है कोई माई का लाल
अब इसे चुटकुला कहें या रोचक घटना। सुना है अमेरिका में एक चोर पकड़ने वाली मशीन बनाई गयी। उसने अमेरिका में एक घंटे में 70 चोर पकड़े। आस्ट्रेलिया वालों ने उसे चैक किया तो हैरान रह गये क्योंकि उनके यहां उसने एक घंटे में ही 90 चोर पकड़ डाले। चीन ने भी उसे आजमाया और पाया कि मशीन हर घंटे सौ-सौ चोर पकड़ रही है। विदेशियों की ये तरक्की देख कर भारत में भी मशीन मंगवाने की योजना बनाई गयी। योजना बनी और मशीन आ भी गयी। पर ये क्या.....आते ही मशीन गायब। काफी खोजबीन के बाद पता चला कि मशीन चोरी हो गयी। अब मशीन को चोर नहीं छोड़ना चाहता और मशीन, चोर को। दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं और जकड़े हुए हैं। न मशीन मिल रही, न चोर। विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। इससे भी ज्यादा विचित्र ये है कि कोई भी इस मशीन को ढूंढ़ना नहीं चाहता है। मैं भी नहीं। बता रहा हूं.... बचपन में एक दिन मैंने पड़ोसी के दूध की मलाई चुरा कर खाई थी। मेरी उस गरम दूध से उंगलियां भी जल गयीं थीं। पिटाई हुई मेरे ही एक साथी की। समझ गये? मैं उस भेद को क्यों खुलने दूं? साथी की नाराजगी क्यों मोल लूं । दूसरा नंबर है मेरी बीवी का। वह भी इस मशीन को तलाशना नहीं चाहती क्योंकि उसने भी तीस साल पहले मेरा दिल चुराया था। सिर्फ दिल ही नहीं उसने तो मुझे पूरे को ही चुरा लिया था। उसे भी डर है कि कहीं मशीन उस मशीन-चोर को छोड़कर उसे ही न पकड़ ले। तीसरा नंबर है देश की पुलिस का, जो समाज में कानून व्यवस्था कायम करती है। लेकिन हमारी भारतीय पुलिस समझदार है, क्यों फटे में पांव डाले। आप सब जानते हैं। क्यों मुझसे सच्चाई से पर्दा हटवाना चाहते हो। मैं आप ही से पूछता हूं ..... है कोई, जो अचोर हो? देश का सौभाग्य है कि देश के लीडरान, प्रदेशों के मुखिया भी इस केस में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। वरना कौन बचता लीडरी को? देश लीडर विहीन हो जाता। कौन शर्मसार करता गिरगिट को? रंग बदलने में लीडरों ने ही तो गिरगिट का एकाधिकार तोड़ा है।
मशीन न रिश्वत लेती न शिफारिश मानती और देश की जेलें वैसे ही फुल हैं। सब मन ही मन वैज्ञानिको को कोस रहे हैं कि, कुछ ज्यादा ही खतरनाक मशीन बना डाली है। इतने खतरनाक तो परमाणु हथियार भी नहीं हैं। कायदे से तो वैज्ञानिकों को ऐसी मशीन ईजाद करनी चाहिए जिससे शरीफ आदमियों को पकड़ा जा सके। न जाने कब, कोई शरीफ आदमी खतरा पैदा कर दे और मशीन को ढूंढ़ने का बीड़ा उठा ले। मैंने अपने अड़ोस-पड़ोस में ढिंढोरा पिटवा दिया है कि, आये कोई माई का लाल सामने, जो इस बेशकीमती मशीन को तलाशने की चुनौती स्वीकार करे, और उस मशीन-चोर की जान बचाने का शुभकार्य संपन्न करे तथा मशीन द्वारा स्वयं के पकड़े जाने से न डरे। मैंने ऐसा कर तो दिया है लेकिन अब सभी मोहल्ले वाले कन्नी काटने लगे हैं। मुझे देखते ही सब लोग कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्होंने मुनादी सुनी ही न हो। पाठकों, है कोई मुनादी सुनने वाला?
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रविवार, 31 मई 2009
बुधवार, 27 मई 2009
गर्मी का असर
निर्जल नदिया हो गयी सूख गये सब कूप
मारी मारी फिर रही विचलित प्यासी धूप
गर्मी के हथियार से सूरज करता चोट
सिकुड़ सिकुड़ छाया छुपै ले तरूवर की ओट
सास बहू पर कर रही जो निर्मम अन्याय
धूप धरा पर मारती कस कस कोड़े हाय
पत्ता पत्ता तप रहा चढ़ता ताप असीम
शीतल कैसे हों भला क्या चंदन क्या नीम
मारी मारी फिर रही विचलित प्यासी धूप
गर्मी के हथियार से सूरज करता चोट
सिकुड़ सिकुड़ छाया छुपै ले तरूवर की ओट
सास बहू पर कर रही जो निर्मम अन्याय
धूप धरा पर मारती कस कस कोड़े हाय
पत्ता पत्ता तप रहा चढ़ता ताप असीम
शीतल कैसे हों भला क्या चंदन क्या नीम
शनिवार, 16 मई 2009
नर में वो बात कहां..... जो वानर में है।
एक दिन नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म दो पर पलवल शटल में बैठा मैं गाड़ी चलने का इंतजार कर रहा था। प्लेटफार्म एक पर भी एक गाड़ी चलने के लिए तैयार खड़ी थी। तभी अचानक एक जोरदार धमाके के साथ एक बंदर दोनों गाडि़यों के बीच वाली लाइन पर आकर गिरा। ध्यान से देखा तो पता चला कि ये बंदर महाशय पच्चीस हजार वोल्ट के सप्लाई वाले खंबे पर चढ़ गये और झुलस कर आ गिरे हैं।
देखते ही देखते बंदरों का हुजूम इकठ्ठा हो गया। छोटे बंदर कांप भी रहे थे। तभी अचानक प्लेटफार्म एक वाली गाड़ी चली गयी। उसके बाद का नजारा तो देखने लायक था। जो बंदर उस घायल बंदर को नहीं देख पा रहे थे और बेहद गुस्से में थे। सच में उन दर्शक बंदरों का गुस्सा देखते ही बनता था। प्लेटफार्म एक के शेड के ऊपर बैठे बंदर वहां लगे एनाउंसमैंट स्पीकर की आवाज भी नहीं सहन कर पा रहे थे, उनका साथी जो घायल पड़ा था। नतीजा ये हुआ एक बुजुर्ग सा बंदर आया और उसने स्पीकर की तार का खींचना शुरू किया और तब तक खींचता रहा जब तक स्पीकर की तार टूट नहीं गयी। स्पीकर शांत हुआ तो बंदर का थोड़ा गुस्सा शांत हुआ। इसी बीच रेलवे लाइन पर पड़े उस घायल बंदर तो बंदरों के हुजूम ने घेर लिया था और किसी भी आदमी को पास नहीं फटकने दे रहे थे। तभी अचानक मेरी गाड़ी भी चल पड़ी और मैं आगे क्या हुआ होगा, नहीं देख पाया।
जाते जाते एक विचार बार बार मन में घुमड़ रहा था ... काश इंसान इस बड़े शहर में इन बंदरों से कुछ सीख ले। मुझे एक शेर याद आता है शायद ये महान शायर बशीर बद्र का है, हो सकता है गलत भी हो, भूल सुधार कर लेना।
लगता है शहर में नये आये हो
रूक गये जो हादसा देखकर
मेरा तो यही विचार है कि शहरी संस्कृति में अपनत्व कहीं खो गया है।
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देखते ही देखते बंदरों का हुजूम इकठ्ठा हो गया। छोटे बंदर कांप भी रहे थे। तभी अचानक प्लेटफार्म एक वाली गाड़ी चली गयी। उसके बाद का नजारा तो देखने लायक था। जो बंदर उस घायल बंदर को नहीं देख पा रहे थे और बेहद गुस्से में थे। सच में उन दर्शक बंदरों का गुस्सा देखते ही बनता था। प्लेटफार्म एक के शेड के ऊपर बैठे बंदर वहां लगे एनाउंसमैंट स्पीकर की आवाज भी नहीं सहन कर पा रहे थे, उनका साथी जो घायल पड़ा था। नतीजा ये हुआ एक बुजुर्ग सा बंदर आया और उसने स्पीकर की तार का खींचना शुरू किया और तब तक खींचता रहा जब तक स्पीकर की तार टूट नहीं गयी। स्पीकर शांत हुआ तो बंदर का थोड़ा गुस्सा शांत हुआ। इसी बीच रेलवे लाइन पर पड़े उस घायल बंदर तो बंदरों के हुजूम ने घेर लिया था और किसी भी आदमी को पास नहीं फटकने दे रहे थे। तभी अचानक मेरी गाड़ी भी चल पड़ी और मैं आगे क्या हुआ होगा, नहीं देख पाया।
जाते जाते एक विचार बार बार मन में घुमड़ रहा था ... काश इंसान इस बड़े शहर में इन बंदरों से कुछ सीख ले। मुझे एक शेर याद आता है शायद ये महान शायर बशीर बद्र का है, हो सकता है गलत भी हो, भूल सुधार कर लेना।
लगता है शहर में नये आये हो
रूक गये जो हादसा देखकर
मेरा तो यही विचार है कि शहरी संस्कृति में अपनत्व कहीं खो गया है।
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शनिवार, 9 मई 2009
बीत गया वो जमाना
डाकिया आता था
एक थैला लाता था
मोहल्ला जुटता था
जिज्ञासा और आशा
के बीच हरेक आनंदित होता था
डाकिया पता पूछता तो हर कोई
घर तक छोड़ आने को तैयार होता था
अपने आप को धन्य समझता था
आज
पहली बात तो डाकिया नहीं आता
कोरियर आता है
वह पता पूछता है
तो कोई नहीं बताता
पड़ोस में कौन रहता है
कोई नहीं जानता
खुश होना तो दूर की बात है
सच में ये खुशियां दूर चली गयीं हैं
अब न डाकिया है, न उसका इंतजार है
शहरीकरण जो हो गया है
एक थैला लाता था
मोहल्ला जुटता था
जिज्ञासा और आशा
के बीच हरेक आनंदित होता था
डाकिया पता पूछता तो हर कोई
घर तक छोड़ आने को तैयार होता था
अपने आप को धन्य समझता था
आज
पहली बात तो डाकिया नहीं आता
कोरियर आता है
वह पता पूछता है
तो कोई नहीं बताता
पड़ोस में कौन रहता है
कोई नहीं जानता
खुश होना तो दूर की बात है
सच में ये खुशियां दूर चली गयीं हैं
अब न डाकिया है, न उसका इंतजार है
शहरीकरण जो हो गया है
कोरियर वाला आता है
उसे डाकिया का दर्जा कतई नहीं दिया जा सकता
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