...और ढह गया पुल
मेरी बेटी ने सूचना दी ... पापा जो पुल नेहरू स्टेडियम के पास बन रहा था वह गिर गया और जो मजदूर उस पर काम कर रहे थे, वे भी गिर गये। बहुत से घायल हो गये हैं। मैंने कहा कोई बात नहीं .. । मुझे उदासीन सा पाकर, हैरान, परेशान होकर बोली.. ब्रिज गिर गया... मजदूर गिर गये, घायल भी हो गये और आप हैं कि... कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, कहे जा रहे हैं, क्या मतलब है? दर्दनाक खबरों को पढ़कर आंखें छलकाने वाले आज इतने उदासीन क्यों और कैसे हो गये ?
आखिर बेटी के प्रश्नवाचक भावों को भांपकर मैंने चुप्पी तोड़ी और उसे समझाया।
देश में खेल होने वाले हैं। सारी जनता भांप गयी है कि खेल होने वाले हैं...दिखावे के लिए, असल खेल तो हो चुके हैं। हां... वे सब अंदर के खेल हैं। ये बंदर के खेल नहीं हैं जो सार्वजनिक किये और दिखाये जाते हैं। बंदर का खेल, बंदर वाले मदारी का पेट भर देता है। अंदर के खेल बैंक खातों में भी उजाला भर देते हैं। उजाले की तलाश्ा में सब मस्त हैं। जिम्मेदारी से बचने का बहाना चाहिए, वो है। सारा खेल बारिश ने बिगाड़ा है, वरना हम ये कर लेते और वो कर लेते। गीला तौलिया उड़ते बादलों पर सुखाने का इरादा। समझने वाले भी जानते हैं। पर मदारी करें क्या... बेइमानी की चादर बिछानी भी है, छुपानी भी है। जनता की नजर को बादलों की तरफ मोड़ना मजबूरी है। शर्म से पानी-पानी होने से बचना है तो जिम्मेदारी के सारे पत्थर बरसात के पानी पर ही तो फैंकने हैं।
इधर बरसात का पानी कब तक पानी रह पाएगा। उसका कीचड़ में बदलना तय माना जा रहा है। हर पत्थर छींटे उड़ायेगा। कितनों के कपड़े दागदार होंगे ये तो समय भी नहीं बताएगा, ये अफसोसजनक है। स्टेडियम की छत की कभी भी और कहीं से भी दो टुकड़े सीलिंग अचानक गिर जाती है तो लगता है जैसे देश की आबरू में कोई छेद हो गया है।
बेटी... सच में पुल का गिरना कोई बात नहीं। बात अगर है, तो ये है - कि देश के कर्णधारों का चरित्र गिर गया है। कंपनियों और उनके इंजिनियरों की लालसा का घड़ा, शायद अभी भी खाली रह गया है। देशप्रेम है, दिखावे का। नैतिकता नालियों में बरसाती पानी की तरह बह रही है। इमानदारी लापता है, लगता है बाढ़ में बह गयी, ढूंढे़ नहीं मिल रही। बिटिया... ये चिंतन का विषय है । पुल दुबारा बना दिया जायेगा। धन दुबारा उपलब्ध करा दिया जायेगा। चरित्र, देशप्रेम और नैतिकता का, क्या दुबारा आगमन हो पायेगा। जो मजदूर शारीरिक रूप से घायल हुए हैं उनके घाव तो भर जाएंगे, पर जो इस देश की आत्मा और आबरू छलनी हो रही है, उसका क्या होगा। जानती हो, छलनी के छेद कभी नहीं भरे जाते।
छलनी के छेद भला कौन कब भर पाया है...सटीक व्यंग्य!
जवाब देंहटाएंपुल गिर गया है -- शायद सच में पुल गिरा है जो जोड़ता है.
जवाब देंहटाएंPathetic !
जवाब देंहटाएंshaandar vyangy....
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