गुरुवार, 26 मार्च 2009

एक व्‍यंग्‍य हरिभूमि में प्रकाशित

बड़े बड़ों का हाजमा



मेरा एक मित्र हैरान परेशान सा अखबार लहराते हुए कमरे में दाखिल हुआ और मेज पर पटकते हुए बोला....... लो..... कर लो, गल। रिश्‍वत और वो भी दो करोड़ की। हद हो गयी मुंह फाड़ने की। ऐसा भी नहीं कि गलती से ज्यादा फट गया हो। एक तुम और हम हैं, जो इमानदारी से चूल्हे में फूंक मार-मार कर परेशान हैं और चूल्हा है कि सुलगता ही नहीं। लोगों को इतना ईं..धन मिल जाता है कि भाड़ भभक रहे हैं। लगता है हम तुम पीछे हैं और जमाना ज्यादा ही आगे निकल गया, नहीं भागे जा रहा है।

मैंने उसके उबाल को कॉफी पिलाकर शांत किया और समझाया......
मेरे यार, ये हाई स्टेटस का मसला है। उपायुक्त हैं, वो भी राजधानी के नगर निगम के। पद की गरिमा नहीं रखनी क्या.....। पद को देखते हुए रकम ज्यादा नहीं है। अब तुम चाहो उपायुक्त दो कोड़ी का होकर रह जाए...। पुराने जमाने में कोड़ी 20 को कहते थे। उपायुक्त 20 रू के लिए हाथ फैलाएगा...। ऐसा कैसे हो सकता है?

मेरे प्रश्‍नीय वक्तव्य सुनकर उसे फिर से उबाल आने लगा था। उसके इस नये उबाल में मुझे हर्षद मेहता का नाम तैरता नजर आ रहा था। वही पुराना किस्सा याद कर पूछने लगा....हैसियत की ही बात थी तो उस शेयर दलाल पर एक करोड़ देने का आरोप क्यों उछला था, एक अरब का क्यों नहीं? उपायुक्त की हैसियत तो उस मामले के मुकाबले, पासंग भी नहीं है।

मैंने अपने दिमाग की फिर घुण्डी घुमाई और मित्र को एक बात और समझाई....जमाना बदल रहा है, आदमी की तरह पैसे की कीमत भी गिर रही है। लगता है.... देखते सुनते नहीं हो..... आदमी और शेयर मार्किट का सेंसैक्स कब गिर जाए... कुछ पता है? मंदी का दौर है। दूसरों के लाखों करोड़ों देखकर तू क्यों थर्मामीटर से बाहर जा रहा है? मैं तो कहता हूं, आइसक्रीम की तरह ठंडा रहना और जमना सीख ले। नहीं मानता तो...तेरे लिए कटोरा मंगवा देता हूं..... ले जा... और भीख... ले।

अरे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदले तो चलता है, पर तरबूज को देखकर खरबूजा कैसे गुजारा करेगा? तू अपनी औकात देख... अगले की है...तो है। बड़े लोगों का हाजमा है...। मेरे भाई.... पराये तंदूर की भभक देखकर तू तो मत सुलग। जा.... और अपने काम से काम रख। आज ड्यूटी नहीं जाना क्या?

और अविनाश वाचस्‍पति को मुंह लटकाये जाते हुए देखना मुझे दर्दनाक लग रहा था।

मंगलवार, 24 मार्च 2009

कटते हुए पेड़

मेरे घर के सामने विकास हो रहा है
इस विकास के नाम पर विनाश हो रहा है
नेहरू स्‍टेडियम और हमारे घर के बीच
एक सीमा थी
सीमा थी एक नाले की
इसकी काया पलट हो रही है
तमाम नीलगिरि के पेड़ धराशाई कर दिये गये
हो जाएं पेड़ धराशाई
न मिले पेड़ों की परछाई
लेकिन किसी ने नहीं विचारा
घोंसले टूटने पर कहां जाएगा
परिंदा बेचारा
लेकिन परिंदा बेचारा नहीं है
नकारा नहीं है
नया नीड़ बना लेगा
नई राह पा लेगा
कहीं और जाकर खा लेगा
पर अफसोस
मैं नहीं सुन सकूंगा
सुबह का कलरव
सुबह का कलरव
सुबह का कलरव

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

'' व्‍यंग्‍य लेख '' गुड़ की भेली '' हरिभूमि में प्रकाशित हो चुका है

पुराने जमाने की बात है, सांझ होते ही मोहल्ले का एक बच्चा आवाज लगाता था-
आओ बालको खेल्लैंगे
गुड़की भेल्ली फोड़ैंगे
बांट-बांट कै खावैंगे

ये टेर सुनते ही गली में सभी बच्चे पहुंच जाते थे, छुअम् छुआई खेलने के लिए। इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। नेहरू जी ने कहा था कि ‘आज के बच्चे कल के नेता ‘ मैं इस कहावत को पलट रहा हूं-- आज के नेता कल थे बच्चे, जी हां, ये आज भी बचपन दोहरा रहे हैं। हां थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया है-
आओ आओ खेलेंगे
गुड़ की भेली फोड़ेंगे
बांट-बांट के खाएंगे

उन बच्चों के पास भेली नहीं होती थी। होती थी भोले बचपन की एक मिठास। और इन पुरातन बालकों के पास भी भेली नहीं है पर एक भेली जैसी कोई चीज, है जरूर। ये सारे सचमुच में ही उस भेली को फोड़-फोड़कर खा रहे हैं। इनमें से कुछ लखा रहे हैं। इस भेली का मालिक भी न जाने कहां है, होता तो कुछ रोक टोक हो जाती।

जो खा रहे हैं और जो लखा रहे हैं ये सभी भविष्‍य में झांक रहे हैं और आने वाली नई भेली को ताक रहे हैं। एक दूसरे से जोर आजमाइश और ताकत की नापतौल चल रही है। अभी से तय होने लगा है कि कौन कितनी फोड़कर खायेगा और कितनी जेब में डालेगा। रिहर्सल होने लगी है। विचार है कि अब तक जो भेली खा रहे थे उनको हाथ नहीं लगने देनी है। जो आज से पहले खा रहे थे, उनकी छीछालेदर तो करनी ही है। किसने कितनी खाई है, किसने कितनी लुटाई है, इसका भेद लगाना है। देश के लिए कुछ काम को करना है न । सी. बी. आई. को क्या ठाली बैठाकर तनख्वाह देनी है। उन्हें भी हिल्ले लगाना है।


रही जनता की बात, तो उसे यह भेली चाटने को भी न मिल सकेगी। हां बिना खाये चटखारे जरूर ले सकती है। इस बीमारी को चटखारे लेने से शुगर की बीमारी भी नहीं हो पायेगी, ये इसके स्वास्थ्य के हित में रहेगा। ये चटखारे उसे पांच साल तक हिल्ले लगाये रखेंगे। जनता तो, कभी न होने वाली संभावित सजा होने की घोषणा के इंतजार में मजे लेती रहेगी। मुफ्त में मजे मिलेंगे, ये क्या कम है। साथ ही अखबारों को भी खबरों का खजाना मिलेगा वरना अखबार वाला क्या लिखेगा। कोरे कागज को अखबार नहीं कहते न।

ये समय है, सौदेबाजी का। कौन बाजीगर बाजी मार ले जाए कुछ पता नहीं। हो सकता है चुनावी नतीजे किसी बिलौटे के भाग्य से छींका तोड़ दें। अभी तो सभी कपड़ों को झक्क सफेद करने में जुटे हैं। उन जूतियों और जूतों में चमक लाई जा रही है जिनमें बाद में दाल बंटनी है। ये दाल बंटे या भेली फूटे
जनता के भाग्य में न दाल रहेगी न गुड़ की डली।


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रविवार, 15 मार्च 2009

नई दुनिया की खोज ' हरिभूमि में प्रकाशित '

झांको, खूब झांको। आदत से बाज नहीं आया करते। खुद कैसे हो इस बात पर गौर न करो। पड़ौसी कैसा है, इस बात पर ज्यादा ध्यान दो। पड़ौसी के पड़ौस में क्या चल रहा है, ये भी आपको पता होना चाहिए। अमेरिका को देखो न पड़ौसी के पड़ौसी के पड़ौसी को भी देख लेता है। ये जो दो-दो दीदे दिये हैं भगवान ने, ये दूसरों को देखने के लिए ही दिये हैं, खुद को देखने के लिए नहीं। खुद को देखने के लिए तो दर्पण भी बाद में आविष्‍कृत हुआ और हुआ भी तो झूठ बोलता है। लोग कहते हैं, दर्पण झूठ न बोले। पर बोलता है, बांये अंग को दांया बताता है। ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर बताने लगे, क्या भरोसा।
बात ताक-झांक की हो रही थी। दुनिया के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में दूरबीन लगाकर झांक रहे हैं। देखना चाहते हैं कि कहीं और भी जीवन और सभ्यता है पृथ्वी के अलावा। नये जीवन और नयी सभ्यता की खोज हो रही है, जैसे यहां की सभ्यता कम पड़ गयी हो। सबका अपना अपना आसमान है, झांकने में क्या जाता है। मैं इन वैज्ञानिकों के अब तक के असफल प्रयास से कतई प्रभावित नहीं हूं। खांमखां अरबो फूंक रहे हैं। आने वाले समय में भी मुझे ये विषय निरर्थक लगता है। क्या कारण हैं ?
अपनी सभ्यता दिखाने के लिए कि देखो हम इंसानियत का कत्ल कितनी आसानी से कर देते हैं। जीवन के विनाश के सभी इंतजामात कर चुके हैं। परमाणु बम हो या रासायनिक हथियार। हम एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछने के लिए चिठ्ठी नहीं, मिसाइल भेजना चाहते हैं। हम देशवासियों का पेट काट-काट कर उसी की मौत का इंतजाम कर रहे हैं। किसी ने कहा है कि जीना है तो मरना होगा, सो इस सभ्यता का प्रयास है कि पहले भूखा मर, बच गया तो हथियारों से मर। आखिर जीवन का लक्ष्य ही तो मरना है। अंतरिक्ष वाले इस सभ्यता को देखकर गदगद हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं। क्यों ढूंढ़ रहे हैं नयी दुनिया, नई सभ्यता। शायद कुछ नया मिले। संभव है वहां सब कुछ पुराना ही दिखाई दे और कोई दूसरा अमेरिका इराक में जूता खाने की जिद कर रहा हो। अफगानिस्तान में मुल्ला उमर को उमर भर तलाशता फिर रहा हो। पाक में अपनी ही देन लादेन को देखने के लिए तरस रहा हो। हो सकता है उग्रवाद से त्रस्त कोई भारत भी नजर आये, जो अमेरिका की तरफ ताक रहा हो। हां...... क्या हुक्म है मेरे आका। मैं अपने पड़ौसी को देखूं या सुबूत ही दिखाता रहूं। अब तक जितने भी सुबूत दिये या दिखाये हैं, उन सभी से गिलानी जी को गिलानी हो रही है। और जरदारी साहब गरदन हिला हिलाकर कह रहे हों कि अमां मियां..... कसाब के अब्बा को तो, कोई औलाद हुई ही नहीं। और तो और कसाब की तो मां भी नहीं थी, तो उसका देश कहां से होगा। भारत को और ठोस सुबूत पेश करने होंगे। अब ये मसला ठोसियत पर टिका कर भारत को ठोसा दिखा दिया जाए, तो कोई अचंभा नहीं।
उस विशाल अंतरिक्ष में भारत पाक दिखें या नहीं, पर गनीमत है इस दुनिया में पाक ने आखिरकार माना है कि कसाब पाकिस्तानी है, भले ही दबाव में ही सही। बिना दाब के रस नहीं निकलता।
वैज्ञानिक नई दुनिया देखने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें देखने दो। नई दुनिया हमें देख रही है तो उसे भी देखने दो। हम तो अपने पड़ौसी को देख रहे हैं कि कब बिना दाब के सच को स्वीकारना सीखेगा।
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शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बेलगाम पुलिसवाले 'आज के समाचार पत्र हरिभूमि में प्रकाशित'

पुलिस में बढ़ती रिश्‍वतखोरी की आदत से पुलिस आयुक्त परेशान हैं। लगाम लगाने की सोच रहे हैं। पुलिस वाले घोड़े होते तो लग जाती। बैल भी नहीं हैं जो नाथ देते। रिश्‍वत में पुलिस वालों का क्या दोष है। ये तो राष्‍ट्रीय शगल है।
वर्दी धुलवानी है, कलफ लगवाना है और प्रैस भी करानी है। अब जूता तो है नहीं कि किसी गरीब को लात मारकर चमका लिया जाए और पालिश का पैसा बचा लिया जाए। ये बात कमिश्‍नर साहब को कैसे पता चली होगी, ये जो जांच का विषय है। फिर भी अगर पुलिस वाले रिश्‍वत के लिए लपलपा रहे हैं, वो भी कलफ के लिए तो आयुक्त साहब क्यों कलप रहे हैं। इसका भी हमें पता है, चलिये बताते हैं-

अभी कुछ दिन पहले अखबारों में एक खबर आयी थी, शायद वही खबर पता चल गयी होगी। मुझे तो बड़ा खराब सा लगा जब भिखमंगो के पैसे गिनने की हिमाकत की गयी। एक सर्वे हुआ और रिपोर्ट आयी तो आंखें फाड़-फाड़कर देखना पड़ा जीरो गिनने के लिए। पता चला कि शहरों में भीख का धंधा करोड़ों में है। हो सकता है पुलिसिया रिश्‍वतखोरी का धंधा अरबों या खरबों में हो। हो सकता है आयुक्त साहब ने भी पुलिस का सर्वे कराया हो और जीरो गिने लिए हों। हो भी क्यों नहीं। भिखमंगे को तो एक या दो का सिक्का मिलता है। इक्का दुक्का कोई पांच या दस रुपये देता है, तब फीगर करोड़ों में है।

अब सोचो पुलिस है तो इज्जत का कूड़ा थोड़े ही करेगी, पचास या सौ से नीचे हाथ फैलाकर। वो जमाने चले गये जब दस में काम चल जाया करता था। वर्दी पर लगी फीतियों से तय होता है कि गांधी कितना बड़ा होगा। गांधी पीला होगा या लाल होगा। गांधी एक होगा या अनेक। वैसे गांधी चाहे जैसा हो इन्होंने गांधी के नाम को रोशन तो किया। हां, इतना जरूर है कि ये धंधा भीख जितना गंदा नहीं है। रिश्‍वतखोरी में कम से कम शान तो है। बड़े-बड़ों ने
शान से ली है। लेने देने से नाम होता है, काम होता है या नहीं ये कम से कम मुझे तो नहीं पता। हां इतना अवश्‍य पता है कि रिश्‍वतखोरी की जांच में शायद रिश्‍वत से कई गुना पैसा खर्च हो जाता है।

वैसे वित्तमंत्री भी नहीं जानते होंगे, जितना सड़क किनारे खड़ा खोमचे वाला जानता है कि देश की अर्थव्यवस्था कहां से कहां तक व्यवस्थित है। मुद्रा का प्रसार किस प्रकार हो रहा है। इस प्रसार में भी एक सार है। इसको कर में लेने पर आयकर नहीं लगता।

बुधवार, 11 मार्च 2009

बुरा न मानो होली है

फागुन


न जाने क्‍या कब हुआ, बचपन हो गया लुप्‍त

यौवन छलके देह से, फागुन रखियो गुप्‍त

कुछ छींटे महसूस कर भीगा सारी रात

मौसम हुआ शरारती ख़बर बांट दी मुफ्त


भंग का रंग


लगती पीकर भांग को, होली बड़ी विचित्र

फिर तो भाभी सा लगै, हमको अपना मित्र

अगर नहीं हो पास कभी वो होली में

रंग डालो जी प्‍यार से उठा उसी का चित्र


होली में भी दर्द है

शादी अपनी हो गयी, ससुर मिले कंजूस

किसको हम साली कहें, होता है महसूस

नहीं दीखती बाला कोई होली में-

दुनिया खुश है आज हमीं बस लगते हैं मनहूस





रविवार, 8 मार्च 2009

नेक सलाह होली से पहले

यह रचना 'अहा जिंदगी' मार्च 2009 में प्रकाशित हो चुकी है।

भल्‍ले गु‍झिया पापड़ी खूब उड़ाओ माल
खा खाकर हाथी बनो मोटी हो जाए खाल
फिरो मजे में बेफिक्री से होली में
मंहगाई में कौन लगाए चौदह किलो गुलाल

रविवार, 1 मार्च 2009

शुक्र है दिल बच गया

कल रात मैं अपने आफिस मैं बैठा कुछ सोचने लगा। तभी मेज का शीशा अचानक बिना दबाव बिना प्रभाव ताव में आ गया और खण्‍ड खण्‍ड विखण्डित हो गया। मटर के से दाने फैल गये सारे कमरे में। मैं भौंचक्‍का रह गया। काफी खोज की कि कहीं कोई चीज टकराई हो पर कोई सुबूत नहीं मिला और मैंने देखा भी नहीं कोई चीज गिरते हुए। टेलीफोन भी शीशे पर था उसके नीचे भी शीशा टूट चुका था। सामने होते हुए भी कोई भी टुकड़ा मुझे नहीं लगा। मेज और पूरे कमरे में बिखर गया था वह लगता था, बहुत गुस्‍से में था। विस्‍फोट की आवाज भी आयी थी।
ये आवाज पास ही में काम कर रहे दो स्‍टेशन मास्‍टरों को भी आयी। जो उन्‍होंने बाद में स्‍वीकारी भी, लेकिन दोनों में से कोई सा भी ये जहमत नहीं उठा पाया कि देखें क्‍या हुआ है। चलो ये तो आज का समाज है जो अपनी मर्जी के अनुसार चल रहा है। मुझे इस बात की अपेक्षा नहीं थी लेकिन उनको मेरे कमरे में आकर देखना ही चाहिए था। भले ही जिज्ञासावश ही सही।
सवाल ये नहीं है कि आज के पड़ौसी और आसपास के लोगों की प्राथमिकताएं क्‍या हों, सवाल ये है कि वह शीशा बिना वजह टूटा क्‍यों। सिर्फ टूटा ही नहीं टुकड़े टुकड़े हो गया। है कोई जानकार जो बताए कि ऐसा क्‍यों हुआ।
मुझे पता है, दिल टूटा होता तो ढेर सी सलाह व जानकारियां मिलतीं। देखते हैं अब कितनी मिलेंगीं।