गुरुवार, 30 सितंबर 2010

तीसरे हरियाणा अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में राज्‍य के मुख्‍यमंत्री और गवर्नर शामिल हो रहे हैं

डीएवी गर्ल् कॉलेज, यमुनानगर में 1 अक्टूबर से आयोजित तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल् समारोह में भारतीय फिल् जगत की कई बड़ी हस्तियां शिरकत करेंगी। समारोह के निदेशक अजित राय ने आज यहां एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि इसमें भारत और विदेशों की लगभग 50 फिल्में दिखाई जायेंगी। उन्होंने कहा कि इस फेस्टिवल का उद्घाटन दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित सुप्रसिद्ध फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन करेंगे। अडूर की मलयालम फिल् शेडो किल के प्रदर्शन से फेस्टिवल की शुरूआत होगी।

यह समारोह 7 अक्टूबर तक चलेगा जिसमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, अमरीका, पोलैंड, रूस, जापान, चीन, ईरान, स्वीडन, फिलीपिन्, हांगकांग, डेनमार्क, हंगरी, नार्वे, अर्जेंटीना, ब्राजील आदि देशों की फिल्मों का प्रदर्शन होगा। उन्होंने बताया कि इस समारोह में ईरानी सिनेमा का विशेष खंड प्रदर्शित किया जाएगा। इस खंड का शुभारंभ भारत के ईरानी दूतावास में ईरान कल्चरल हाऊस के निदेशक अली देहघई करेंगे। 3 अक्टूबर को साहित् और सिनेमा खंड का शुभारंभ हंस के संपादक राजेन्द्र यादव करेंगे। इस अवसर पर उनके उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से बासु चटर्जी की बनाई फिल् का विशेष प्रदर्शन होगा।

फेस्टिवल की आयोजक डीएवी गर्ल् कॉलेज की प्रिंसीपल सुषमा आर्य ने बताया कि यह खुशी की बात है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा और गवर्नर जगन्नाथ पहाडि़या ने समारोह में आने की स्वीकृति दी है। इस फेस्टिवल में हरियाणा में सिनेमा के विकास पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन भी किया जा रहा है जिसकी अध्यक्षता हरियाणा स्टेट चाइल् वेल्फेयर सोसायटी की उपाध्यक्ष आशा हुड्डा करेंगी। उन्होंने बताया कि हरियाणा के गवर्नर जगन्नाथ पहाडिया 6 अक्टूबर की शाम 4 बजे सीमा कपूर की राजस्थानी फिल् हाट वीकली बाजार के हरियाणा प्रीमियर पर मुख् अतिथि होंगे।

अजित राय ने बताया कि दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित भारत के विश् प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल से दर्शकों की बातचीत का विशेष आयोजन 5 अक्टूबर को 2.30 बजे से 5 बजे तक किया जा रहा है। फेस्टिवल में श्याम बेनेगल की 2 फिल्में समर और सूरज का सातवां घोड़ा दिखाई जा रही हैं। चर्चित युवा फिल्मकार अनवर जमाल दर्शकों के सामने श्याम बेनेगल से विशेष बातचीत करेंगे। इसी दिन पंजाब में किसानों की आत्महत्याओं पर अनवर जमाल की फिल् हार्वेस् ऑफ ग्रीफ का प्रीमियर होगा। उन्होंने बताया कि 6 और 7 अक्टूबर को भारत के अंतर्राष्ट्रीय अभिनेता ओमपुरी फेस्टिवल में मौजूद रहेंगे। फेस्टिवल का अंतिम दिन 7 अक्टूबर ओमपुरी की फिल्मों को समर्पित किया गया है। ओमपुरी समापन समारोह के मुख् अतिथि भी होंगे। उस दिन उनकी 3 अंतर्राष्ट्रीय फिल्मेंईस् इज ईस्, सिटी ऑफ जॉय और माइ सन इज फाइनेटिक दिखाई जायेंगी।

हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा 4 अक्टूबर को दिन में 3 बजे ओमपुरी और यशपाल शर्मा की मुख् भूमिकाओं वाली अश्विनी चौधरी की फिल् धूप का विशेष प्रदर्शन देखेंगे। यह फिल् कारगिल युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों का सघर्ष बयान करती है। इसी दिन अश्विनी चौधरी की राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हरियाणवी फिल् लाडो भी दिखाई जायेगी। हरियाणा मूल के चर्चित फिल् अभिनेता यशपाल शर्मा की 4 फिल्में के दौरान दिखाई जाएंगी

अजित राय और सुषमा आर्य ने बताया कि फेस्टिवल के दौरान छात्र-छात्राओं के लिए एक फिल् एप्रीसिएशन कोर्स भी चलेगा। इसके संयोजक सुप्रिसिद्ध फिल्मकार के. बिक्रम सिंह होंगे। इसमें छात्रों का विश् की महान फिल्मों से परिचय कराया जायेगा और फिल् निर्माण से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों पर चर्चा होगी। इसका उद्घाटन 2 अक्टूबर की सुबह राष्ट्रीय फिल् अभिलेखागार, पुणे के निदेशक विजय जाधव करेंगे। भारतीय फिल् एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारी शरण मुख् अतिथि होंगे। इसी दिन चिल्ड्रन फिल् सोसायटी, इंडिया के सहयोग से बच्चों की फिल्मों का उत्सव शुरू होगा। इस दौरान ब्लू अम्ब्रेला फिल् की बाल कलाकार श्रेया शर्मा दो अक्टूबर को कालेज में उपस्थित रहेंगी। नाना पाटेकर अभिनीत फिल् अभय का प्रदर्शन भी समारोह में होगा।

तीसरें हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल् समारोह के दौरान कम से कम 9 फिल्मों का भव् हरियाणा प्रीमियर आयोजित किया जा रहा है। ये वे फिल्में हैं जो अभी व्यवसायिक रूप से रिलीज नहीं हुई हैं। ये फिल्में हैं कालबेला, (गौतम घोष), हाट वीकली बाजार (सीमा कपूर), जब दिन चले रात चले (त्रिपुरारी शरण) स्ट्रिंगबाउंड विद फेथ (संजय झा), टुन्नू की टीना (परेश कामदार), सबको इंतजार है (रंजीत बहादुर), हनन (मकरंद देशपांडे), बियोंड बॉर्डर (शर्मिला मैती) और हार्वेस् आफॅ ग्रीफ (अनवर जमाल)

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

...और ढह गया पुल

मेरी बेटी ने सूचना दी ... पापा जो पुल नेहरू स्‍टेडियम के पास बन रहा था वह गिर गया और जो मजदूर उस पर काम कर रहे थे, वे भी गिर गये। बहुत से घायल हो गये हैं। मैंने कहा कोई बात नहीं .. । मुझे उदासीन सा पाकर, हैरान, परेशान होकर बोली.. ब्रिज गिर गया... मजदूर गिर गये, घायल भी हो गये और आप हैं कि... कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, कहे जा रहे हैं, क्‍या मतलब है? दर्दनाक खबरों को पढ़कर आंखें छलकाने वाले आज इतने उदासीन क्‍यों और कैसे हो गये ?
आखिर बेटी के प्रश्‍नवाचक भावों को भांपकर मैंने चुप्‍पी तोड़ी और उसे समझाया।
देश में खेल होने वाले हैं। सारी जनता भांप गयी है कि खेल होने वाले हैं...दिखावे के लिए, असल खेल तो हो चुके हैं। हां... वे सब अंदर के खेल हैं। ये बंदर के खेल नहीं हैं जो सार्वजनिक किये और दिखाये जाते हैं। बंदर का खेल, बंदर वाले मदारी का पेट भर देता है। अंदर के खेल बैंक खातों में भी उजाला भर देते हैं। उजाले की तलाश्‍ा में सब मस्‍त हैं। जिम्‍मेदारी से बचने का बहाना चाहिए, वो है। सारा खेल बारिश ने बिगाड़ा है, वरना हम ये कर लेते और वो कर लेते। गीला तौलिया उड़ते बादलों पर सुखाने का इरादा। समझने वाले भी जानते हैं। पर मदारी करें क्‍या... बेइमानी की चादर बिछानी भी है, छुपानी भी है। जनता की नजर को बादलों की तरफ मोड़ना मजबूरी है। शर्म से पानी-पानी होने से बचना है तो जिम्‍मेदारी के सारे पत्‍थर बरसात के पानी पर ही तो फैंकने हैं।
इधर बरसात का पानी कब तक पानी रह पाएगा। उसका कीचड़ में बदलना तय माना जा रहा है। हर पत्‍थर छींटे उड़ायेगा। कितनों के कपड़े दागदार होंगे ये तो समय भी नहीं बताएगा, ये अफसोसजनक है। स्‍टेडियम की छत की कभी भी और कहीं से भी दो टुकड़े सीलिंग अचानक गिर जाती है तो लगता है जैसे देश की आबरू में कोई छेद हो गया है।
बेटी... सच में पुल का गिरना कोई बात नहीं। बात अगर है, तो ये है - कि देश के कर्णधारों का चरित्र गिर गया है। कंपनियों और उनके इंजिनियरों की लालसा का घड़ा, शायद अभी भी खाली रह गया है। देशप्रेम है, दिखावे का। नैतिकता नालियों में बरसाती पानी की तरह बह रही है। इमानदारी लापता है, लगता है बाढ़ में बह गयी, ढूंढे़ नहीं मिल रही। बिटिया... ये चिंतन का विषय है । पुल दुबारा बना दिया जायेगा। धन दुबारा उपलब्‍ध करा दिया जायेगा। चरित्र, देशप्रेम और नैतिकता का, क्‍या दुबारा आगमन हो पायेगा। जो मजदूर शारीरिक रूप से घायल हुए हैं उनके घाव तो भर जाएंगे, पर जो इस देश की आत्‍मा और आबरू छलनी हो रही है, उसका क्‍या होगा। जानती हो, छलनी के छेद कभी नहीं भरे जाते।

रविवार, 19 सितंबर 2010

यमराज की मौत

पाठकों यह कविता कुछ कविता चोरों ने चुरा ली है जिनको पता चले तो बताना।

हम बीमार थे
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
को तैयार थे
रोज़ अस्पताल आते
हमें जीवित पा
निराश लौटे जाते

एक दिन हमने
खुद ही विचारा
और अपने चौथे
नेत्र से निहारा
देखा
चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
शायद यमराज लेट हो गया है
या फिर
उसकी नज़र फिसल गई
और हमारी मौत
की तारीख निकल गई
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
रो रहे हैं
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा
यमराज का भैंसा
बीमार हो गया होगा
या यम
ट्रेन में सवार हो गया होगा
और ट्रेन हो गई होगी लेट
आप करते रहिए
अपने मरने का वेट
हो सकता है
एसीपी में खड़ी हो
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
और मौत बोनस पा गई हो
आपसे पहले
औरों की आ गई हो

जब कोई
रास्ता नहीं दिखा
तो हमने
यम के पीए को लिखा
सब यार-दोस्त
हमें कंधा देने को रुके हैं
कुछ तो हमारे मरने की
छुट्टी भी कर चुके हैं
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
सारे
इस बात से डरे हैं
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
हम नहीं मरे
तो क्या खुद मरेंगे
वरना बॉस को
क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भी
कोई जवाब नहीं आया
तो हमने फ़ोन घुमाया
जब मिला फ़ोन
तो यम बोला. . .कौन?
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
मौत की
लाइन में खड़े हैं
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
हमें जीवन से
छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत
लाइन में नहीं है
या यमदूतों की कमी है

नहीं
कमी तो नहीं है
जितने भरती किए
सब भारत की तक़दीर में हैं
कुछ असम में हैं
तो कुछ कश्मीर में हैं

अधिकांश भारत की राजधानी में
ब्लू लाईन सरपट दौड़ा रहे हैं
जो सामने आ रहा है
उसी को निपटा रहे हैं
किसी के घर नहीं
जा पा रहे हैं
इसीलिए आपके घर
नहीं आ रहे हैं

जान लेना तो ईज़ी है
पर क्या करूँ
हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
अभी तो हमें भी
मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ
मेरी भी
मौत की तारीख
निकल चुकी है
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

--
पवन चंदन द्वारा चौखट के लिए 10/23/2007 03:50:00 AM को पोस्ट किया गया

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

गुब्‍बारा चालिस करोड़ का ....

जी हां, देख लीजिए गुब्‍बारा......... जो चालिस पैसे नहीं... चालिस रूपये नहीं...चालिस हजार नहीं... चालिस लाख नहीं... पूरे चालिस करोड़ का है जी...




गुरुवार, 9 सितंबर 2010

टेक्निया इंस्‍टीच्‍यूट ऑफ एडवांस स्‍टडीज की कार्यशाला में अविनाश वाचस्‍पति ने कहा कि

तकनीकी जानकारी के कारण इस पोस्‍ट के मध्‍य में खाली स्‍थान रह गया है। पूरी पोस्‍ट पढ़ने और सभी चित्रों को देखने के लिए इस पोस्‍ट के अंत तक अवश्‍य पहुंचे। आप में से जो भी इसे सुधार सकते हों, उनका स्‍वागत है। - पवन चंदन



http://www.tecniaindia.org
प्रिय भाई सुधीर रिंटन जी और सभी उपस्थित साथियों,

मैं अपनी बात कहने से पहले अपनी एक व्‍यंग्‍य रचना पढ़ना चाह रहा था परंतु तकनीक नहीं चाहती कि मैं अपनी रचना पढ़ सकूं। खैर ... इसमें भी कोई भलाई ही होगी। आप जानते ही हैं कि

कलयुग अब सूचनायुग के साथ समन्‍वय करके दौड़ रहा है और इस सूचनायुग का गेट इंटरनेट है जिसके भीतर की सारी सामग्री हमने-आपने ही संजोई है। जिसे हम-आप संजो रहे हैं उसे सब देख रहे हैं। मुंह से कही गई बात कान तक पहुंचने के लिए कई माध्‍यम बन गए हैं। सीधी बात अब मजा ही नहीं देती है। उससे सनसनी भी नहीं उपजती है। एक कह रहा है और सुनने वाले के माध्‍यम से उसे सब तक पहुंचाया जा रहा है। जरिया कोई भी तकनीक हो सकती है। रेडियो, अखबार, टी वी अब पुराने हो गए हैं। इनमें मोबाइल सबसे शक्तिशाली और सबसे कम उम्र का हम सबका साथी है। इसे सब तकनीक के साथ मिलाकर इसके छोटे से स्‍वरूप में सभी पसंद कर रहे हैं। इसके बाद कंप्‍यूटर, लैपटाप का नंबर आता है और अन्‍य सब चीजें इन सबके बाद। कल मोबाइल से और नई चीज भी आ सकती है जो मोबाइल को बाहर कर सकती है। इस सबके पीछे इंसान का मानस ही है। मन जो सोचता है, उसे पा ही लेता है, बस प्रयास सच्‍चे मन से किए जाने चाहिए।

इस प्रकार से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को वर्कशाप का नाम दिया जाता है जबकि आप जरा गहराई से विचार करें तो पायेंगे कि हमारा सबका जीवन ही एक वर्कशाप है, इससे अलग कुछ नहीं। हर कोई, हर समय कुछ न कुछ वर्क करता ही रहता है। जब वह सोता है, तब उसके अवचेतन मन में जो प्रक्रिया चलती रहती है, वो भी एक अलग प्रकार की वर्कशाप ही है। मैं यहां आपके सामने और आप मेरे सामने वर्क कर रहे हैं। कर्म में विश्‍वास रखने वालों के लिए कर्म ही पूजा है।

अब से पहले एक तरफा सूचना संप्रेषण ही होता रहा है यानी जिसने लिखा या दिखाया – उसे पढ़ा-सुना-देखा गया परंतु अब इससे अधिक वापिस तुरंत प्रतिक्रिया पाने की जो प्रक्रिया बनी है। यह प्रक्रिया मतलब जो पढ़-देख-सुन रहे हैं – वे आपसे संवाद भी स्‍थापित कर रहे हैं। आप तुरंत प्रतिक्रिया पाते हैं और यह तुरंत प्रतिक्रिया का मिलना – आपको मुग्‍ध करता है। राय चाहे अच्‍छी हो या बुरी – रचनात्‍मकता के तेजी से विकास के लिए जरूरी है जिससे आप अपने कार्य को पूरी सकारात्‍मकता के साथ बेहतर तरीके से कर पाते हैं।

जो यह नया मीडिया है, यही इसकी खासियत है और यही इसकी खूबसूरती है। पहले जमाने के गांव अब इंटरनेट रूपी गांव के रूप में सबके सामने मौजूद हैं। हम सब सूचना के वाहक हैं। हम ही सूचना देते हैं और हम ही सूचना पाते हैं। आज जो जन्‍म ले रहा है, वो तकनीक के युग में जन्‍म लेता है। पहले जो बच्‍चे हाथ में कागज को तो पकड़ते ही नहीं थे, नोट पकड़ लेते थे, वे अब नोट भी नहीं पकड़ते, सीधे मोबाइलफोन की तरफ सहज ही आकर्षित होते हैं।

इस सूचना युग में मेरे हमउम्र साथी बहुत मुश्किल से, झिझक के साथ कंप्‍यूटर को हाथ लगाने का साहस करते हैं। उसी प्रकार जिस प्रकार टू व्‍हीलर चलाने वाला, कार चलाने में अपने को असमर्थ पाता है और हौसला नहीं कर पाता। कार कैसे चला पाऊंगा और इस हौसले को पाने में कई बरस लग जाते हैं। पर आप सब इस सूचनायुग के सच्‍चे साधक हैं। आपके मन में ऐसी किसी झिझक की बात नहीं है। झिझक तो मेरे मन में है कि मैं जो चाह रहा हूं, वो आपको अच्‍छे से समझा भी पाऊंगा या नहीं। पर मेरा और मेरे युवा सहयोगी कनिष्‍क कश्‍यप की पूरी कोशिश रहेगी कि जो हम आपको सिखलाने-बबतलाने आये हैं, उसे बहुत अच्‍छे से आपको न सिर्फ बतला ही पायें अपितु अच्‍छा अभयास भी करवा सकें। जिंदगी में आपको सिर्फ खुद ही नहीं सीखना होता अपितु आप जो सीखते हैं, उसे सबको सिखाना भी सबका ध्‍येय होना चाहिए। बिना किसी पूर्वाग्रह और बिना किसी लोभ के। यह भाव मन में स्‍वयंमेव उठने चाहिए।

जो काम अब तक देश-विदेश में हिन्‍दी फिल्‍मों के गीत करते आए हैं, वो कमान अब हिन्‍दी ब्‍लॉगों ने संभाल ली है और इसमें आप सबको अपना भरपूर योगदान, बिना अपनी दैनिक जिम्‍मेदारियों को प्रभावित किए बिना देना है और देते रहना है और सबको इस कार्य के लिए प्रेरित भी करना है। हिन्‍दी में टाइप करना, हिन्‍दी में ब्‍लॉग बनाना, उसमें अपनी रचना और चित्र लगाना, अपने खूबसूरत भावों को किसी भी विधा में साकार करना, पढ़ी-सुनी रचनाओं पर अपनी सच्‍ची प्रतिक्रिया टिप्‍पणियों के माध्‍यम से देना, अब बहुत आसान है।

जानकर अच्‍छा लग रहा है कि आपमें से कुछ साथी इस माध्‍यम में सक्रिय भी हैं। कनिष्‍क जी अब आपको इस माध्‍यम से काफी तकनीकी पहलुओं की व्‍यवहारिक जानकारी देंगे और उसके बाद हमारे मध्‍य खुला वार्तालाप होगा। आप सब एक एक करके पूछते जाएंगें, ब्‍लॉग बनायेंगे अपनी कठिनाईयों के संबंध में बतलाते जायेंगे और हम मिलकर आपकी समस्‍याओं को दूर करते जायेंगे।

धन्‍यवाद ।




शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक व्‍यंग्‍य लेख हिण्‍डोन सिटि राजस्‍थान की एक खबर पर प्रेरित होकर लिखा है।

खून... निकाला ही तो है, किया तो नहीं

खबर पढ़ कर पत्नी चिल्लाई, देखना...मरे नासपीटों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा....उनका खून निकाल लिया। मैंने कहा, निकाला ही तो है, किया तो नहीं ? कर ही देते तो हम क्या कर लेते, सिर्फ पढ़ लेते और अखबार मोड़ कर रख देते, जैसा रोज करते हैं। पत्नी, मेरी बेरूखी देखकर आपे से बाहर हो गयी। बोली.. आप तो पत्थर हो...पत्थर। इतनी बड़ी खबर है और कोई असर नहीं। मैंने समझाया...ये सब लालच के वशीभूत हुआ है। बच्चों को कचौरी पसंद थी उसके बाद जूस पीने का भी लालच। डॉक्टर और उसके कुछ साथियों ने मिल कर जूस पिलाया और जूस निकाल लिया। जूस के बदले जूस। जूस फलों का हो या बालकों का, जूस तो जूस है। हमारे देश में उनका भी बाल बांका नहीं होता जो जूस पीने के बाद, गुठली तक नहीं छोड़ते। निठारी काण्ड भूल गयी क्या ? तुम भी कौन सा आम की गुठली छोड़ देती हो.. उसे भी भून कर खा लेती हो कि चलो पेट साफ हो जाएगा।पत्नी, ज्वालामुखी हो चली थी, बोली...आप, आम और बच्चों में फर्क नहीं समझते? मैंने कहा... समझता हूं और अच्छी तरह समझता हूं। अगर ये बच्चे आम न होते तो इनका जूस क्यों निकलता। आम थे तभी तो निकला। जो खास होते हैं उनको घर में ही कचौरी और जूस, बिना भूख ही मिल जाता। ये भूख ही है... जो अपराध को जन्म देती है। बच्चों को भूख थी कचौरी की, डाक्टर और उसके साथियों को भूख थी पैसा बनाने की। बनाने और कमाने में भी फर्क है। कमाने यानि कि कम आने में तसल्ली नहीं होती न। दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूख शांत कर रहे थे। पैसा बनाने में काम अमानवीय है या नहीं, ये सब देखने सोचने की किसे फुरसत है?व्यापार में तो ऐसा ही होता है। सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो। इस खून से भी किसी की जान ही बचेगी, क्यों घबराती हो। सवालिया अंदाज में बोली...क्या खाक जान बचेगी, इन्होंने जो खून निकाला है वह सुल्फा, गांजा और अफीम खिलाकर निकाला है। हो सकता है स्मैक या हीरोइन न पिला दी हो। अब जिसको भी खून चढ़ाया जायेगा वही नशे के वशीभूत हो जायेगा। ये तो उसकी भी धीमी मौत का इंतजाम हुआ न। मैंने कहा... मौत भी धीरे-धीरे ही आनी चाहिए। कौन है यहां, जो मरने की जल्दी में हो? सभी तो देर से और, और देर से मरना पसंद करते हैं। सब यही सोचते हैं आज नहीं कल और कल नहीं परसों। ये कल और परसों, बरसों में बदल जाए तो क्या कहने। पत्नी आंखें तरेर कर अंग्रेजी बोलने लगी। ‘‘इन टू व्हाटऐवर हाउसिस, आई एंटर, आई विल गो इनटू दैम फॉर द बैनिफिट ऑफ द सिक, एण्ड विल एब्सटेन फ्रॉम एवरी वालैन्टरी एक्ट ऑफ मिस्चीफ एण्ड करप्शन... समझे कुछ ?ये एक लाइन है उस शपथ की, जो डॉक्टर, डॉक्टर बनने के बाद और रोगियों की सेवा करने से पहले लेता है तथा डिग्री प्राप्त करता है। क्या हुआ, इस शपथ का ? मुझे फिर समझाना पड़ा... अरी बावरी, अगर ये डिग्री नकली है तो शपथ की जरूरत ही कहां है ? है भी तो शपथ असली होगी, इस बात की क्या गारंटी है? मेरी सुन, ये शपथ वगैरह सब जनता को विश्‍वास के दायरे में रखने का एक साधन मात्र है। ये पति-पत्नी का गठबंधन नहीं है जो सात फेरे के बदले सात-सात जनम निभाना ही पड़े। ऐसा भी सुना गया है कि एक सरकारी डॉक्टर के प्राइवेट क्लीनिक का फीता स्वयं स्वास्थ्य मंत्री ही काट देता है और वहां मुफ्त इलाज का जुगाड़ बिठा लेता है, समझीं...। ये शपथ, नियम और कानून सब दैनिक जीवन के ‘मेकप’ हैं। जब चाहा, वक्तव्यों के चार छींटे मारे और मेकप धो दिया।