां थीं, पर सिर्फ एक अच्‍छाई उसकी सभी बुराईयों पर भारी पड़ती है कि रावण ने सीता से कभी बलात्‍कार के विषय में सोचा भी नहीं, और यही एक उजला पक्ष है जो रावण को उसकी सारी हैवानियत, समूची बुराईयों, सभी कपटताओं से उपर खड़ा कर देता है और इसी एक कारण से उसका होना खलता नहीं है। उसके होने पर भी मलाल नहीं होता है। मन नीला लाल नहीं होता।

आयाम और भी हैं जल्‍दी ही ई रावण, ई महंगाई, ई बुराई, ई बेईमानी का वर्चस्‍व नजर आयेगा - तकनीकी से आखिर कोई कैसे और कितने दिन बच सकता है यानी बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी, एक न एक दिन तो धार पर आयेगी, पर फिर भी ई ईमानदारी कभी नजर नहीं आयेगी चाहे तकनीक कितनी ही बुलंदियों को क्‍यों न हासिल कर लें?

रविवार, 14 सितंबर 2008

कम से कम अंग्रेजी में न करें।

हिन्‍दी दिवस की सभी को बधाई
सभी देश व विदेश वासियों से एक निवेदन है कि
जब भी कोई नाम करण करें हिन्‍दी में ही करें या अपनी क्षेत्रिय भाषा में करें।
कम से कम अंग्रेजी में न करें। उदाहरण देकर बताता हूं।

दिल्‍ली में एक सड़क बनी उसका नाम रखा गया रिंग रोड, आज तक प्रचलित है।
इस सड़क पर चलने वाली बस को नाम दिया गया मुद्रिका और तीव्रमुद्रिका जिस रूप में नामकरण हुआ उसी रूप में प्रचलित हुआ। किसी भी जन सामान्‍य को कोई आपत्ति नहीं हुई।
और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं-
मिंटो ब्रिज रेलवे स्‍टेशन का नाम बदला गया शिवाजी ब्रिज। ये कमी क्‍यों छोड़ दी गयी, ब्रिज की जगह सेतु या पुल का प्रयोग क्‍या बुरा था। इसी तरह हार्डिंग ब्रिज को तिलक सेतु या तिलक पुल के बजाय तिलक ब्रिज नाम दिया गया। कहने को यूं कहा जा सकता है कि दोनों स्‍टेशनों के नाम का स्‍वदेशीकरण तो कर दिया गया पर पूरी तरह हिन्‍दीकरण नहीं किया गया ।
ये सभी उदाहरण सामान्‍य से लगते हैं पर ये हैं बड़े महत्‍वपूर्ण। अगर इन छोटी छोटी बातों पर ध्‍यान दिया जाये तो हिन्‍दी को अपना बर्चस्‍व बनाने में देर नहीं लगेगी।
इसी प्रकार क्षेत्रिय भाषाएं भी अपना योगदान नामकरण में अवश्‍य करें।
आजकल लोग मार्किट जाते हैं हाट या बाजार नहीं जाते। लोग भूल गये हैं दियासलाई को।
एक और रोचक बात दालमखनी ढाबे में है होटल में भी है, दालबटरी नहीं है। अंत में मेरे कहने का मतलब है,
कि मेरे देशवासियों नामकरण करते समय इस बात पर अवश्‍य गौर किया जाना चाहिए। धन्‍यवाद और फिर से शुभकामनाएं।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

अंतिम इच्‍छा नेता की

निसदिन विनती करूं तुम्‍हारी, निसदिन तुमको ध्‍याऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


आजादी पाने की खातिर अंग्रेजों से नहीं लड़ा था
मरने वाले थे आगे मैं सबसे पीछे दूर खड़ा था
आजादी मिलते ही हमने एक इलेक्‍शन तभी लड़ा था
संसद में आते ही फिर मैं कुर्सी खातिर खूब लड़ा था

लड़ता था, लड़वाता था, अब सबको खूब लड़ाऊं में
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


जनता ने देकर वोटों से किस्‍मत की खिड़की खुलवा दी
पहले शासक की जमी जड़ें पल भर में जिसने हिलवा दी
धन्‍यवाद उस जनता को जिसने ये कुर्सी दिलवा दी
सत्‍ता रूपी मदिरा की दो घूंट मुझे भी पिलवा दी

पी पीकर ये घूंट मजे से फिर अपना हुक्‍म चलाऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


हो जाये गर ऐसा ही मैं भवसागर से तर जाऊं
राजघाट और विजयघाट सा घाट एक बनवा जाऊं
सरकारी शमशान घाट पर अपना नाम लिखा जाऊं
अंतिम इच्‍छा है बाकी बस कुर्सी पर ही मर जाऊं

मरूं जेल में सड़ सड़ कर इस झंझट से बच जाऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

याद आता है बचपन

मुझे बचपन खूब याद आता है। मैं बहुत छोटा था। हर रोज शाम को एक घर से धुंआ उठता देख पड़ोस वाले भी दोड़ पड़ते थे, हाथ में एक करसी *उपले का टूटा हिस्‍सा* लेकर। आग मांगने के लिए। यही परम्‍परा थी, रिवाज था चूल्‍हा जलाने का और पेट की आग बुझाने का। कहने का मतलब पेट की आग बुझाने के लिए आग बंटती थी। इस आग बंटने के बाद सब समझ जाते थे कि कहां कहां आग जल रही है और कहां नहीं। जहां नहीं जल पाती थी तो वहां की व्‍यवस्‍था गांव के लोग या कहें पड़ोस वाले संभाल लेते थे। लेकिन आजकल ---

पड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।

रविवार, 24 अगस्त 2008

विचारों के खरीदार तुरंत संपर्क करें

http://avinashvachaspati.blogspot.com/

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मैं हूं विचार बेचने के लिए तैयार
जो हों खरीदार करें संपर्क

आरकुट पर मेरा आज का भाग्‍य
यही बतला रहा है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

हम क्‍यों मरें

मैं था एक छोटा सा बच्‍चा। भूख लगी थी। मैं जिद कर रहा था खाना खाने के लिए। खैर, बड़ी बहन ने चूल्‍हा जलाया। आज की तरह गैस की व्‍यवस्‍था नहीं थी। चूल्‍हे में उपले ' गोसे ' फोड़ कर झीना लगाना और सुलगाना पूरा समय लेता था। भूख में इंतजार करना काफी कष्‍टकारी हो रहा था। जैसे ही पहली रोटी बेली जाने लगी तैसे ही एक बुरी खबर मिली बराबर वाले घर में हमारी बुढि़या ताई चल बसीं। बड़ी बहन ने तुरन्‍त चूल्‍हे से तवा उतार दिया और आग बुझा दी। इधर मैं जीवन मृत्‍यु के भेद से अनजान भूख को ज्‍यादा तरजीह दे रहा था और अपनी बड़ी बहन से जिद कर रहा था कि खाना दो। ज्‍यादा जिद करने पर मुझे डाट कर चुप करा दिया गया। यह घटना सिर्फ हमारे ही घर नहीं बल्कि पूरे गांव में किसी के घर भी खाना तब तक नहीं बना जब तक ताई जी का अंतिम संस्‍कार नहीं हो गया। घर के सभी सदस्‍यों ने मेरी भूख को बड़ी निष्‍ठुरता से तिरकृत कर दिया था। मुझे बड़ा अजीब सा प्रतीत हो रहा था। मैं ऐसे व्‍यवहार की आशा कर ही नहीं सकता था। खैर अब मुझे खाना कब मिला ये बाद में बता दूंगा अब दूसरी बात सुनिये।

मैं अब दिल्‍ली शहर में रहता हूं। एक दिन मैं अपने एक जानने वाले देव कुमार जी के यहां गया हुआ था। उनके यहां चाय पी ही रहे थे कि अचानक उनके पड़ोसी का देहांत हो गया। खबर मिलते ही उन्‍होंने पत्‍नी से कहा --
बेगम ऐसा करो जरा जल्‍दी से आलू के परांठे सेक दो, पता नहीं शमशान घाट में कितनी देर लगे। अभी तो इनके रिश्‍तेदार आएंगे।‍ फिर कहीं अर्थी उठेगी तब तक कौन भूखा मरेगा। मरने वाला तो मर ही गया। हम क्‍यों मरें।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजादी या भविष्‍यवाणी

पुराने ज़माने के बच्चे, बच्चे नहीं थे
उनके संस्कार भी अच्छे नहीं थे
या उनकी नैतिक शिक्षा मैं कमी थी
या जहाँ वो जन्मे थे ज़हरीली ज़मीं थी
क्योंकि जो बात नेहरू ने -
पिछली सदी मैं कही थे
बिल्कुल सही थी
वरना कोई भी कैसे कह देता
आज के बच्चे, कल के नेता

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

हां आ गया मैं भी और मेरा लैपटाप भी हां आ गया मैं और मेरा लैपटाप भी

प्रिय मित्रो
मैं भी वायरल से दो दो हाथ कर रहा था
और मेरा लैपटाप भी
अब आज हम दोनों स्‍वस्‍थ हैं
दोनों एक दूसरे को देखकर मस्‍त हैं
अब फिर होगी मुलाकात
फिर होगी कुछ बात
बना रहे आपका प्‍यार
संपर्क बना रहेगा लगातार
बाकी कल
अब नमस्‍कार

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

सर्वोत्‍तम विश्‍व मित्रता सप्‍ताह

अपने दुश्‍मन को मित्र बनाने के हजार अवसर दो लेकिन अपने मित्र को दुश्‍मन बनने का एक भी मौका मत दो।
यह विश्‍व मित्रता सप्‍ताह है।
इस संदेश को अपने सभी मित्रों को तो भेजे हीं, दुश्‍मनों को भेजना भी मत भूलें।
मुझे भी अवश्‍य भेजें।
यदि आपको 10 से अधिक उत्‍तर प्राप्‍त होते हैं तो आप लवेवल अवेलेवल इंसान हैं ......... मुझे इंतजार रहेगा ......
आपके प्‍यारे से मित्रता संदेश का सर्वोत्‍तम विश्‍व मित्रता सप्‍ताह के पावन अवसर पर।

बुधवार, 16 जुलाई 2008

द्रोपदी राजी हुई हर हाल में

गीत लिखें हैं सभी धर्मों ने कुछ
बंध न पाये हैं कभी सुर-ताल में

एक की पत्‍नी बने या पांच की
द्रोपदी राजी हुई हर हाल में

गलतियां किसने करी कैसे हुईं
मंदोदरी विधवा हुई हर काल में

हर बार देखी है बदल कर दोस्‍तो
कुछ न कुछ कंकड़ मिले हर दाल में

लाख चौकस हो रहे हैं हर कदम
कुछ न कुछ धोखा हुआ हर माल में

आ गये ऋतुराज भी हर बार ही
कोंपलें फूटी नहीं हर डाल में

खूब फैंको प्‍यार से मनुहार से
मछलियां फंसती नहीं हर जाल में

वोट देना है संभलकर दोस्‍तो
भेडिये दिखते हमें हर खाल में

मंगलवार, 24 जून 2008

पाबंदी

सदन में जूते चप्‍पल चलाने की
क्‍या तुकबंदी है
जवाब मिला--
हथियार ले जाने पर पाबंदी है

रविवार, 15 जून 2008

आरुषि हत्‍याकाण्‍ड

कौन जाने क्‍या हुआ कैसे हुआ
आरुषि की मौत ने दिल को छुआ
प्रश्‍न जो उत्‍तर बिना हैं आज तक
क्‍यों मसल डाली कली कचनार की

कौन कहता आरुषि तू मर गयी
खूबसूरत जिंदगी से डर गयी
हर वक्‍़त रहती है नज़र के सामने
रोज बनती है खबर अखबार की

रविवार, 8 जून 2008

तितली की सलाह

तितली तू क्‍या खाती है, ये रंग कहां से लाती है
कर श्रंगार दुल्‍हन जैसा, तू रोज कहां पर जाती है

क्‍यों प्रश्‍न उठा तेरे मन में, मैं जाती हूं वन-उपवन में
ये असर हुआ है फूलों का जो रंग भरें मेरे जीवन में

तुम भी उपवन तैयार करो फूलों पौधों से प्‍यार करो
जीवन में रंग सजेंगे खुद तुम जीवों पर उपकार करो

शनिवार, 31 मई 2008

लोग कहते हैं, ये तो कहते ही रहेंगे

करने को हाथ पीले बाबुल का भाग्‍य कैसा
देता दहेज वर को लेकर उधार पैसा
वो कर्ज में दबेगा ये नोट हैं लुटाते
खुलती है रम की बोतल लब जा़म से लगाते
यूं ही सब पैसे की बरबादी हो रही है
लोग कहते हैं
शादी हो रही है

शुक्रवार, 30 मई 2008

फिर वही ' लोग कहते हैं'

अब तक स्‍वछंद चिड़िया आजाद इस गगन में
उड़ चली उधर ही जहां चाह आयी मन में
बंध गयी है उसकी उड़ानों की सीमा
एक अदद प्राणी से बंधकर है जीना
खतम आज उसकी भी आजादी हो रही है
लोग कहते हैं
शादी हो रही है।

गुरुवार, 29 मई 2008

फिर वही ' लोग कहते हैं'

अब तक स्‍वछंद भंवरा, हर डाल पे चमन में
गाता रहा सुरीले हर गीत निज लगन में
फंस गया भंवर में भंवर भोला भाला
किया कैद उसको एक कली ने डाल माला
खतम आज उसकी आजादी हो रही है
लोग कहते हैं
शादी हो रही है।

गुरुवार, 15 मई 2008

लोग कहते हैं लोग कहते हैं

तपती हुई प्रकृति गर्मी से झुलसकर,
सावन के आते ही वसुधा पे उतरकर
बादल की मशक लेकर तन मन को धो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है।

कुरूप हो न जाए जो हो गया है मैला
मौसम की धूल का न रहे दाग पहला
वसुंधरा अपने दामन को धो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है।

चांद और बदली में हो गयी खटपट
रूठी हुई बदरिया सूरज से करके घूंघट
सिसकियां भर भर के रो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है।

शनिवार, 3 मई 2008

जानवरी ठिठोली

हाथी, ऊंट से
हाथी बोला ऊंट से तुम क्‍या लगते हो ठूंठ से
कमर में कूबड़ कैसा है गला गली के जैसा है
दुबली पतली काया है कब से कुछ नहीं खाया है
हर कोने से सूखे हो लगता बिलकुल भूखे हो
कहां के हो क्‍या हाल है लगता पड़ा अकाल है
ऊंट, हाथी से
ऐ भोंदूमल गोलमटोल मोटे तू ज्‍यादा मत बोल
सबसे ज्‍यादा खाया है तू खा खाकर मस्‍ताया है
फसलें चाहे अच्‍छी हों गन्‍ना हो या मक्‍की हो
तेरे जैसे हों दो चार तो हो जायेगा बंटाढार
जैसा अपना इण्डिया गेट देख देखकर तेरा पेट
समझ गये हम सारा हाल क्‍यों पड़ता है रोज अकाल
सब कुछ तू खा जायेगा तो ऊंट कहां से खायेगा

रविवार, 13 अप्रैल 2008

एक पत्रिका में पढ़ा

भारत की जनसंख्‍या 100 करोड़
इनमें से 19 करोड़ रिटायर्ड लोग हैं
यानि काम करने वाली आबादी महज 81 करोड़
25 करोड़ बच्‍चे स्‍कूल में हैं,
बचे छप्‍पन करोड़
इनमें 22 करोड़ तो केन्‍द्र सरकार के कर्मचारी हैं, अर्थात काम करने वाले तो 34 करोड़ ही होंगे
इनमें से भी 4 करोड़ देश की रक्षा में तैनात हैं
बचे हुए 30 करोड़ में से 20 करोड़ लोग राज्‍य सरकारों के मुलाजिम हैं और ऑफिस में काम होता ही कहां है।
तो 10 करोड़ ही बचे
आंकड़े बताते हैं कि भारत में 8 करोड़ बेरोजगार हैं, यानि उनके पास काम नहीं है।
बचे मात्र दो करोड़
अभी पढ़ रहा था कि हर समय देश में 1 करोड़ 20 लाख लोग अस्‍पतालों में भर्ती होते हैं।
फिर तो 80 लाख ही बचे
भारतीय सांख्यिकी विभाग की रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश में 79, 99, 998 लोग जेल में हैं।
यानि कि काम करने वाले तो मात्र दो आदमी हैं।
और भाई मेरे, दो भी कहां तुम तो मेरी लिखी यह बकवास पढ़कर वक्‍त बरबाद कर रहे हो।
तो, इतना बड़ा देश और सारे काम का बोझ अकेले मुझ पर । मार डालोगे मुझे । और अगर मैं मर गया तो देश का क्‍या होगा । नहीं, मैं यह खतरा मोल नहीं ले सकता । मुझे भी थोड़ा आराम कर लेना चाहिए ।

रविवार, 6 अप्रैल 2008

सोमवार, 31 मार्च 2008

बेतुके सरकारी आदेश

ये बात हमारे गले नही उतर रही
कि जो कलैण्‍डर जनवरी में प्रकाशित किये गये थे उन सभी को रद्द कर दिया जायेगा और कल से नये कलैण्‍डर प्रयोग में लाए जाएंगे । कारण जो दिया गया है वह भी समझ से परे है कि इस साल मार्च का महीना 32 दिन का होना था । गलती से 31 दिन का छाप दिया गया है । इसके पीछे वैज्ञानिक कारण दिया जा रहा है ब्‍‍लोगल वार्मिंग । ऐसा मान लिया गया है कि वैज्ञानिक इस ब्‍लोगल वार्मिंग से निजात पाने के लिए जी जान से जुट गये हैं। पृथ्‍वी की गति कुछ धीमी हो गयी है जिस कारण ऐसा किया गया है । मीडिया भी इस बात को बेवजह तूल दे रहा है कि जो काम सरकार को दिसम्‍बर में करना था उसे अब मार्च में करने की क्‍या तुक है । आप भी अपने विचार दे सकते हैं।

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

अंधेरा

एक प्रश्‍न है मेरा

क्‍या आपने देखा है कभी अंधेरा
बड़े बड़ों ने हां ही कहा है
लेकिन मैंने नहीं कहा है

अंधेरा कैसा है समझ नहीं आया

प्रयास किया पर देख नहीं पाया
क्‍योंकि ये सत्‍य है
और वैज्ञानिक तथ्‍य है
कोई भी किसी वस्‍तु को
तभी देख पाता है
जब वस्‍तु से प्रकाश परावर्तित हो
उसकी आंख तक आता है
लेकिन प्रकाश के आते ही
अंधेरा तो दुम दबाकर भाग जाता है
और
कोई भी प्रकाश किरण
करती हुई विचरण
कहीं से चकराकर
अंधेरे से टकराकर
नहीं लौट पाती
इसीलिए हमारी आंख
अंधेरे को नहीं देख पाती
या फिर अंधेरा कोई वस्‍तु नहीं है
और भौतिक शास्‍त्र का ये नियम
अंधेरे पर लागू नहीं है
बोलो समझ गये
या उलझ गये
चलो तो
अब बताओ सही सही
आपने अंधेरे को देखा या नहीं
नहीं न ।

शनिवार, 22 मार्च 2008

होली की शुभकामनाएं

आओ प्रतिज्ञा करें होली पर
हम उन लोगों पर कीचड़ नहीं उछालेंगे
जिनके चेहरे पहले से ही काले हैं
कारण ये नहीं है, कारण कुछ और है
आखिर कीचड़ की अपनी इज्‍जत का सवाल है

बुधवार, 12 मार्च 2008

रहस्य

मुनिया स्याणी हो गयी
गूंज उठा जनमंच
इस दुनिया के सामने
चलता नहीं प्रपंच
बाप छिपाता फिर रहा
फैले न ये बात-
क्यों बुधिया के द्वार पर
आया था सरपंच ।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

होली

चिंता न करना प्रिये ये होली के ढंग
बिन साबुन उड़ जाएंगे मंहगाई के रंग

सोमवार, 21 जनवरी 2008

फुरसत, फुरकत या उलफत

दीप चंद सावन .. [गीत गुनगुनाते हुए] दिल ढूंढता है फिर वही फुरकत के रात दिन
मैंने कहा आता नहीं तो क्यों गाते हो,
फुरसत को फुरकत क्यों कहते हो
लेकिन वह मान नहीं रहा था
बहस को बढ़ता देख हमने किसी तीसरे से फैसला कराने का मन बनाया
खास बात ये कि हम दोनों को उर्दू का ज्ञान किसी को नहीं था
एक राहगीर से
आप गाने सुनने के शौकीन हैं
उसने हां में सर हिलाते हुए कहा बोलो क्या बात है
क्या आपने वह गाना सुना है--. दिल ढूंढता है फिर वही--.इससे आगे बताओ क्या आता है
बोला-. दिल ढूंढता है फिर वही उलफत के रात दिन
हम दोनों उसका मुंह ताकते रह गये।

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

बर्ड फ्लू

बर्ड फ्लू के कारण आदमी हमें नहीं खायेगा, सोच सोच कर मुर्गियाँ खुश थीं, इनकी खुशी देख कर मुर्गा सोच रहा था और कह रहा था-

मुर्गा बोला मुर्गियो कौन खुशी की बात
जिंदा तो छोड़े नहीं ये आदम की जात

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

बत्तीसी

एक खबर आई, एक खबर आई
शहर के मशहूर दंत चिकित्सक ने
बत्तीसी लगवाई

शनिवार, 12 जनवरी 2008

भविष्यवाणी

पुराने ज़माने के बच्चे, बच्चे नहीं थे
उनके संस्कार भी अच्छे नहीं थे
या उनकी नैतिक शिक्षा मैं कमी थी
या जहाँ वो जन्मे थे ज़हरीली ज़मीं थी
क्योंकि जो बात नेहरू ने -
पिछली सदी मैं कही थे
बिल्कुल सही थी
वरना कोई भी कैसे कह देता
आज के बच्चे, कल के नेता