बुधवार, 22 दिसंबर 2010
हरिभूमि में प्रकाशित एक व्यंग्य हरी बत्ती हो गयी
मैं उस समय बहुत दुखी होता हूं जब देश की राजधानी की लाल बत्तियों पर भिखारी मुझे खारी-खारी नजरों से देखते हैं। दूर-दूर रहते हैं। बड़ी-बड़ी कारों के काले शीशों के अंदर झांकने का प्रयास करते हैं। किसी का शीशा खुल जाता है किसी का नहीं खुलता। मैं उन शीशों को और दस या बीस का नोट बाहर आते तथा भिखारी को लपकते देखता हूं। दिल से एक टीस सी उठती है। थोड़ा अपमानित सा महसूस करता हूं। आखिर मैं भी कार में हूं। फिर मेरे प्रति इतना अन्याय या बेरुखी क्यों ? मैं सोचता हूं .... काश मैं भी शीशा खोलता। कभी कभी ख्यालों को वास्तविक जानकर खोला भी, पर ठण्डी हवा के झोंके ने भ्रम तोड़ दिया। शीशे के पास कोई भिखारी नहीं था। भिखारिन भी दूर से मुंह बिचका रही थी। शायद मेरी गाड़ी में पड़े डेंट देखकर.... जैसे डेंट, मेरी गाड़ी पर न होकर पर्स पर हों। हो सकता है मेरे चेहरे पर कोई डेंट दिख गया हो। इसी शंका में तो मैं रियर व्यू मिरर की हैल्प लेता हूं और एक तसल्ली भरी सांस अंदर खींच लेता हूं कि उम्र अभी अपने संपूर्ण माह की बीस या इक्कीस तारीख से आगे नहीं गयी है। वैसे मुझे अभी भारतीय रेल ने भी हरी झण्डी नहीं दिखाई है। अब मैं अक्सर लाल बत्तियों पर शीशे खोलकर रखने लगा हूं। काश कोई भिखारी आए...हाथ फैलाए और मैं गर्व से सुर्खरु हो जाऊं कि जमाना ही नहीं, हम भी हैं। लेकिन अब तक, सब निरर्थक। गाड़ी छोटी जो है। इन बड़ी गाडि़यों से कभी-कभी सौ-सौ या पीले और लाल रंग के नोट भी दिखे हैं, तब तो मुझे यकीन हो जाता है कि जरूर इसमें कोई ‘राजा’ ही होगा। पत्नी भी बराबर में बैठी मन ही मन तोहीन महसूस कर रही थी कि, किस कर्तव्यनिष्ठ के पल्ले पड़ गयी। आज तक किसी रेलगाड़ी को भी स्पैक्ट्रम नहीं बना पाया। गाड़ी और डिब्बे की छोड़ो, एक अदद सीट भी नहीं हथिया सके। एक वो हैं जो पूरा इंद्रधनुष ही सटक गये। एक-आध सीट बिकवा देते तो मोहल्ले में थू-थू तो होती। अखबारों में खबरें छपतीं। जमाने की नहीं तो गली मोहल्ले वालों की ही सही, हमारी तरफ उंगलियां तो उठती। और हम उन उठती उंगलियों की परवाह किये बगैर बड़ी ढीटता से रह रहे होते। कैसा पति है, ऐसा-वैसा कुछ किया होता, तो गर्व होता। खुद भी राजा होते और मैं भी.... इतना सोचते हुए पत्नी ने कुपित दृष्टि से घूरा। नज़रों को भांप कर मैंने समझाया....मैं, कम से कम तेरे पास तो हूं...वरना डासना की जेल देखी है? और तिहाड़ तो उससे भी भयानक दिखती है। मैं समझा ही रहा था कि पीछे से सीटी बजी। पुलिस वाला कह रहा था हरी बत्ती हो गयी- चलिये, ट्रैफिक जाम न करिये।
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
सर्दी के दोहे
धुंध ओढ़कर आ गयी भयाक्रांत सी भौर
सूरज कोहरे में छिपा हुआ चांद सा रूप
शरद ऋतु निष्ठुर हुई भागी डरकर धूप
सूरज भी अफसर बना, है मौसम का फेर
जाने की जल्दी करे और आने में देर
दिन का रुतबा कम हुआ, पसर गयी है रात
काटे से कटती नहीं, वक्त-वक्त की बात
बुधवार, 24 नवंबर 2010
रविवार, 14 नवंबर 2010
उड़न तश्तरी
शनिवार, 13 नवंबर 2010
हिन्दी ब्लॉग विमर्श : मैं तो खैर नहीं आ पाया : अविनाश वाचस्पति ने जो कहा, उसे यूं ही उठा लाया
कार्यक्रम के प्रारंभ में खुशदीप सहगल के पिताजी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया और खुशदीप सहगल, चंडीदत्त शुक्ल, शिवम् मिश्रा और विवेक रस्तोगी ने फोन पर आयोजन के लिए शुभकामनाएं दीं।
भाई समीरलाल जी और उनके ब्लॉग उड़नतश्तरी का भारत की राजधानी के दिल कनाट प्लेस में हार्दिक स्वागत है। पुष्पों से किया जा चुका है और यह शाब्दिक है। शाब्दिक की अपनी सत्ता है। आपका सबका भी हार्दिक अभिनंदन करता हूं। प्रत्येक इकाई अपने आप में महत्वपूर्ण और शक्तिशाली है। आज आप सबको मध्य पाकर पूरा हिन्दी ब्लॉग जगत प्रफुल्लित है, खुशियों से झूम रहे हैं सब। हमारा आपका सबका मिलना बतला रहा है कि आज मानव तकनीकी तौर पर कितना समुन्नत हो चुका है। पहले हमख्यालों की जानकारी भी नहीं मिलती थी और आज हमविचार विश्व की चहार दीवारियों को फर्लांग कर एक छत के नीचे मिल बैठ रहे हैं। पहले यह छत आसमान हुआ करती थी, इसलिए दूरियां थीं। आज की छत इंटरनेट है, दूरियां नहीं हैं। आपसी संवाद बहुत तेजी से बढ़ा है। यह सब शुभसूचक है।
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
उड़नतश्तरी दिल्ली में देखी गई : आपका नाम तो सूची में है न
इस कार्ड के पिछली ओर और भी बहुत सारे हिन्दी
ब्लॉगरों के नाम प्रकाशित हैं, जानने के लिए कार्ड को पलट कर
देखें।
कल दिल्ली के हरियाणा भवन में कनाडा से आई उड़नतश्तरी देखी गई है। ऐसी विश्वसनीय खबरें निरंतर मिल रही हैं। उड़नतश्तरी से भाई समीर लाल जी निरंतर हिन्दी ब्लॉगरों से फोन पर संपर्क में हैं। जो नंबर जानते हों, कृपया उनका नंबर बतलाने का कष्ट करें। वैसे शनिवार 13 नवम्बर 2010 को कनाट प्लेस के शिवाजी स्टेडियम के सामने दीवान चंद्र ट्रस्ट, 2, जैन मंदिर रोड में सांय 3 बजे से हिन्दी ब्लॉग विमर्श कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है।
अब तक मिली जानकारी के अनुसार इसमें जर्मनी से राज भाटिया, लंदन से कविता वाचक्नवी के अतिरिक्त दिल्ली और आसपास के काफी महत्वपूर्ण हिन्दी ब्लॉगर शिरकत कर रहे हैं। जिनमें बालेन्दु दाधीच, आलोक पुराणिक, रतन सिंह शेखावत, इरफान,काजल कुमार, हर्षवर्द्धन त्रिपाठी, उमेश चतुर्वेदी, अजय कुमार झा, महेन्द्र मिश्र, सुधीर रिंटन, आशीष कुमार अंशु, चंडीदत्त शुक्ल, टी एस दराल, नीरज बधवार, सुभाष नीरव, सुरेश यादव, विनोद कुमार पांडेय, उमाशंकर मिश्र, मयंक सक्सेना, सतीश सक्सेना, खुशदीप सहगल, प्रतिभा कुशवाहा, रवि धवन, नीरज जाट, अरूण सी राय, राजीव कुमार, जय कुमार झा, संजू तनेजा, तारकेश्वर गिरी, सुमित प्रताप सिंह, आशीष मिश्रा, राजीव तनेजा, एम वर्मा, शशि सिंहल, सुलभ सतरंगी, उमेश पंत, पद्म सिंह, भारत भूषण, कनिष्क कश्यप, प्रवीण शुक्ल प्रार्थी,बागी चाचा, यशवंत मेहता फकीरा, विजय प्रकाश सिंह, उपदेश सक्सेना, आशीष भटनागर, शाहनवाज सिद्दिकी, सुनील कुमार, लिमटी खरे, पी सी गोदियाल, वंदना गुप्ता, वेद व्यथित, मोहिन्दर कुमार, सीमा गुप्ता,सोनल रस्तोगी, रिया नागपाल आदि उल्लेखनीय है।
आप भी अपने संपर्क के हिन्दी ब्लॉगरों को इस कार्यक्रम की सूचना दें ताकि कोई यह न कह सके कि मुझे खबर न हुई। सूचना किसी भी माध्यम से दी जा सकती है।
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
मैंने लक्ष्मी जी से.....;
गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010
सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर शामिल हो रहे हैं
यह समारोह 7 अक्टूबर तक चलेगा जिसमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, अमरीका, पोलैंड, रूस, जापान, चीन, ईरान, स्वीडन, फिलीपिन्स, हांगकांग, डेनमार्क, हंगरी, नार्वे, अर्जेंटीना, ब्राजील आदि देशों की फिल्मों का प्रदर्शन होगा। उन्होंने बताया कि इस समारोह में ईरानी सिनेमा का विशेष खंड प्रदर्शित किया जाएगा। इस खंड का शुभारंभ भारत के ईरानी दूतावास में ईरान कल्चरल हाऊस के निदेशक अली देहघई करेंगे। 3 अक्टूबर को साहित्य और सिनेमा खंड का शुभारंभ हंस के संपादक राजेन्द्र यादव करेंगे। इस अवसर पर उनके उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से बासु चटर्जी की बनाई फिल्म का विशेष प्रदर्शन होगा।
फेस्टिवल की आयोजक डीएवी गर्ल्स कॉलेज की प्रिंसीपल सुषमा आर्य ने बताया कि यह खुशी की बात है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा और गवर्नर जगन्नाथ पहाडि़या ने समारोह में आने की स्वीकृति दी है। इस फेस्टिवल में हरियाणा में सिनेमा के विकास पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन भी किया जा रहा है जिसकी अध्यक्षता हरियाणा स्टेट चाइल्ड वेल्फेयर सोसायटी की उपाध्यक्ष आशा हुड्डा करेंगी। उन्होंने बताया कि हरियाणा के गवर्नर जगन्नाथ पहाडिया 6 अक्टूबर की शाम 4 बजे सीमा कपूर की राजस्थानी फिल्म हाट द वीकली बाजार के हरियाणा प्रीमियर पर मुख्य अतिथि होंगे।
अजित राय ने बताया कि दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित भारत के विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल से दर्शकों की बातचीत का विशेष आयोजन 5 अक्टूबर को 2.30 बजे से 5 बजे तक किया जा रहा है। फेस्टिवल में श्याम बेनेगल की 2 फिल्में समर और सूरज का सातवां घोड़ा दिखाई जा रही हैं। चर्चित युवा फिल्मकार अनवर जमाल दर्शकों के सामने श्याम बेनेगल से विशेष बातचीत करेंगे। इसी दिन पंजाब में किसानों की आत्महत्याओं पर अनवर जमाल की फिल्म हार्वेस्ट ऑफ ग्रीफ का प्रीमियर होगा। उन्होंने बताया कि 6 और 7 अक्टूबर को भारत के अंतर्राष्ट्रीय अभिनेता ओमपुरी फेस्टिवल में मौजूद रहेंगे। फेस्टिवल का अंतिम दिन 7 अक्टूबर ओमपुरी की फिल्मों को समर्पित किया गया है। ओमपुरी समापन समारोह के मुख्य अतिथि भी होंगे। उस दिन उनकी 3 अंतर्राष्ट्रीय फिल्में – ईस्ट इज ईस्ट, सिटी ऑफ जॉय और माइ सन इज फाइनेटिक दिखाई जायेंगी।
हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा 4 अक्टूबर को दिन में 3 बजे ओमपुरी और यशपाल शर्मा की मुख्य भूमिकाओं वाली अश्विनी चौधरी की फिल्म धूप का विशेष प्रदर्शन देखेंगे। यह फिल्म कारगिल युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों का सघर्ष बयान करती है। इसी दिन अश्विनी चौधरी की राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हरियाणवी फिल्म लाडो भी दिखाई जायेगी। हरियाणा मूल के चर्चित फिल्म अभिनेता यशपाल शर्मा की 4 फिल्में के दौरान दिखाई जाएंगी
अजित राय और सुषमा आर्य ने बताया कि फेस्टिवल के दौरान छात्र-छात्राओं के लिए एक फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स भी चलेगा। इसके संयोजक सुप्रिसिद्ध फिल्मकार के. बिक्रम सिंह होंगे। इसमें छात्रों का विश्व की महान फिल्मों से परिचय कराया जायेगा और फिल्म निर्माण से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों पर चर्चा होगी। इसका उद्घाटन 2 अक्टूबर की सुबह राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार, पुणे के निदेशक विजय जाधव करेंगे। भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारी शरण मुख्य अतिथि होंगे। इसी दिन चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी, इंडिया के सहयोग से बच्चों की फिल्मों का उत्सव शुरू होगा। इस दौरान द ब्लू अम्ब्रेला फिल्म की बाल कलाकार श्रेया शर्मा दो अक्टूबर को कालेज में उपस्थित रहेंगी। नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म अभय का प्रदर्शन भी समारोह में होगा।
तीसरें हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान कम से कम 9 फिल्मों का भव्य हरियाणा प्रीमियर आयोजित किया जा रहा है। ये वे फिल्में हैं जो अभी व्यवसायिक रूप से रिलीज नहीं हुई हैं। ये फिल्में हैं कालबेला, (गौतम घोष), हाट द वीकली बाजार (सीमा कपूर), जब दिन चले न रात चले (त्रिपुरारी शरण) स्ट्रिंग – बाउंड विद फेथ (संजय झा), टुन्नू की टीना (परेश कामदार), सबको इंतजार है (रंजीत बहादुर), हनन (मकरंद देशपांडे), बियोंड बॉर्डर (शर्मिला मैती) और हार्वेस्ट आफॅ ग्रीफ (अनवर जमाल)।
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
मेरी बेटी ने सूचना दी ... पापा जो पुल नेहरू स्टेडियम के पास बन रहा था वह गिर गया और जो मजदूर उस पर काम कर रहे थे, वे भी गिर गये। बहुत से घायल हो गये हैं। मैंने कहा कोई बात नहीं .. । मुझे उदासीन सा पाकर, हैरान, परेशान होकर बोली.. ब्रिज गिर गया... मजदूर गिर गये, घायल भी हो गये और आप हैं कि... कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, कहे जा रहे हैं, क्या मतलब है? दर्दनाक खबरों को पढ़कर आंखें छलकाने वाले आज इतने उदासीन क्यों और कैसे हो गये ?
आखिर बेटी के प्रश्नवाचक भावों को भांपकर मैंने चुप्पी तोड़ी और उसे समझाया।
देश में खेल होने वाले हैं। सारी जनता भांप गयी है कि खेल होने वाले हैं...दिखावे के लिए, असल खेल तो हो चुके हैं। हां... वे सब अंदर के खेल हैं। ये बंदर के खेल नहीं हैं जो सार्वजनिक किये और दिखाये जाते हैं। बंदर का खेल, बंदर वाले मदारी का पेट भर देता है। अंदर के खेल बैंक खातों में भी उजाला भर देते हैं। उजाले की तलाश्ा में सब मस्त हैं। जिम्मेदारी से बचने का बहाना चाहिए, वो है। सारा खेल बारिश ने बिगाड़ा है, वरना हम ये कर लेते और वो कर लेते। गीला तौलिया उड़ते बादलों पर सुखाने का इरादा। समझने वाले भी जानते हैं। पर मदारी करें क्या... बेइमानी की चादर बिछानी भी है, छुपानी भी है। जनता की नजर को बादलों की तरफ मोड़ना मजबूरी है। शर्म से पानी-पानी होने से बचना है तो जिम्मेदारी के सारे पत्थर बरसात के पानी पर ही तो फैंकने हैं।
इधर बरसात का पानी कब तक पानी रह पाएगा। उसका कीचड़ में बदलना तय माना जा रहा है। हर पत्थर छींटे उड़ायेगा। कितनों के कपड़े दागदार होंगे ये तो समय भी नहीं बताएगा, ये अफसोसजनक है। स्टेडियम की छत की कभी भी और कहीं से भी दो टुकड़े सीलिंग अचानक गिर जाती है तो लगता है जैसे देश की आबरू में कोई छेद हो गया है।
बेटी... सच में पुल का गिरना कोई बात नहीं। बात अगर है, तो ये है - कि देश के कर्णधारों का चरित्र गिर गया है। कंपनियों और उनके इंजिनियरों की लालसा का घड़ा, शायद अभी भी खाली रह गया है। देशप्रेम है, दिखावे का। नैतिकता नालियों में बरसाती पानी की तरह बह रही है। इमानदारी लापता है, लगता है बाढ़ में बह गयी, ढूंढे़ नहीं मिल रही। बिटिया... ये चिंतन का विषय है । पुल दुबारा बना दिया जायेगा। धन दुबारा उपलब्ध करा दिया जायेगा। चरित्र, देशप्रेम और नैतिकता का, क्या दुबारा आगमन हो पायेगा। जो मजदूर शारीरिक रूप से घायल हुए हैं उनके घाव तो भर जाएंगे, पर जो इस देश की आत्मा और आबरू छलनी हो रही है, उसका क्या होगा। जानती हो, छलनी के छेद कभी नहीं भरे जाते।
रविवार, 19 सितंबर 2010
यमराज की मौत
हम बीमार थे
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
को तैयार थे
रोज़ अस्पताल आते
हमें जीवित पा
निराश लौटे जाते
एक दिन हमने
खुद ही विचारा
और अपने चौथे
नेत्र से निहारा
देखा
चित्रगुप्त का लेखा
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
शायद यमराज लेट हो गया है
या फिर
उसकी नज़र फिसल गई
और हमारी मौत
की तारीख निकल गई
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
रो रहे हैं
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
किसी ने कहा
यमराज का भैंसा
बीमार हो गया होगा
या यम
ट्रेन में सवार हो गया होगा
और ट्रेन हो गई होगी लेट
आप करते रहिए
अपने मरने का वेट
हो सकता है
एसीपी में खड़ी हो
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
और मौत बोनस पा गई हो
आपसे पहले
औरों की आ गई हो
जब कोई
रास्ता नहीं दिखा
तो हमने
यम के पीए को लिखा
सब यार-दोस्त
हमें कंधा देने को रुके हैं
कुछ तो हमारे मरने की
छुट्टी भी कर चुके हैं
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
सारे
इस बात से डरे हैं
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
हम नहीं मरे
तो क्या खुद मरेंगे
वरना बॉस को
क्या कहेंगे
इतना लिखने पर भी
कोई जवाब नहीं आया
तो हमने फ़ोन घुमाया
जब मिला फ़ोन
तो यम बोला. . .कौन?
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
मौत की
लाइन में खड़े हैं
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
हमें जीवन से
छुटकारा दिला
क्या हमारी मौत
लाइन में नहीं है
या यमदूतों की कमी है
नहीं
कमी तो नहीं है
जितने भरती किए
सब भारत की तक़दीर में हैं
कुछ असम में हैं
तो कुछ कश्मीर में हैं
अधिकांश भारत की राजधानी में
ब्लू लाईन सरपट दौड़ा रहे हैं
जो सामने आ रहा है
उसी को निपटा रहे हैं
किसी के घर नहीं
जा पा रहे हैं
इसीलिए आपके घर
नहीं आ रहे हैं
जान लेना तो ईज़ी है
पर क्या करूँ
हरेक बिज़ी है
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
अभी तो हमें भी
मरने की फ़ुरसत नहीं है
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
मेरी भी
मौत की तारीख
निकल चुकी है
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
--
पवन चंदन द्वारा चौखट के लिए 10/23/2007 03:50:00 AM को पोस्ट किया गया
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010
गुब्बारा चालिस करोड़ का ....
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
टेक्निया इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज की कार्यशाला में अविनाश वाचस्पति ने कहा कि
http://www.tecniaindia.org
मैं अपनी बात कहने से पहले अपनी एक व्यंग्य रचना पढ़ना चाह रहा था परंतु तकनीक नहीं चाहती कि मैं अपनी रचना पढ़ सकूं। खैर ... इसमें भी कोई भलाई ही होगी। आप जानते ही हैं कि
कलयुग अब सूचनायुग के साथ समन्वय करके दौड़ रहा है और इस सूचनायुग का गेट इंटरनेट है जिसके भीतर की सारी सामग्री हमने-आपने ही संजोई है। जिसे हम-आप संजो रहे हैं उसे सब देख रहे हैं। मुंह से कही गई बात कान तक पहुंचने के लिए कई माध्यम बन गए हैं। सीधी बात अब मजा ही नहीं देती है। उससे सनसनी भी नहीं उपजती है। एक कह रहा है और सुनने वाले के माध्यम से उसे सब तक पहुंचाया जा रहा है। जरिया कोई भी तकनीक हो सकती है। रेडियो, अखबार, टी वी अब पुराने हो गए हैं। इनमें मोबाइल सबसे शक्तिशाली और सबसे कम उम्र का हम सबका साथी है। इसे सब तकनीक के साथ मिलाकर इसके छोटे से स्वरूप में सभी पसंद कर रहे हैं। इसके बाद कंप्यूटर, लैपटाप का नंबर आता है और अन्य सब चीजें इन सबके बाद। कल मोबाइल से और नई चीज भी आ सकती है जो मोबाइल को बाहर कर सकती है। इस सबके पीछे इंसान का मानस ही है। मन जो सोचता है, उसे पा ही लेता है, बस प्रयास सच्चे मन से किए जाने चाहिए।
इस प्रकार से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को वर्कशाप का नाम दिया जाता है जबकि आप जरा गहराई से विचार करें तो पायेंगे कि हमारा सबका जीवन ही एक वर्कशाप है, इससे अलग कुछ नहीं। हर कोई, हर समय कुछ न कुछ वर्क करता ही रहता है। जब वह सोता है, तब उसके अवचेतन मन में जो प्रक्रिया चलती रहती है, वो भी एक अलग प्रकार की वर्कशाप ही है। मैं यहां आपके सामने और आप मेरे सामने वर्क कर रहे हैं। कर्म में विश्वास रखने वालों के लिए कर्म ही पूजा है।
अब से पहले एक तरफा सूचना संप्रेषण ही होता रहा है यानी जिसने लिखा या दिखाया – उसे पढ़ा-सुना-देखा गया परंतु अब इससे अधिक वापिस तुरंत प्रतिक्रिया पाने की जो प्रक्रिया बनी है। यह प्रक्रिया मतलब जो पढ़-देख-सुन रहे हैं – वे आपसे संवाद भी स्थापित कर रहे हैं। आप तुरंत प्रतिक्रिया पाते हैं और यह तुरंत प्रतिक्रिया का मिलना – आपको मुग्ध करता है। राय चाहे अच्छी हो या बुरी – रचनात्मकता के तेजी से विकास के लिए जरूरी है जिससे आप अपने कार्य को पूरी सकारात्मकता के साथ बेहतर तरीके से कर पाते हैं।
जो यह नया मीडिया है, यही इसकी खासियत है और यही इसकी खूबसूरती है। पहले जमाने के गांव अब इंटरनेट रूपी गांव के रूप में सबके सामने मौजूद हैं। हम सब सूचना के वाहक हैं। हम ही सूचना देते हैं और हम ही सूचना पाते हैं। आज जो जन्म ले रहा है, वो तकनीक के युग में जन्म लेता है। पहले जो बच्चे हाथ में कागज को तो पकड़ते ही नहीं थे, नोट पकड़ लेते थे, वे अब नोट भी नहीं पकड़ते, सीधे मोबाइलफोन की तरफ सहज ही आकर्षित होते हैं।
इस सूचना युग में मेरे हमउम्र साथी बहुत मुश्किल से, झिझक के साथ कंप्यूटर को हाथ लगाने का साहस करते हैं। उसी प्रकार जिस प्रकार टू व्हीलर चलाने वाला, कार चलाने में अपने को असमर्थ पाता है और हौसला नहीं कर पाता। कार कैसे चला पाऊंगा और इस हौसले को पाने में कई बरस लग जाते हैं। पर आप सब इस सूचनायुग के सच्चे साधक हैं। आपके मन में ऐसी किसी झिझक की बात नहीं है। झिझक तो मेरे मन में है कि मैं जो चाह रहा हूं, वो आपको अच्छे से समझा भी पाऊंगा या नहीं। पर मेरा और मेरे युवा सहयोगी कनिष्क कश्यप की पूरी कोशिश रहेगी कि जो हम आपको सिखलाने-बबतलाने आये हैं, उसे बहुत अच्छे से आपको न सिर्फ बतला ही पायें अपितु अच्छा अभयास भी करवा सकें। जिंदगी में आपको सिर्फ खुद ही नहीं सीखना होता अपितु आप जो सीखते हैं, उसे सबको सिखाना भी सबका ध्येय होना चाहिए। बिना किसी पूर्वाग्रह और बिना किसी लोभ के। यह भाव मन में स्वयंमेव उठने चाहिए।
जो काम अब तक देश-विदेश में हिन्दी फिल्मों के गीत करते आए हैं, वो कमान अब हिन्दी ब्लॉगों ने संभाल ली है और इसमें आप सबको अपना भरपूर योगदान, बिना अपनी दैनिक जिम्मेदारियों को प्रभावित किए बिना देना है और देते रहना है और सबको इस कार्य के लिए प्रेरित भी करना है। हिन्दी में टाइप करना, हिन्दी में ब्लॉग बनाना, उसमें अपनी रचना और चित्र लगाना, अपने खूबसूरत भावों को किसी भी विधा में साकार करना, पढ़ी-सुनी रचनाओं पर अपनी सच्ची प्रतिक्रिया टिप्पणियों के माध्यम से देना, अब बहुत आसान है।
जानकर अच्छा लग रहा है कि आपमें से कुछ साथी इस माध्यम में सक्रिय भी हैं। कनिष्क जी अब आपको इस माध्यम से काफी तकनीकी पहलुओं की व्यवहारिक जानकारी देंगे और उसके बाद हमारे मध्य खुला वार्तालाप होगा। आप सब एक एक करके पूछते जाएंगें, ब्लॉग बनायेंगे अपनी कठिनाईयों के संबंध में बतलाते जायेंगे और हम मिलकर आपकी समस्याओं को दूर करते जायेंगे।
धन्यवाद ।
शनिवार, 4 सितंबर 2010
एक व्यंग्य लेख हिण्डोन सिटि राजस्थान की एक खबर पर प्रेरित होकर लिखा है।
खबर पढ़ कर पत्नी चिल्लाई, देखना...मरे नासपीटों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा....उनका खून निकाल लिया। मैंने कहा, निकाला ही तो है, किया तो नहीं ? कर ही देते तो हम क्या कर लेते, सिर्फ पढ़ लेते और अखबार मोड़ कर रख देते, जैसा रोज करते हैं। पत्नी, मेरी बेरूखी देखकर आपे से बाहर हो गयी। बोली.. आप तो पत्थर हो...पत्थर। इतनी बड़ी खबर है और कोई असर नहीं। मैंने समझाया...ये सब लालच के वशीभूत हुआ है। बच्चों को कचौरी पसंद थी उसके बाद जूस पीने का भी लालच। डॉक्टर और उसके कुछ साथियों ने मिल कर जूस पिलाया और जूस निकाल लिया। जूस के बदले जूस। जूस फलों का हो या बालकों का, जूस तो जूस है। हमारे देश में उनका भी बाल बांका नहीं होता जो जूस पीने के बाद, गुठली तक नहीं छोड़ते। निठारी काण्ड भूल गयी क्या ? तुम भी कौन सा आम की गुठली छोड़ देती हो.. उसे भी भून कर खा लेती हो कि चलो पेट साफ हो जाएगा।पत्नी, ज्वालामुखी हो चली थी, बोली...आप, आम और बच्चों में फर्क नहीं समझते? मैंने कहा... समझता हूं और अच्छी तरह समझता हूं। अगर ये बच्चे आम न होते तो इनका जूस क्यों निकलता। आम थे तभी तो निकला। जो खास होते हैं उनको घर में ही कचौरी और जूस, बिना भूख ही मिल जाता। ये भूख ही है... जो अपराध को जन्म देती है। बच्चों को भूख थी कचौरी की, डाक्टर और उसके साथियों को भूख थी पैसा बनाने की। बनाने और कमाने में भी फर्क है। कमाने यानि कि कम आने में तसल्ली नहीं होती न। दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूख शांत कर रहे थे। पैसा बनाने में काम अमानवीय है या नहीं, ये सब देखने सोचने की किसे फुरसत है?व्यापार में तो ऐसा ही होता है। सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो। इस खून से भी किसी की जान ही बचेगी, क्यों घबराती हो। सवालिया अंदाज में बोली...क्या खाक जान बचेगी, इन्होंने जो खून निकाला है वह सुल्फा, गांजा और अफीम खिलाकर निकाला है। हो सकता है स्मैक या हीरोइन न पिला दी हो। अब जिसको भी खून चढ़ाया जायेगा वही नशे के वशीभूत हो जायेगा। ये तो उसकी भी धीमी मौत का इंतजाम हुआ न। मैंने कहा... मौत भी धीरे-धीरे ही आनी चाहिए। कौन है यहां, जो मरने की जल्दी में हो? सभी तो देर से और, और देर से मरना पसंद करते हैं। सब यही सोचते हैं आज नहीं कल और कल नहीं परसों। ये कल और परसों, बरसों में बदल जाए तो क्या कहने। पत्नी आंखें तरेर कर अंग्रेजी बोलने लगी। ‘‘इन टू व्हाटऐवर हाउसिस, आई एंटर, आई विल गो इनटू दैम फॉर द बैनिफिट ऑफ द सिक, एण्ड विल एब्सटेन फ्रॉम एवरी वालैन्टरी एक्ट ऑफ मिस्चीफ एण्ड करप्शन... समझे कुछ ?ये एक लाइन है उस शपथ की, जो डॉक्टर, डॉक्टर बनने के बाद और रोगियों की सेवा करने से पहले लेता है तथा डिग्री प्राप्त करता है। क्या हुआ, इस शपथ का ? मुझे फिर समझाना पड़ा... अरी बावरी, अगर ये डिग्री नकली है तो शपथ की जरूरत ही कहां है ? है भी तो शपथ असली होगी, इस बात की क्या गारंटी है? मेरी सुन, ये शपथ वगैरह सब जनता को विश्वास के दायरे में रखने का एक साधन मात्र है। ये पति-पत्नी का गठबंधन नहीं है जो सात फेरे के बदले सात-सात जनम निभाना ही पड़े। ऐसा भी सुना गया है कि एक सरकारी डॉक्टर के प्राइवेट क्लीनिक का फीता स्वयं स्वास्थ्य मंत्री ही काट देता है और वहां मुफ्त इलाज का जुगाड़ बिठा लेता है, समझीं...। ये शपथ, नियम और कानून सब दैनिक जीवन के ‘मेकप’ हैं। जब चाहा, वक्तव्यों के चार छींटे मारे और मेकप धो दिया।
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
आने वाला है हिन्दी माह पखवाड़ा और सप्ताह
ये हर पल छाई रहे, जाने सब संसार,
भूल जाइये आज से पखवाड़ों का नाम
रोज रोज फैलाइये हिन्दी का पैगाम
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
ब्लॉगविद्या के बाबा रामदेव
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शनिवार, 14 अगस्त 2010
अंतिम इच्छा
मरने वाले थे आगे मैं सबसे पीछे दूर खड़ा था
देख रहा था मैं गोरों को वतन लूटते हैं कैसे
दौलत की लत कैसे पनपे कैसे बनते हैं पैसे
सीख रहा था नमक डालना जनता के हर घाव में
कसरत तो लाठी डण्डों से होती रही चुनाव में
जनता को बहकाया है बस झूठे झूठे वादों में
सारा जीवन बीत गया यूं दंगे और फसादों में
देख देख कर पारंगत हूं कैसे राज किया जाता है
भोली भाली जनजनता का कैसे खून पिया जाता है
हो जाए गर ऐसा कुछ मैं भवसागर से तर जाऊं
राजघाट और विजयघाट सा घाट एक बनवा जाऊं
सरकारी शमशान घाट पर अपना नाम लिखा जाऊं
अंतिम इच्छा है बाकी बस कुर्सी पर ही मर जाऊं
सोमवार, 26 जुलाई 2010
शहीदों के परिजनों को प्रणाम
मातृभूमि की रक्षा से देह के अवसान तक
आओ मेरे साथ चलो तुम सीमा से शमशान तक
सोये हैं कुछ शेर यहां पर धीरे धीरे आना
आंसू दो टपका देता पर ताली नहीं बजाना
शहीद की शवयात्रा देख कर मुझमें भाव जगे
चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
बारंबार पिटा सीमा पर भूल गया औकात को
चोरी चोरी लगा नोचने भारत के जज्बात को
धूल धूसरित कर डाला इस चोरों जैसी चाल को
मार पीट कर दूर भगाया उग्र हुए श्रंगाल को
इन गीदड़ों को रौंद कर जिस जगह पे तू मरा
मैं चूम लूं दुलार से पूजनीय वो धरा
दीप यादों के जलाऊं काम सारे छोड़कर
चाहता हूं भावनाएं तेरे लिए वार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
सद्भावाना की ओट में शत्रु ने छद्म किया
तूने अपने प्राण दे ध्वस्त वो कदम किया
नाम के शरीफ थे जब फोज थी बदमाश उनकी
इसलिए तो सड़ गयी कारगिल में लाश उनकी
सूरत भी न देखी उनकी उनके ही परिवार ने
कफन दिया न दफन किया पाक की सरकार ने
लौट आया शान से तू तिरंगा ओढ़कर
चाहता हूं प्यार से तेरी राह को बुहार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
शहीद की मां को प्रणाम
कर गयी पैदा तुझे उस कोख का एहसान है
सैनिकों के रक्त से आबाद हिन्दुस्तान है
तिलक किया मस्तक चूमा बोली ये ले कफन तुम्हारा
मैं मां हूं पर बाद में, पहले बेटा वतन तुम्हारा
धन्य है मैया तुम्हारी भेंट में बलिदान में
झुक गया है देश उसके दूध के सम्मान में
दे दिया है लाल जिसने पुत्र मोह छोड़कर
चाहता हूं आंसुओं से पांव वो पखार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
शहीद की पत्नी को सम्मान
पाक की नापाक जिद में जंग खूनी हो गयी
न जाने कितनी नारियों की मांग सूनी हो गयी
हो गयी खामोश उसकी लापता मुस्कान है
जानती है उम्र भर जीवन तेरी सुनसान है
गर्व से फिर भी कहा है देख कर ताबूत तेरा
देश की रक्षा करेगा देखना अब पूत मेरा
कर लिए हैं हाथ सूने चूडि़यों को तोड़कर
वंदना के योग्य देवी को सदा सत्कार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
शहीद के पिता को प्रणाम
लाडले का शव उठा बूढ़ा चला शमशान को
चार क्या सौ सौ लगेंगे चांद उसकी शान को
कांपते हाथों ने हिम्मत से सजाई जब चिता
चक्षुओं से अक्ष बोले धन्य हैं ऐसे पिता
देश पर बेटा निछावर शव समर्पित आग को
हम नमन करते हैं उनके, देश से अनुराग को
स्वर्ग में पहले गया बेटा पिता को छोड़कर
इस पिता के चरण छू आशीष लूं और प्यार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
शहीद के बालकों को प्यार दुलार
कौन दिलासा देगा नन्हीं बेटी नन्हें बेटे को
भोले बालक देख रहे हैं मौन चिता पर लेटे को
क्या देखें और क्या न देखें बालक खोये खोये से
उठते नहीं जगाने से ये पापा सोये सोये से
हैं अनभिज्ञ विकट संकट से आपसे में बतियाते हैं
अपने मन के भावों को प्रकट नहीं कर पाते हैं
उड़कर जाऊं दुश्मन के घर उसकी बांह मरोड़कर
बिना नमक के कच्चा खाकर लंबी एक डकार लूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
शहीद की बहन को स्नेह
सावन के अंतिम दिवस ये वेदना सहनी पड़ेगी
जो कसक है आज की हर साल ही सहनी पडे़गी
ढूंढ़ती तेरी कलाई को धधकती आग में
न रहा अब प्यार भैया का बहन के भाग में
किस तरह बांधे ये राखी तेरी सुलगती राख में
न बचा आंसू कोई उस लाडली की आंख में
ज्यों निकल जाए कोई नाराज हो घर छोड़कर
चाहता हूं भाई बन मैं उसे पुचकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
पाक को चेतावनी
विध्वंश के बातें न कर बेवजह पिट जायेगा
तू मिटेगा साथ तेरा वंश भी मिट जायेगा
कुछ सीख ले इंसानियत तेरा विश्व में सम्मान हो
हम नहीं चाहते तुम्हारा नाम कब्रिस्तान हो
चेतावनी है हमारी छोड़ आदत आसुरी
न रहेगा बांस फिर और न बजेगी बांसुरी
उड़ चली अग्नि अगर आवास आपना छोड़कर
चाहता हूं पाक को मैं जरा ललकार दूं
ए शहीद आ तेरी मैं आरती उतार लूं
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शनिवार, 24 जुलाई 2010
बधाई बधाई बधाई : हिन्दी ब्लॉगरों का डीएलए में चिंतन
एक बधाई दिविक रमेश जी को
दूसरी बधाई अविनाश वाचस्पति जी को
तीसरी बधाई
यह आप बतलायें
इंतजार रहेगा
पहेली ही सहेली है
सहेली ही पहेली है
डीएलए दिनांक 24 जुलाई 2010 में प्रकाशित स्तंभ ब्लॉग चिंतन से साभार
शुक्रवार, 25 जून 2010
कुछ भूखे ऐसे भी....
रेल की पटरियां
और उन पड़ी दो लाशें
कैसे उठाएं किसे तलाशें
एक आदमी और एक जानवर
दोनों कट गये
इत्तेफाकन,
एक दूसरे से सट गये
लोग उचक-उचक देखते
आते और चले जाते
समय का परिवर्तन हुआ
भूख का नर्तन हुआ
अब भीड़ बढ़ रही थी
लाश उठाने को,
लड़ रही थी
भीड़ आदमियों की थी
लड़ती रही
लाश आदमी की थी
सड़ती रही
भीड़ ने आदमी की लाश का
क्या करना था
उससे किसका पेट भरना था
रविवार, 20 जून 2010
बुधवार, 16 जून 2010
लंगोटी .... पर नजर
मेरी समझ काफी समझदार है लेकिन एक बात समझ से बाहर है कि आदमी भागते भूत की लंगोटी ही सही... क्यों कहता है। पहली बात तो ये विवादास्पद है कि भूत होता भी है या नहीं। वैसे लोकमान्यताओं के अनुसार भूत वह भटकती आत्मा होती है जो लोग अपने जीवन की मझधार में यमदूतों के हत्थे चढ़ जाते हैं और यमराज उन्हें स्वीकारता नहीं। न तो उन्हें स्वर्ग में एडमीशन मिल पाता है और न ही नर्क में। इधर परिवार के सदस्यों को इस अजीबो गरीब समस्या पर विचार करने की फुरसत नहीं होती क्योंकि वे लोग उसके शरीर को आग को समर्पित कर बीमा कंपनी के चक्कर लगा रहे होते हैं। कहां मिलती है फुरसत।
विचारणीय विषय है जिनके पास अपना शरीर ही नहीं होता तो वह भागेगा कैसे। मान लो बिना टांगों के भागा होगा जैसा कि हमारे देश में अफवाहें भागती हैं। कुछ समय पहले एक काला बंदर गाजियाबाद में भाग रहा था। इससे पहले पूरा भारत ही बौराया था गणेश जी को दुग्धपान कराकर। भला जो मोदक प्रिय हो उसे दूध चाय से क्या लेना। लोगों की नादानी से नाली के कीड़े भी धन्य हो गये दूध में नहा धोकर।
अफवाहों की तरह माना कि भूत भी भाग रहा होगा। लेकिन उसकी टांग नहीं तो उसके पास लंगोटी कहां से होगी। होगी भी तो किस काम की। चलो माना कि होगी, तो एक सवाल उठता है - कि आदमी भूत की लंगोटी खींचने से इतना संतुष्ट क्यों। मेरी समझ से तो दो ही कारण हो सकते हैं, खुद को ढकना चाहता है या उसको नंगा करना चाहता है और दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो.. देखो.. ये भी नंगा हो गया। आदमी भी क्या गफलत में रहता है। जिसका तन ही नहीं उसको भी नंगा करने पर उतारू है।
एक बात कहूं- लंगोटी खींचना कोई अचंभे वाली बात नहीं है। अचंभे वाली बात तो ये है कि जब भूत का तन नहीं होता तो भी आदमी न जाने क्या देखना चाहता है। क्या तन वालों को नंगा देखकर मन नहीं भरा। वैसे आदमी के लिए किसी की भी कहीं भी और कभी भी लंगोटी खींचना कोई बड़ी बात नहीं है। खींचता जो रहता है एक दूसरे की। फिर भूत क्या चीज है। गनीमत है भूत ही इस घटना का शिकार हुआ है, भूतनी बच गयी है।
वरना आदमी का भी क्या भरोसा। वैसे मैंने काफी मनन किया है इस कहावत के जन्मदाता के विषय में। न जाने क्या सोचकर उसने इस कहावत की रचना कर डाली। वैसे ये शोध का विषय तो है। लंगोटी की जगह पाजामा भी तो खींचा जा सकता था। बनियान खींचा जा सकता था, कमीज खींची जा सकती थी। लंगोटी पर ही क्यों नजरें टिकाईं आदमी ने।
हां, जिस चीज की ज्यादा जरूरत होती है उसी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती है पर लंगोटी न हो तो भी पाजामे से काम चलाया जा सकता था। चाहे जो भी हो बात जम नहीं रही, कहावत भी नहीं। एक कहावत और है इस हमाम में सभी नंगे, आदमी शायद इसी कहावत को सही साबित करने पर आमादा हो।
आप भी सोचो, मैं भी सोच रहा हूं। हो सकता है आदमी ईर्ष्या के वशीभूत हो ऐसी हरकत करना चाहता हो। क्योंकि ईर्ष्या करना भी आदमी के शगलों में एक खास शगल है।
जिसकी होती नहीं काया वो भी नहीं बच पाया
मंगलवार, 15 जून 2010
सही कहा नेहरू जी ने...............
पुराने बच्चे
भ्रष्टाचारी हो गये
वैमनस्य का बीज बो गये
बस्तियों में आग लगाकर झांक रहे हैं
देश की कीमत आंक रहे हैं
इन्हीं पुराने बच्चों ने मंदिर बनाया
इन्हीं पुराने बच्चों ने मस्जिद बनाई
खूब की है ह-राम की कमाई
इन पुराने बच्चों ने जिंदगी को
अपने मन से जिया है
इन्हीं पुराने बच्चों ने
आदमी का खून पिया है
हम हैरान हैं
ये पुराने बच्चे, पिशाच हैं, शैतान हैं
ऐसा लगता है ये अभी भी प्यासे हैं
वरना नेहरू जैसा महान व्यक्ति
ये वक्तव्य क्यूं देता
आज के बच्चे कल के नेता
शनिवार, 12 जून 2010
क्या आप ढूंढ़ सकते हो ....
जब चलती चक्की घोर घोर, सब बोले हो गयी भोर भोर
फिर चून पीस कर चार किलो, गिड़गम पर रखा दूध बिलो
नेती से जब जब रई चली फिर छाछ बटी यूं गली गली
यूं बांट बांट कर स्वाद लिया, बचपन को हमने खूब जिया
क्या जीवन था वो ता...ता...धिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन
जीवन जीने के झगड़े में नंगे पांवों दगड़े में
चलते चलते रेतों में पहुंच गये हम खेतों में
फिर एक भरोटा चारा ले ज्वार बाजरा सारा ले
सूखा सूखा छांट दिया लिया गंडासा काट दिया
गाय भैंस की सानी में यूं बीत गया फिर सारा दिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन
सांझ घिरी जब धुएं से, फिर आयी पड़ोसन कुएं से
लीप पोत कर चूल्हे को ज्यों सजा रहे हों दूल्हे को
फिर झींना उसमें लगवाया, फोड़ अंगारी सुलगाया
जब लगी फूंकनी आग जली, यूं चूल्हे चूल्हे आग चली
कितने चूल्हे जले गांव में दर्द भरा है ये मत गिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन