शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

आज हरिभूमि में प्रकाशित आप भी पढ़े.....


पुराना केस पुरानी बीवी


पता चला है कि एक उच्‍च पदस्‍थ मंत्री ने महिलाओं की मर्यादा में गुस्‍ताखी कर डाली है। ये कोई इतनी बड़ी बात है क्‍या..?  जो कोहराम मचा दिया जाए। महिलाओं को पहले ही कौन सा सम्‍मान का दर्जा प्राप्‍त है...?  और किसने दिया इनको इतना सम्‍मान...?  अभी तक तो किसी ने दिया नहीं है। लोग पैर की जूती से तुलना करते आए हैं।

मंत्री ने कुछ ऊंच-नीच कह दिया तो, हो सकता है मंत्री जी ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहते हों और जबान फिसल गयी हो...। मुंह में चिकनाहट भरी लार तो होती ही है, सो जबान कहां तक संभलेगी। इसमें तो गुठली भी नहीं होती जो थोड़ी बहुत रूकावट हो पाती। और जबान जब जवानी की बातें कर रही हो तो बात ही क्‍या है, फिसलना लाजमी है।

आप क्‍या समझते हैं कि आदमी जितने ऊंचे पद पर होता है, उसकी सोच भी उतनी ही ऊंची हो जाती है। मेरे विचार से पद ऊंचा ही रहना चाहिए, सोच ऊंची हो, न हो। आदमी के व्‍यक्तिगत चरित्र का उच्‍च पद से कोई सरोकार नहीं है। ओछी हरकत और तुच्‍छ बातें करने का उसे भी तो हक है। छींटा-कशी करना, व्‍यंग्‍यकारों की बपौती नहीं है। जब कवि अपनी पत्‍नी जो एक महिला ही है, को मंच पर उपहास का केंद्र बना कर तालियां और धन बटौर सकता है तो, ऐसा कोई भी कर सकता है। मंत्री भी कर सकता है। किसी का एकाधिकार तो है नहीं। कुछ मौसम भी गुनाहगार होता है, लेकिन फागुन तो अभी बहुत दूर है। फागुनी छेड़-छाड़ का भी सहारा नहीं। सावन भी चला गया है, मल्‍हार की मस्‍ती का भी मौसम नहीं है। ये तो पितरों को याद करने और श्राद्ध-कर्म करने का पखवाड़ा है।

इस समय ऐसी तुच्‍छ बातों का तिरस्‍कार होना चाहिए। पर न जाने क्‍यूं... मीडिया भी नहीं मान रहा है और महिलाओं की किसी संस्‍था ‘लक्ष्‍य’  ने भी कोर्ट में केस कर दिया है। क्‍या जरूरत थी केस करने की...?  फैसले होने में इतना समय बीत जाता है कि मुद्दे और मुद्दयी दोनों पस्‍त हो चुके होते हैं। लोग भूल जाते हैं कि ऐसा-वैसा कोई कभी केस भी हुआ करता था। या फिर कोई नया, इससे बड़ा और चौंकाने वाला केस हो चुका होता है तथा जनता को वह पुराना केस पुरानी बीवी की तरह मजेदार नहीं लग रहा होता है। आज आप इससे ज्‍यादा चटखा़रेदार ख़बर पेश कर दीजिए मंत्री जी की किरकिरी होनी बंद हो जाएगी।

     अंत में मैं तो यही कहू्ंगा कि ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यंते, रमंते तत्र देवता’ को मानने वाले देश के तहजीबयाफ्ता शहर लखनऊ में ऐसी अशोभनीय घटना हो जाए तो महिलाओं के लिए ही नहीं, देश और शहर दोनों के लिए भी अशोभनीय है। पर कौन मानता है इन सब प्रतिमानों को। हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि कम बोलना और कम खाना कभी नुकसान नहीं देता। बात सही भी है। आदमी जब तक बोलता नहीं, उसके शब्‍द उसके काबू में रहते हैं और जब बोल देता है तो वह अपने ही शब्‍दों के काबू में आ चुका होता है। अब ये बात कौन समझाये इनको...

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डर कर मत दूर हट