मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

डंके की चोट पर


                                   खुल्‍ला खेल फ़र्रूखाबादी                           
-पी के शर्मा

तुम वहां जाओ... और लौट कर दिखाओ। इसका मतलब सीधा भी है और टेढ़ा भी। धूल में लठ्ठ मारो, लग गया तो बढि़या और अगर थू..थू हो गई तो कह देंगे, हमारा ये आशय नहीं था। ये तो मीडिया ने अर्थ का अनर्थ कर दिया है। बयान तोड़ने मरोड़ने की बीमारी है मीडिया को । हम ऐसा वैसा क्‍यों कहेंगे। देखने सुनने वाले सब जानते हैं कि घोड़े को लगाम लगाई जा सकती है, आदमी की जबान को नहीं। अपने लंबे मुंह से घोड़ा इसीलिए परेशान रहता है। आदमी न जाने कहां-कहां और क्‍या-क्‍या खाता रहता है। उसे कोई लगाम नहीं लगाता। मुंह लंबा उसका होना चाहिए था। लंबे मुंह में लगाम भी लगाई जा सकती थी और छींका भी। आदमी का मुंह कुदरत ने कुछ इस डिजाइन का बना दिया है कि न लगाम... न छींका। जो चाहे खाओ, जो चाहे गाओ।
अब ये तो कानून का मामला है। कानून का काम क्‍या है, टूटना । अगर कानून न टूटे तो पुलिस बेराज़गार... अदालत ठप्‍प... वकालत ठप्‍प। आम जन को कानून तोड़ने की सजा मिलती है, पर ये तो कानून मंत्री हैं...तोड़ सकते हैं। जो बना सकता है, वो तोड़कर भी देखेगा, मरोड़कर भी। उसकी कड़क और लचक दोनों ही देखनी होती हैं। कल को आप ही जिम्‍मेदारी का ठीकरा मंत्री जी के सर फोड़ दोगे कि क्‍या बेकार कानून बनाया है, लल्‍लू पंजू.. जो चाहता है, वही तोड़ देता है। कानून इतना तो कठोर होना चाहिए, जो आम जन न तोड़ पाएं और इतना लचीला भी होना चाहिए कि मंत्री जी जैसे मरोड़ें वैसे ही मुरड़ जाए।  
घोषणा हो गयी है कि अब होगा खुल्‍ला खेल फ़र्रूखाबादी। कलम से नहीं... ख़ून से। हमें, पीना भी आता है, बहाना भी आता है। हमारे लिए ख़ून दहशत पैदा नहीं करता। ख़ून...होता है, तब भी नहीं। बहता है, तब भी नहीं। ख़ौलता है, तब भी नहीं। हमारे लिए ख़ून पानी की मानिंद है। लगता है अब खू़न का रंग लाल भी नहीं रहा है। पहले खू़न में खानदानी असर होता था। प्रेम का पुट भी होता था। लेकिन अब तो जैसे पानी दूषित हो चुका है, वैसे ही ख़ून भी प्रदूषित हो चुका है। यह प्रदूषण हमारी रगों में दौड़ रहा है। इसीलिए हमारी रग-रग दूषित हो गयी है। रगों से हमारे दिमाग को भी प्रदूषण का पोषण मिल रहा है। प्रदूषित दिमाग, घृणा और द्वेष का प्रदूषण ही फैलाएगा न....।
यह दिमागी प्रदूषण चिंताजनक है। इससे प्रदूषित बयान ही निकलेंगे। खासकर देश के रहनुमाओं के दिमाग से निकलने वाले प्रदूषण अधिक चिंतनीय हैं। जनता को चाहिए कि कुछ नया करे और पहचाने कि कौन रहनुमा होना चाहिए, वरना यूं ही टुकुर-टुकुर टापती रहेगी और कमा- कमाकर हांफती रहेगी। देश की आर्थिक विकास दर में गिरावट इन्‍हीं दूषित हस्तियों से ही है। ‘चुपचाप-मंत्री’ की चुप्‍पी कब टूटेगी।  
आम जनता तो रोज कमाती है, रोज खा..जाने के लिए... ख़़जाने के लिए नहीं। रही सरकारी कर्मचारी की बात और उसकी औकात... सो कल ही एक कुंजड़े ने सरेआम बाजार में बोल दिया कि – बाबू जी टमाटर तो आप पहली तारीख के बाद ही खरीदोगे न...अभी तो सीताफल से काम चला लो। इधर में ख़यालों में खोया था... सोच रहा था..; क्‍या एक एन जी ओ मैं नहीं खोल सकता....  
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

मोक्ष क्‍या है....कैसे मिलेगा... पढि़ये व्‍यंग्‍य


मोक्ष का द्वार
                     पी के शर्मा
लो, कर लो गल। हमें तो पता ही नहीं था कि देवालय और शौचालय में क्‍या अंतर होता है। हां इतना अवश्‍य जानते हैं कि यदि आस्‍था न हो तो देवालय के बिना काम चल सकता है लेकिन शौचालय बिना नहीं। इससे तो मोक्ष की प्राप्‍ती होती है। जी हां...सुबह का वक्‍त हो...और शौचालय न हो तो क्‍या होगा, कल्‍पना करना आता है... तो सोच लो। देवालय में कितने ही नारियल फोड़ो कुछ होने जाने वाला नहीं है... मंत्री जी ने  कहा है। हमारे देश में जो मंत्री जी कहते हैं, होता वही है। जो मंत्री जी नहीं कहते, होता नहीं है। दुरूस्‍त फरमाया मंत्री जी ने।

अब मंत्री जी न बोलें तो लोग चुटकुले बनाने लगते हैं। मेरे एक मित्र ने भी मौन धारण कर लिया था, इसी शक में कि प्रधानमंत्री का उम्‍मीदवार तो बन ही गया। बात कुछ यूं है कि या तो मंत्री बोलते नहीं हैं और जब बोलते हैं तो बवंडर आना जरूरी होता है। वो मंत्री ही क्‍या जिसके एक बोल पर जनता आंदोलित न हो, आक्रोशित न हो। अभी दो चार दिन पहले ही एक मंत्री जी का बयान आया, जो महिलाओं को हिला गया था। उसकी लहरें अभी शांत भी नहीं हो पायीं थी कि दूसरी सुनामी आ गयी, अब..मांगो माफी...। बात भले ही सही हो। मंदिर में नारियल तोड़ने से मोक्ष प्राप्‍त नहीं हो सकता, चलो... चलो तो लैट्रिन में तोड़ेंगे। लैट्रिन के नल में पानी नहीं आ रहा होगा तो, नारियल पानी काम आएगा। पीने के साथ-साथ धोने का काम भी चलेगा।

शुक्र है, मंत्री जी ने शौचालय का प्रसंग सिर्फ मंदिर से ही जोड़ा है। किसी और धार्मिक स्‍थल का नाम नहीं लपेटा। अगर लपेट दिया होता तो देश कब का लपटो में घिर गया होता। हमारे देश में तो सभी धर्मों का आदर होता है और सभी के धार्मिक स्‍थल हैं। इनका क्‍या भरोसा कब.. क्‍या कह दें। देश की जनता हमेशा से ही आहत होती आयी है, उसकी राह में राहत कभी नहीं आती।

इस तुलनात्‍मक वक्‍तव्‍य से जन-जन को ये पता चल गया कि मंत्री जी के लिए लैट्रिन, मोक्ष का द्वार है, मंदिर नहीं। वैसे तो सभी को बोलना आता है। लेकिन कब बोलना है, कब नहीं। क्‍या बोलना है, क्‍या नहीं...सब नहीं जानते। घटिया और फूहड़ विचारों से ही प्रसिद्धि नहीं मिलती वरन्‍  सभ्‍य, संस्‍कारित व्‍यवहार और वक्‍तव्‍य भी आदमी को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा सकते हैं।

रही बात खुले में शौच जाने कि तो ये बात आजादी के आठवें दशक में याद आ रही है..अब तक कहां सोए हुए थे। ये मोक्ष का द्वार पहले दिखायी नहीं दिया। राष्‍ट्रीय राजधानी की अधिकांश आबादी रोज सवेरे रेल की पटरियों पर इस तथाकथित ‘मोक्ष के द्वार’ को तलाशती नजर आती है। साथ ही साथ कानून की चादर को झीरमझीर कर रही होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि ये लोग उधर देखने की जरूरत ही नहीं समझते जिधर कानूनी अपराध हो रहा होता है।

राजधानी ही नहीं, देश के हर बड़े शहर की हर सुबह की ये पुरातन दिनचर्या है, जो सतत जारी है। कहो, कहो... लेकिल तरीके से.... और सिर्फ कहो नहीं... कुछ करके दिखाओ मंत्री जी......।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

आज हरिभूमि में प्रकाशित आप भी पढ़े.....


पुराना केस पुरानी बीवी


पता चला है कि एक उच्‍च पदस्‍थ मंत्री ने महिलाओं की मर्यादा में गुस्‍ताखी कर डाली है। ये कोई इतनी बड़ी बात है क्‍या..?  जो कोहराम मचा दिया जाए। महिलाओं को पहले ही कौन सा सम्‍मान का दर्जा प्राप्‍त है...?  और किसने दिया इनको इतना सम्‍मान...?  अभी तक तो किसी ने दिया नहीं है। लोग पैर की जूती से तुलना करते आए हैं।

मंत्री ने कुछ ऊंच-नीच कह दिया तो, हो सकता है मंत्री जी ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहते हों और जबान फिसल गयी हो...। मुंह में चिकनाहट भरी लार तो होती ही है, सो जबान कहां तक संभलेगी। इसमें तो गुठली भी नहीं होती जो थोड़ी बहुत रूकावट हो पाती। और जबान जब जवानी की बातें कर रही हो तो बात ही क्‍या है, फिसलना लाजमी है।

आप क्‍या समझते हैं कि आदमी जितने ऊंचे पद पर होता है, उसकी सोच भी उतनी ही ऊंची हो जाती है। मेरे विचार से पद ऊंचा ही रहना चाहिए, सोच ऊंची हो, न हो। आदमी के व्‍यक्तिगत चरित्र का उच्‍च पद से कोई सरोकार नहीं है। ओछी हरकत और तुच्‍छ बातें करने का उसे भी तो हक है। छींटा-कशी करना, व्‍यंग्‍यकारों की बपौती नहीं है। जब कवि अपनी पत्‍नी जो एक महिला ही है, को मंच पर उपहास का केंद्र बना कर तालियां और धन बटौर सकता है तो, ऐसा कोई भी कर सकता है। मंत्री भी कर सकता है। किसी का एकाधिकार तो है नहीं। कुछ मौसम भी गुनाहगार होता है, लेकिन फागुन तो अभी बहुत दूर है। फागुनी छेड़-छाड़ का भी सहारा नहीं। सावन भी चला गया है, मल्‍हार की मस्‍ती का भी मौसम नहीं है। ये तो पितरों को याद करने और श्राद्ध-कर्म करने का पखवाड़ा है।

इस समय ऐसी तुच्‍छ बातों का तिरस्‍कार होना चाहिए। पर न जाने क्‍यूं... मीडिया भी नहीं मान रहा है और महिलाओं की किसी संस्‍था ‘लक्ष्‍य’  ने भी कोर्ट में केस कर दिया है। क्‍या जरूरत थी केस करने की...?  फैसले होने में इतना समय बीत जाता है कि मुद्दे और मुद्दयी दोनों पस्‍त हो चुके होते हैं। लोग भूल जाते हैं कि ऐसा-वैसा कोई कभी केस भी हुआ करता था। या फिर कोई नया, इससे बड़ा और चौंकाने वाला केस हो चुका होता है तथा जनता को वह पुराना केस पुरानी बीवी की तरह मजेदार नहीं लग रहा होता है। आज आप इससे ज्‍यादा चटखा़रेदार ख़बर पेश कर दीजिए मंत्री जी की किरकिरी होनी बंद हो जाएगी।

     अंत में मैं तो यही कहू्ंगा कि ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यंते, रमंते तत्र देवता’ को मानने वाले देश के तहजीबयाफ्ता शहर लखनऊ में ऐसी अशोभनीय घटना हो जाए तो महिलाओं के लिए ही नहीं, देश और शहर दोनों के लिए भी अशोभनीय है। पर कौन मानता है इन सब प्रतिमानों को। हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि कम बोलना और कम खाना कभी नुकसान नहीं देता। बात सही भी है। आदमी जब तक बोलता नहीं, उसके शब्‍द उसके काबू में रहते हैं और जब बोल देता है तो वह अपने ही शब्‍दों के काबू में आ चुका होता है। अब ये बात कौन समझाये इनको...

शनिवार, 29 सितंबर 2012

उस थाली में क्‍या था....?


कीमती लोग कीमती भोग




एक थाली पर कितना खर्चा है..आजकल इसकी बड़ी चर्चा है। पता नहीं क्‍यों ताकते हैं लोग दूसरे की थाली में....क्‍या क्‍या भरा थाली में रखी प्‍याली में। अच्‍छी आदत तो नहीं है। मुझे भी पसंद नहीं है दूसरे की थाली में घी को देखना। वैसे तो निगोड़े डाक्‍टर ने अपनी ही थाली में घी देखने को मना कर दिया है। घी और मक्‍खन सब बंद है। मक्‍खन लगाना तो मेरी चर्या में ही नहीं था। वैसे हमें ये बताया भी गया था कि मक्‍खन लगाने लगवाने से जिंदगी आसान हो जाती है..लेकिन स्‍वाभिमान की कीमत पर।

दूसरों की थाली में झांकने की बात हो रही थी... थाली में खीर थी या खीरा, हल्‍दी थी या जीरा। इससे क्‍या होता है.. सबके घर में हैं। नहीं है तो बस वह रकम, जो थाली के साथ जुड़ी है। सात हजार सात सौ इक्‍कीस रूपये। हम दाल रोटी खाने वाले इतनी बड़ी रकम सुनकर खाना खाने के बजाए हावका खा जाते हैं। इस क्षेत्र में हमारा नजरिया संकीर्ण नहीं होना चाहिए था। बड़ी पार्टियों के गठबंधन की तीसरी सालगिरह थी। कीमत बड़ी हो गयी तो क्‍या हुआ...?  पहले एक रूपये में सोलह आने हुआ करते थे और एक आने की एक थाली हुआ करती थी। अब देखो न, इस पुरानी गरीबी को देखते हुए गरीबों की थाली भी पूरे सोलह रूपये की हो गयी है। उसकी भी तो कीमत बढ़ी ही है, इनकी थाली की बढ़ गयी तो इतनी चिल्‍ल-पों क्‍यों..?  जितने कीमती लोग.. उतना कीमती भोग। देश में तीन साल से लगातार मिलकर, खाने का उत्‍सव था। वैसे भी कोयले खाने के बाद कुछ स्‍वाद भी तो बदलना जरूरी था।

ये लोग सच में कीमती हैं। जब चाहे सरकार गिरा दें। सरकार भी अब क्रिकेट के विकिट की तरह हो गयी है। जो चाहे गुगली डाले और चुनाव करा ले। फिर बढ़ेगा देश पर बोझ। दावत का खर्च उस बोझ के मुकाबले नगण्‍य है। दावत पानी होता रहना चाहिए। इसके और भी बहुत से फायदे हैं.... दूसरे के पेट की पावर का भी पता चल जाता है। कौन, कितना हजम कर जायेगा..?  अब तक कितना खा चुका है, और कितना खायेगा..। यहीं खायेगा या घर भी ले जायेगा...। अकेला ही आया है या पूरे घर-परिवार-रिश्‍तेदार को भी साथ लाया है, आदि आदि। भले ही हम जैसों को, गैस का सिलिंडर, एक भी आदमी को दावत देने में आनाकानी करने को कह रहा हो...। उनके लिए तो सिलिंडरों का भी टोटा नहीं है।  

       इस थाली में, अखबार में छपी खबर के अनुसार कुल छत्‍तीस भोग थे। देश के बड़े लोग छत्‍तीस भोग नहीं खायेंगे तो कौन खायेगा। अखबार वाले भी अजीब होते हैं.... अभी दो दिन पहले ही सरकारी कर्मचारियों को सात प्रतिशत मंहगाई भत्‍ता मिलने की घोषणा हुई थी। घोषणा होने की खबर के साथ देश पर पड़ने वाले बोझ की गणना करना और उसे प्रकाशित करना नहीं भूले। छपा था.... सात हजार चार सौ आठ करोड़ का बोझ देश पर पड़ गया। मंहगाई भत्‍ता बढ़ने से बोझ और थाली की कीमत से....
लगता है कि अखबार नवीसों के पास अभी इतने उन्‍नत कैलकुलेटर नहीं हैं कि इन तथाकथित कीमती लोगों के खर्चों की गणना कर पाएं... शायद....डिजिट कम पड़ जाएं....।

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

नोंक-झोंक.... हाथी और ऊंट में....


हाथी


हाथी बोला ऊंट से तुम क्या लगते हो ठूंठ से
कमर में कूबड़ कैसा है गला गली के जैसा है
दुबली पतली काया है कब से कुछ नहीं खाया है
हर कोने से सूखे हो लगता बिलकुल भूखे हो
कहां के हो क्या हाल है लगता पड़ा अकाल है

ऊंट


ऐ भोंदूमल गोल मटोल मोटे तू ज्यादा मत बोल
सबसे ज्यादा खाया है तू खा-खा कर मस्ताया है
फसलें चाहे अच्छी हों गन्ना हो या मक्की हो
तेरे जैसे हों दो चार हो जायेगा बंटाढार
जैसा अपना इण्डिया गेट देख देखकर तेरा पेट
समझ गये हम सारा हाल क्यों पड़ता है रोज अकाल

सब कुछ तू खा जायेगा तो ऊंट कहां से खायेगा

शनिवार, 12 मई 2012

जरा कल्‍पना कीजिए ..........



आबादी घटायेंगे तो रिश्‍ते भी घट जायेंगे 




देश के भविष्य का वास्ता देकर एक नारा दिया गया था ...... दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे । इस पर देश वासियों ने अमल किया भी, नहीं भी । कारण कुछ भी रहे हों, तीन बच्चे... अच्छे होते तो थे.... पर घर में, सफर में नहीं । अब नारा देने वालों ने मुसीबत कम करने में मदद की और दूसरा सीधा सपाट सा नारा ठोंक दिया... हम दो, हमारे दो । जी हां,  हम दो,  हमारे दो । इसके बाद, चैन से सो...हरकत बंद,  तीसरे पर प्रतिबंध । यह नारा कुछ ठीक लगा । सफर में रंग रहे । दो बच्चों का संग रहे । मियां बीवी के गिले शिकवे समाप्त । परिवार की इस मिली-जुली उपलब्धि को फिफ्टी-फिफ्टी बांट कर चलो मजे से,  सफर हो या सैर सपाटा । परिवार,  न बढ़ा,  न घटा । जनसंख्या भी जहां की तहां । मगर मेरे देश के लल्लुओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी और बड़े परिवार को संभालने में चारा तक खा गये । नतीजा..... नारा,  न रहा ।
लेकिन हमारी तरफ से नारा देने वालों को थैंक्यू । क्योंकि जनसंख्या पर इसी नारे से पूर्ण विराम लग सकता था लेकिन उनको तो देश की भलाई,  जनसंख्या रोकने के बजाय,  घटाने में नजर आ रही थी । सो भई उन्होंने जनसंख्या घटाने के लिए एक नया नारा जोड़ दिया । नारा देने की आदत जो ठहरी । नारा मिला ---
हम दोनों एक,  हमारा एक ।
नारा बड़ा असरदार लगा । असर दिखायेगा या नहीं, ये अलग बात है । अगर असर दिखाया तो जनसंख्या का ग्राफ शेयर मार्किट की तरह ओंधे मुंह गिरेगा । लेकिन इस बाउंसरी नारे को फैंकने से किन-किन रिश्तों की विकिट परमानैंट गिरेंगीं  ?  नारा देने वालों को हो न हो पर हमें इसका एडवांस में अफसोस है । क्योंकि .... इस नारे के इम्पलीमैंट होने से ... जीवन नीरस हो जायेगा । रसरंग नहीं होगा । ‘भास्‍कर वाला होगा’ । त्यौहार बेमजा होंगे । चलो ये भी सही, पर कुछ तो होंगे ही नहीं । क्योंकि कुछ त्यौहार रिश्तों की बैशाखियों पर खड़े हैं,  बैशाखी को छोड़कर । रिश्ते ढह जाएंगे, त्यौहार इतिहास के पन्नों पर रह जाएंगे । आप भी कल्पना करके देखिये ऐसे नवयुग की ।
शादी में दूल्हे के जूतों का अपहरण करने का रिवाज होता है । और इस क्रिया को सरअंजाम देती हैं साली जी । अब जब साली ही नहीं होगी तो क्या इस हरकत को सास करेगी ? और अगर कर भी देगी तो .... क्या और कौन सा लुत्फ आयेगा ?  दूल्हा मन मसोस कर रह जायेगा कि कोई जीजा जी कहने वाली ही नहीं है । अगर होती तो इस गाने का रिकार्ड बज रहा होता --
दुल्हन के देवर,  तुम दिखलाओ न यूं तेवर । पैसे दे दो, जूते ले लो ।
ये बात यहीं तक रहती तो भी गनीमत थी,  लेकिन... जीजा जी कहने....वाली तो दूर, वाला भी नहीं होगा । मतलब साफ कि साला नहीं । इट मींस बच्‍चे का मामा नहीं । शादियों में भात का रिवाज खत्म । हुआ न विवाह की एक रस्म का अंत ।
मामा-मामी नहीं तो भांजा भी नहीं । मामा-भांजे दोनों नहीं तो महाभारत नहीं । बी.आर.चैपड़ा खुजलाते थोबड़ा । मामा कंस और शकुनि,  न होंगे न मरेंगे । और आगे बढ़ो नुकसानदेह मसला है । भाई नहीं, तो रावण मरेगा ही नहीं । शायद राम को ही सीता वियोग में ....?  बहन नहीं,  भाई नहीं । रक्षाबंधन का बंधन समाप्त । भइया दूज का अवसान निश्चित । राखी बनाने वालों का धंधा चोपट । चलो एक फायदा तो होगा ही ननद भौजाई न होंगी न लड़ेंगी ।
चलिए आगे,  एक और सजा । भाभी नहीं तो होली बेमजा । कहते हैं --
सावन मीठा नहीं होता जब तक घेवर नहीं होता
बहू,  भाभी नहीं होती जब तक देवर नहीं होता
कौन गुदगुदायेगा देवर को ? कौन चहकाएगा भाभी को ? दीदी के दिवाने देवर, कुडि़यों को दाना नहीं डाल पायेंगे और न ही कोई देवर कह पायेगा .... भाभी तेरी बहना को माना, हाय रा........म, कुडि़यों का है जमाना ....। गांवों में प्रचलित एक लोकोक्ति आपने जरूर सुनी होगी ...
गन्ने से गंडेरी मीठी  सबसे मीठा राळा
भाई से भतीजा प्यारा सबसे प्यारा साळा
ऐसी लोकोक्तियां आप कभी व्यवहार में नहीं ला पाएंगे । लोकगीतों का भी सत्यानाश होगा....
सरोता कहां भूल आये प्यारे ननदोइया.....हम खो जाते है जिस-जिस रंगीन लोकगीत में,  सब खो जायेंगे अतीत में । एक हरियाणवी गीत -
जिज्जा तू काळा मैं गोरी घणी ।
न जीजा हों,  न सालियां हों....न गीतकार इस तरह के गीत कल्पना में ला पाएं । ओवर ऑल रिश्तों व त्यौहारों पर परमाणु बम का सा हमला होगा । मगर मित्रो ... जहां नुकसान होता है वहां कुछ लाभ भी होता है ।
लाभ सुनो .... दहेज प्रथा बिना प्रयास के समाप्त । दोनों परिवारों का सामान व पैसा एक ही घर और एक ही तिजोरी में । शादियां.....सस्ती और आसान । जनसंख्या का ग्राफ घटना शुरू । गरीबी समाप्त होने की तरफ और देश तरक्की की राह पर । दो-दो सास-ससुर के जत्थे, एक ही मियां बीवी के मत्थे । वरना बूढ़े-बुढि़या कहां जाएंगे ?  बहू, जलाई नहीं जा सकेगी । अगर जली भी, तो... दामाद का भी नंबर लगेगा । ईंट का जवाब पत्थर से मिलेगा ।
समस्याएं स्वतः हल होंगी । जिन्दगी सफल होगी । जमीन-जायदाद के पारिवारिक झगड़े नहीं होंगे । राजनीति में भाई-भतीजावाद नहीं होगा, पुत्रवाद या पुत्रीवाद को छोड़कर। क्या-क्या होगा, और क्या-क्या नहीं होगा ... कुछ आप भी सोच लेना .... मैंने क्या... ठेका ले रखा है सब कुछ सोचने, बताने का ? पर यदि ऐसी क्रांतिकारी शुरूआत वास्तव में होती है ... तो होने दीजिए ... इसी में भलाई है ।  मैं, ऐसे नवयुग का स्वागत करने के लिए पांचवे युग तक जीवित रहना चाहूंगा, जब हम ... अरबों से करोड़ों की तरफ लौट चलेंगे । ये मेरा इरादा है,  और आपका ? क्या खयाल है ? दादा जी बनना पसंद करोगे या नाना जी ?
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पी के शर्मा