पुराने जमाने की बात है, सांझ होते ही मोहल्ले का एक बच्चा आवाज लगाता था-
आओ बालको खेल्लैंगे
गुड़की भेल्ली फोड़ैंगे
बांट-बांट कै खावैंगे
ये टेर सुनते ही गली में सभी बच्चे पहुंच जाते थे, छुअम् छुआई खेलने के लिए। इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। नेहरू जी ने कहा था कि ‘आज के बच्चे कल के नेता ‘ मैं इस कहावत को पलट रहा हूं-- आज के नेता कल थे बच्चे, जी हां, ये आज भी बचपन दोहरा रहे हैं। हां थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया है-
आओ आओ खेलेंगे
गुड़ की भेली फोड़ेंगे
बांट-बांट के खाएंगे
उन बच्चों के पास भेली नहीं होती थी। होती थी भोले बचपन की एक मिठास। और इन पुरातन बालकों के पास भी भेली नहीं है पर एक भेली जैसी कोई चीज, है जरूर। ये सारे सचमुच में ही उस भेली को फोड़-फोड़कर खा रहे हैं। इनमें से कुछ लखा रहे हैं। इस भेली का मालिक भी न जाने कहां है, होता तो कुछ रोक टोक हो जाती।
जो खा रहे हैं और जो लखा रहे हैं ये सभी भविष्य में झांक रहे हैं और आने वाली नई भेली को ताक रहे हैं। एक दूसरे से जोर आजमाइश और ताकत की नापतौल चल रही है। अभी से तय होने लगा है कि कौन कितनी फोड़कर खायेगा और कितनी जेब में डालेगा। रिहर्सल होने लगी है। विचार है कि अब तक जो भेली खा रहे थे उनको हाथ नहीं लगने देनी है। जो आज से पहले खा रहे थे, उनकी छीछालेदर तो करनी ही है। किसने कितनी खाई है, किसने कितनी लुटाई है, इसका भेद लगाना है। देश के लिए कुछ काम को करना है न । सी. बी. आई. को क्या ठाली बैठाकर तनख्वाह देनी है। उन्हें भी हिल्ले लगाना है।
रही जनता की बात, तो उसे यह भेली चाटने को भी न मिल सकेगी। हां बिना खाये चटखारे जरूर ले सकती है। इस बीमारी को चटखारे लेने से शुगर की बीमारी भी नहीं हो पायेगी, ये इसके स्वास्थ्य के हित में रहेगा। ये चटखारे उसे पांच साल तक हिल्ले लगाये रखेंगे। जनता तो, कभी न होने वाली संभावित सजा होने की घोषणा के इंतजार में मजे लेती रहेगी। मुफ्त में मजे मिलेंगे, ये क्या कम है। साथ ही अखबारों को भी खबरों का खजाना मिलेगा वरना अखबार वाला क्या लिखेगा। कोरे कागज को अखबार नहीं कहते न।
ये समय है, सौदेबाजी का। कौन बाजीगर बाजी मार ले जाए कुछ पता नहीं। हो सकता है चुनावी नतीजे किसी बिलौटे के भाग्य से छींका तोड़ दें। अभी तो सभी कपड़ों को झक्क सफेद करने में जुटे हैं। उन जूतियों और जूतों में चमक लाई जा रही है जिनमें बाद में दाल बंटनी है। ये दाल बंटे या भेली फूटे
जनता के भाग्य में न दाल रहेगी न गुड़ की डली।
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आजकल के चल रहे हालातों पर अच्छा व्यंग्य किया है ...
जवाब देंहटाएंमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति